हिमालय मानवता का हृदय क्षेत्र है। अपनी पर्यावरण संपदा की समृद्धता के लिए यह सृष्टि के आदिकाल से ही विख्यात रहा है। इसी के आँचल में मनुष्य ने अपना आदि उद्भव देखा और साँस्कृतिक विकास का चरमोत्कर्ष पाया। मूल निवासी के रूप में मानव की उत्पत्ति हिमालय के उत्तराखंड क्षेत्र में हुई। यही (मध्य हिमालय) मानव जाति का उत्पत्ति स्थल एवं आर्ष संस्कृति का आदि स्त्रोत है। वेदों और पुराणों में, रामायण और महाभारत में वर्णित हिमवंत की समस्त गौरव गाथा स्पष्टतः मध्य हिमालय के इसी भूभाग पर केंद्रित रही है। भगवान् व्यास से लेकर महाकवि कालीदास और आचार्य शंकर ने यहाँ के अद्वितीय आध्यात्मिक सौंदर्य से ही नहीं, वरन् सर्वोत्कृष्ट प्राकृतिक सौंदर्य से भी चमत्कृत होकर अपने काव्य ग्रंथों में जो स्वाभाविक चित्रण किया वह महाभारत, अष्टादश-पुराण, मेघदूत, कुमारसंभव आदि संस्कृत भाषा के महत्वपूर्ण ग्रंथों में सुरक्षित है।
इसी दिव्य भूमि में सृष्टि का आदि काव्य वेद ज्ञान के रूप में अपने अलौकिक वैभव के साथ अवतरित हुआ। इसी के सुरम्य आँचल में तप-साधना में लीन ऋषियों ने वेद-उपनिषद्, दर्शन, पुराणों की ज्ञान गंगा बहाई। इसी दौर में मानवीय सभ्यता ने विकास का जो स्वर्ण युग देखा, वह प्रकृति के साथ मनुष्य के गहन सामंजस्य, सहयोग एवं सद्भाव की कहानी है। वैदिक ऋषि न केवल वेदमंत्रों के द्रष्टा थे, बल्कि वे कुशल वैज्ञानिक भी थे। प्रकृति-पर्यावरण के सूक्ष्म रहस्यों को जानने के लिए वे जितने उत्सुक थे, उतने ही पर्यावरण के संरक्षण के विषय में भी सजग थे। वेदों के सूक्तों में इस विषय के लिए विशेष स्थान मिला है। ऋग्वेद में अगस्त्य ऋषि पर्यावरण संरक्षण के मूल रहस्य को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ब्रह्माँड की सुरक्षा द्यावा पृथिवी की सुरक्षा पर निर्भर है। इसके अग्नि सूक्त में जल मंडल, स्थल मंडल व वायु मंडल का विशद् वर्णन किया गया है, जिनके जीवन युक्त भाग को जीवन मंडल या पर्यावरण कह सकते हैं। सूक्त का सार ऋषि के इस सूत्र में व्यक्त होता है, “माता भूमि पुत्रोऽहं पृथिव्याः।” जिसमें पृथ्वी को माँ की संज्ञा दी गई है। इसी तरह यजुर्वेद का 36वां अध्याय प्रकृति के गुणगान से भरा हुआ है व इसके शाँतिपाठ में समग्र शाँति की सौम्य प्रार्थना की गई है।
वेदों की जैविकीय आधार पर व्याख्या करने वाली विदुषी डॉ. मार्टवनुची अपने शोधग्रंथ में लिखती है कि वैदिक ऋषियों ने प्रकृति के बाहरी अध्ययन के साथ इसके विभिन्न घटकों को जोड़ने वाले अंतर्निहित सूत्र ‘ऋत’ का भी साक्षात्कार किया था। प्रकृति से इस गहन तादात्म्य की स्थिति में ही मानवीय विकास को आध्यात्मिक आधार पर प्रतिष्ठित करने वाले अलौकिक धर्म का विकास हुआ, जो बाद में उपनिषदों के चिंतन में भी मुखरित होता है। इसमें भी जगह-जगह पर पर्यावरण के महत्व पर प्रकाश डाला गया है। वन-अरण्यों की गोद में ही वस्तुतः इस काल की संस्कृति पुष्पित-पल्लवित हुई थी, जिस कारण यह ‘अरण्य संस्कृति’ के नाम से भी प्रख्यात हुई।
रामायण एवं महाभारत महाकाव्यों से भी प्रकृति एवं वन संरक्षण का यही संदेश प्रकट होता है। क्रमशः इनके अरण्य काँड एवं वनपर्व में वृक्ष एवं वनों का महत्व विशेष रूप से उद्घाटित होता है। इसी तरह पुराणों के पन्ने-पन्ने प्रकृति के महिमागान से भरे हुए है। इनमें श्रीमद्भागवत विशेष रूप से इसका मर्मोद्घाटन हुआ है। कालप्रवाह मौर्यकाल में महामनीषी चाणक्य के चिंतन में वन के महत्व एवं जीव संरक्षण पर सूक्ष्म विचार पाते हैं, जिसको चंद्रगुप्त ने व्यावहारिक रूप दिया था। अशोक के काल में हम इसका चरमोत्कर्ष पाते हैं। इसी परंपरा को गुप्तकाल में हर्षवर्धन ने आगे बढ़ाया है। इस काल में कालीदास से लेकर, माघ, बाण, बुद्धघोष, भवभूति, भारवि आदि कवियों द्वारा वन-उपवन एवं जीव-जंतुओं सहित मनुष्य के पर्यावरण के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंधों का उल्लेख मिलता है।
प्रकृति को साथ लेकर चलने वाली मनुष्य की यह प्रगति यात्रा प्रायः मुस्लिम काल में भी अपने धार्मिक विश्वास के तहत यथावत् चलती रही। पश्चिम में भी परंपरागत धार्मिक विश्वास के अंतर्गत यही स्थिति बनी रही। किंतु समय ने पलटा खाया। यूरोपीय पुनर्जागरण के साथ यूरोप में विज्ञान एवं बुद्धिवाद के उद्भव के साथ भौतिकता की ऐसी आँधी उठी कि इसने मनुष्य और प्रकृति के चिर पुरातन रिश्ते को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। प्रगति के नाम पर भोग-विलास एवं संकीर्ण स्वार्थ मनुष्य का आदर्श बनकर रह गया।
20वीं सदी पर्यावरण के प्रति मानव के निष्ठुर, निरंकुश एवं संवेदनहीन व्यवहार की साक्षी रही है। बढ़ते औद्योगीकरण के कारण वायु प्रदूषण की स्थिति सबसे गंभीर है। विश्व के वायुमंडल में सतत 4 करोड़ टन 42 घुलती रहती है। पृथ्वी की सुरक्षा छतरी 3 (ओजोन परत) में बढ़ते प्रदूषण के कारण यूरोप महादेश जितना छेद हो चुका है, जिसमें प्रवेश करती पराबैंगनी किरणें स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा बनती जा रही है। उपर्युक्त कारणों से पृथ्वी का तापमान सतत बढ़ता जा रहा है। यदि स्थिति यही रही तो ध्रुवीय बर्फ के पिघलने से शीघ्र ही जल-प्रलय की स्थिति आ सकती है।
पर्यावरण में असंतुलन के कारण प्रकृति प्रकोप, सूखा, बाढ़, अकाल, भूकंप, महामारी, तेजाबी वर्षा एवं चक्रवातों के रूप में कहर बरसा रही है। इस तरह तथाकथित विकास, विनाश का दूत बनकर सामने आया है। अमेरिकी मनीषी जे. एम. हाक अपने ग्रंथ में ठीक ही फरमाते हैं कि प्रकृति पर अंतहीन आक्रमण एवं बिना सोचे-समझे हेर-फेर ने विकास के नाम पर एक ऐसी सभ्यता को जन्म दिया, जो मरुस्थल की जगह मरु-उद्यान खड़ा करने की बजाय मरु-उद्यान को मरुस्थल में बदलने वाली सिद्ध हुई।
हिमालय के अंचल में नवगठित उत्तराँचल राज्य के विकास के संदर्भ में ये चुनौतियाँ और भी अधिक मुँह बाए खड़ी है। विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधुँध कटाई, अनियोजित सड़क निर्माण, बड़े बाँध, उत्खनन, वन्य जीवों का बेरहमी से शिकार, अविचारित पर्यटन एवं पर्वतारोहण आदि कुछ ऐसी मानवीय गतिविधियाँ है, जो इस क्षेत्र के पर्यावरण तंत्र को अस्त-व्यस्त कर रही है। इनमें सबसे प्रमुख समस्या वनों का विनाश है। जिससे अनेकों समस्याएँ पैदा हो रही है। राष्ट्र वन नीति द्वारा निर्धारित 60 प्रतिशत का वन आवरण घटकर मात्र 28 प्रतिशत रह गया है। प्राचीनकाल से जड़ी-बूटियों का भंडार रहे हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में 2 से अधिक पादप प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर है। इनमें से कुछ तो ऐसी है, जो मात्र इसी क्षेत्र में पाई जाती है। अनियोजित एवं अवैज्ञानिक विकास के कारण ही यहाँ हर दो किमी. बाद एक भूस्खलन और हर 1 किमी. पर विशाल भूस्खलन सक्रिय है। बाढ़ और भूकंप ही बारंबारता बढ़ती जा रही है। एक दशक में ही उत्तराँचल उत्तरकाशी एवं चमोली के दो विकराल भूकंपों की विनाशलीला देख चुका है। इस संदर्भ में टिहरी जैसी विशाल परियोजना की उपयोगिता संदिग्ध ही है। पर्वतारोहण एवं साहसिक खेलों के कारण हिमालय कूड़े-कचरे के ढेर में बदलता जा रहा है, जो बहुत चिंताजनक है।
उत्तराँचल के पहाड़ी क्षेत्र में अनियंत्रित विकास प्रक्रिया के कारण इसके वातावरण में कई अप्रत्याशित परिवर्तन आ रहे है। बादल फटने की घटनाएँ कुछ ही वर्षों से प्रकाश में आई है, जिन्हें विशेषज्ञ वन विनाश की प्रतिक्रियास्वरूप मान रहे है। ग्लेशियर तेजी से पिघलते जा रहे है और बर्फबारी कम हो रही है। ‘स्नोलाइन’ क्रमशः ऊपर सरकती जा रही है।
पर्यावरण संकट की वर्तमान स्थिति पर गंभीर विचार करते हुए सी. सी. द्विवेदी एवं वी. एन. तिवारी अपने शोध-ग्रंथ में लिखते हैं, “मनुष्य का असीमित लालच अज्ञानता एवं जीवन के प्रति भौतिकता की दृष्टि प्रमुखतम इसके लिए जिम्मेदार है और प्रकृति से छेड़खानी के दुष्परिणाम केवल बाह्य संकट तक सीमित नहीं है, इसके मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभाव और भी गंभीर है, क्योंकि मनुष्य के अंतः करण-प्रकृति पर्यावरण से सीधा जुड़ा हुआ है।” नार्वे के दार्शनिक अर्नेनीस ने पर्यावरण का संबंध समस्त संसार व इनसान के बीच घनिष्ठता से जोड़ा है। उनके अनुसार विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ श्रीमद्भगवद् गीता के 7वें अध्याय में इस बात को और स्पष्ट ढंग से समझाया गया है। उन्हें अष्टधा प्रकृति कहा गया है। पहले पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश पाँच बाहरी एवं मन, बुद्धि, अहंकार तीन आँतरिक आपस में खूब गहराई से जुड़े है। बाहरी हलचलें आँतरिक प्रकृति को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकती।
इसी कारण डब्ल्यू. इस्टेट सोशियल इकॉलाजी एंड ह्यूमन बिहेवियर में लिखते हैं कि विकास के नाम पर अंधी दौड़ ने मनुष्य को प्रकृति से पृथक् कर एक व्यापक असंतुलन पैदा किया है। इससे प्रदूषणजन्य रोगों में तो वृद्धि हुई ही है मनोविकारजन्य रोगियों की संख्या भी करोड़ों में बढ़ी है। इसी मरह एम. रुथ एवं डॉ. इग्लेवी जैसे मनःशास्त्री मनोरोगों के लिए पर्यावरण की गड़बड़ी को जिम्मेदार मानते हैं इनके अनुरूप पर्यावरण का विघटन, अंतःकरण के विघटन को जन्म देता है। मनोविद् डॉ. वी. आर. शर्मा अपनी कृति ‘फ्रस्ट्रेशन, रीएक्शन ऑफ गवर्नमेंट एक्जेक्यूटिव्स’ में लिखते हैं कि फ्रस्ट्रेशन अथवा आशाभग्नता का स्पष्ट कारण पर्यावरण संबंधी विकृति है।
इसकी ओर स्पष्ट करते हुए येल विश्वविद्यालय के जे. डोलार्ड, एल डब्ल्यू. डोस, एन. ई. मिलर एवं ओगमीटर अपने संयुक्त अध्ययन ‘फ्रस्ट्रेशन एंड एक्शन’ में लिखते हैं, भग्नता व्यक्ति को आक्रामक बनाती है। यही आक्रामकता हिंसा को बढ़ाती है। इसी का अंतर्मुखी रूप अंदर-ही-अंदर घुटने के लिए बाध्य करता है, जिससे व्यक्ति परिवार एवं समाज से टूटने लगता है। यही क्रमशः व्यक्तित्व के विखंडन की ओर ले जाता है, जो व्यापक स्तर पर समाज में अनास्था, अनिश्चितता एवं असंतोषजन्य वातावरण बनाता है। मनोवैज्ञानिक संक्रामक रोग की तरह जनमानस में फैल रहे इस विघटन का कारण फ्रायड द्वारा बताई गई कामुक वासनाओं के दमन को नहीं बल्कि पर्यावरण एवं अंतःकरण के संबंधों का भुला देने तथा पर्यावरण से उत्पन्न विघटन को बताते हैं तथा इसके भी मूल में मनुष्य की संकीर्ण स्वार्थपरता एवं लोभवृत्ति को प्रमुख मानते हैं।
इस तरह पर्यावरण की दृष्टि से हिमालय की छाया में उत्तराँचल के विकास का वर्तमान स्वरूप न केवल अपर्याप्त है, बल्कि स्पष्ट रूप से नुकसानदायक भी, क्योंकि यह आर्थिक, सामाजिक, साँस्कृतिक एवं जैविक जीवन को एक साथ लेने में असमर्थ है। 21वीं सदी में आवश्यकता एक नए दृष्टिकोण की है, जो पृथ्वी पर जीवन को प्रकृति के मूल में सक्रिय ऋत व उसके सहज धर्म से जोड़े। भारत की समृद्ध-साँस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर यह सहज ही संभव हो सकता है। इस पृष्ठभूमि में किए गए अनुसंधानों के निष्कर्षों के अनुरूप समाधान पहाड़ी विकास को समग्र रूप देने तथा मनुष्य एवं प्रकृति के वर्तमान संबंधों के पुनर्निर्माण में निहित है।