भक्ति भावना सही अर्थों में दीन दुखियों के लिए अंतः से उद्भूत परमार्थ भावना ही है। भगवान ऐसे ही मान्यता देता है। चैतन्य महाप्रभु का कथन है,” परमात्मा कहता है, मैं भूखा था तुमने खाना दिया। मैं निराश्रित था, तुमने स्थान दिया। मैं नंगा था तुमने मुझे वस्त्र देकर सहायता पहुँचाई। चलो मेरे स्वर्ग में।”
धर्मात्माओं ने पूछा, “हमने कब आपको भोजन, पानी, आश्रय, वस्त्र, आदि दिए और कब सेवा-सहायता की?” प्रभु बोले, जो कुछ दीन-दुखियों के लिए किया गया, वह मेरे लिए है। यही करके तुम मेरे स्वर्ग- मुक्ति प्राप्ति के अधिकारी हो गए।”
श्रम की महत्ता कितनी अपार है जो अभाव, दरिद्रता ही नहीं, बीमारियों तक को भगाया जा सकता है, उसे समझाते हुए महात्मा आनंद स्वामी एक कथा सुनाया करते थे,
पहाड़ की अनुमति से बीमारियाँ पर्वत पर रहने लगी। कुछ दिन बीते, एक किसान को कृषि योग्य भूमि को कुछ कमी पड़ी। पहाड़ बहुत सारी जमीन दबाए खड़ा है, यह देखकर परिश्रमी किसान पहाड़ काटने और उसे चौरस बनाने में जुट गया। किसान ने बहुत सी भूमि कृषि योग्य कर ली। यह देखकर दूसरे किसान भी जुट पड़े। किसानों की संख्या देखते देखते सैकड़ों तक जा पहुँची। पहाड़ घबराया और अपने बचाव के उपाय खोजने लगा। कुछ और तो समझ में नहीं आया, उसने सब बीमारियों को इकट्ठा किया और फावड़े तथा कुदाल चलाते हुए किसानों की ओर संकेत किया और कहा, यह रहे मेरे शत्रु, तुम सबकी सब इन पर झपट पड़ो और मेरा नाश करने वालों का सत्यानाश कर डालो।
अपने-अपने आयुध लेकर बीमारियाँ आगे बढ़ी और किसानों के शरीर से लिपट गई, पर किसान तो अपनी धनु में लगे थे। फावड़े जितना तेजी से चलाते, पसीना उतना ही अधिक निकलता और सारी बीमारियाँ धुलकर नीचे गिर जाती। बहुत उपक्रम किया, पर बीमारियों की एक न चली। एक अच्छा स्थान छोड़कर उन्हें गंदवासिनी बनना पड़ा सो अलग।
पहाड़ ने जब देखा कि बीमारियाँ उसकी रक्षा नहीं कर सकीं, तो वह बड़ा कुपित हुआ और अपने पास से भगा दिया। तब से बीमारियाँ हमेशा गंदगी में प्रश्रय पाती है।