एक निष्काम योगी

May 2001

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गाँव की चौपाल खचाखच भरी हुई थी। भीड़ में अधिकाँश युवा चेहरे ही नजर आ रहे थे। प्रतीत होता था जैसे गाँव का संपूर्ण युवारक्त चौपाल पर एकत्रित हो गया है! हर युवा चेहरा कुछ कर गुजरने को कटिबद्ध दिखाई दे रहा था। उल्लास, उमंग और उत्साह के कारण उनकी भुजाएँ फड़कती दीख रही थी। प्रत्येक चेहरा दृढ़ संकल्प की आभा से आलोकित हो रहा था। चौपाल पर एकत्रित युवा दृष्टियाँ भीड़ के मध्य खड़े हुए एक प्रौढ़ व्यक्तित्व पर केंद्रित थी। उन्नत ललाट, गंभीर, परंतु शाँत चेहरा जो कि श्रम एवं अध्ययन के दिव्य आलोक से आलोकित था। चेहरे पर उगी हुई घनी दाढ़ी-मूंछें चेहरे की गंभीरता को कुछ अधिक घनीभूत करने में अपना पूर्ण योग प्रदान कर रही थी। सिर की लंबी जटाएँ उनकी संत प्रकृति की घोषणा करती प्रतीत हो रही थी। श्रम की कठोरता से बनी बलिष्ठ भुजाएँ एवं चौड़ा वक्ष-स्थल टाट के बने चोगे में छिपा हुआ था। शायद टाट के खाकी रंग के ही कारण लोग उस प्रौढ़ व्यक्तित्व को खाकी बाबा कहते थे।

चौपाल पर उपस्थित सभी युवाजन उस प्रौढ़ व्यक्तित्व को सुनने के लिए बेताब थे। खाकी बाबा के होंठ हिले और होठों के शब्दोच्चारण से पूर्व ही आकाश की ऊँचाइयों को छूने वाला युवारक्त एक साथ शाँत हो गया। नीरव स्तब्धता को भंग करते हुए बाबा ने गंभीर एवं सटीक शब्दों में कहना प्रारंभ किया, बच्चों! इस ब्रजधाम का यह ग्राम आपका ही नहीं मेरा भी है। बहुत बार आप सभी ने मिलकर इस गाँव में और आसपास के क्षेत्र में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से टक्कर ली है। आज उस गाँव को एक बार फिर आपके सहयोग की आवश्यकता है। प्रति सप्ताह इस गाँव से एक-दो शव यमुना की ओर जाते देखता हूँ, तो मेरी आंखें छलक उठती है। इस प्रकार असमय ही अपने परिवार के सदस्यों को यमुना को समर्पित करना क्या आपको सोचने के लिए विवश नहीं करता कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? क्यों हमारे भाई-बहन एक-एक कर हमारा साथ छोड़ यमुना की गोद में समाते जा रहे है? आखिर यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा?

बाबा ने अपनी गीली आंखों को पोंछा। एक दृष्टि चौपाल पर फैले शाँत, मूक समुद्र पर डाली और शब्द पुनः उनके होठों से प्रस्फुटित होने लगे। बच्चों! इस गाँव में होने वाली असामयिक दुर्घटनाओं का मूल कारण है ‘गंदगी’। मैं यह देख रहा हूँ कि मेरे इस गाँव की गलियाँ कूड़े-कचरे से भरी पड़ी हैं। जगह-जगह पड़े हुए कचरे के ढेर छोटे पहाड़ जैसे प्रतीत होते हैं। इन ढेरों से उठती दुर्गंध और इस पर भिनभिनाती मक्खियाँ, क्या है यह सब?

बाबा पुनः बोले? मैं ही नहीं, आप भी समझ रहे होगे कि यही है वे वस्तुएँ, जो हमारे स्वजनों को हमसे दूर कर रही है। तो आओ, क्यों न आज ही और अभी हम सब मिलकर अपने गाँव की दुश्मन इस गंदगी को अपने गाँव से निकाल बाहर करे और दृढ़ संकल्प करे कि भविष्य में अपने इस दुश्मन को अपने गाँव की चहारदीवारी में कदम रखने की अनुमति न देंगे।

बाबा के समर्थन में एक साथ अनेक युवा स्वर गूँज उठे, हम संकल्प करते हैं कि इस गंदगी को अपने गाँव में पनपने का अवसर कभी न देंगे।

भीड़ को चीरते हुए बाबा आगे बढ़े और अपने ही हाथों फावड़े से टोकरी में कचरा भरकर और उस कचरा भरी टोकरी को सिर पर रखकर गाँव के बाहर की ओर चल दिए।

बाबा के पीछे-पीछे कचरा भरी टोकरी उठाए अनेक युवक गाँव से बाहर जाते हुए दीख रहे थे। श्रद्धेय खाकी बाबा द्वारा प्रेरित यह सफाई अभियान गति पकड़ता जा रहा था। गलियों में स्थान-स्थान पर बने कचरे के ढेर धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे थे। गाँव के प्रायः सभी गलियों में बने हुए गंदे पानी के छोटे-छोटे तालाब भी अब नालियों में सिमटते जा रहे थे। गलियों एवं नालियों की सफाई के साथ-साथ मक्खी-मच्छरों की सेना भी कम होती जा रही थी। युवा ललाट पर स्वेद कण चमकने लगे थे। शरीर पसीने से लथपथ हो चुका था, परंतु फिर भी न तो सशक्त युवा हाथ रुक रहे थे और न ही युवा कदम थक रहे थे। खाकी बाबा के प्रोत्साहित करने वाले अमृतवचन बार-बार गूँज जाते थे। वे अंतःप्रेरित शब्द युवा शक्ति के लिए एक अनोखे टॉनिक का कार्य कर रहे थे, जो कि उस दृढ़ संकल्पित युवा लोगों को थकने नहीं दे रहा था। श्रम-स्वेद ने अपना रंग दिखाया और कुछ ही दिनों की मेहनत से गाँव की काया पलट हो गई। इस घटना को हुए कुछ समय बीत गया।

आज दिन की प्रखर आभा को भगवान् भास्कर अपनी किरणों में समेटते हुए विश्रामस्थल की ओर बढ़ रहे थे। सूर्यदेव के पीछे-पीछे सहज गंभीर संध्या वेला बढ़ती चली आ रही थी। दूर गायो का झुँड, धूल के बादल उड़ाता आ रहा था और मेरे कदम श्रद्धेय खाकी बाबा की कुटिया की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। हरीतिमा खंडों से सुसज्जित वह आश्रम एक मूक आमंत्रण-सा देता प्रतीत हो रहा था। आश्रम में कुटिया के चारों ओर विभिन्न प्रकार के रोगों में काम आने वाली जड़ी-बूटियों के पेड़ लगे हुए थे। आश्रम के पीछे से कल-कल करती यमुना अपने गंतव्य की ओर नवयौवना-सी इठलाती हुई बढ़ती चली जा रही थी।

बाबा अपना वही टाट का बना चोगा पहने कुटिया के सामने बैठे हुए थे। वे कुछ अस्वस्थ दीख रहे थे, परंतु उत्साह में तनिक भी ह्रास न था। अस्वस्थ होने पर भी उनकी वाणी में वही ओज था, वही गंभीरता थी। वे बड़े ही मनोयोग से पाठ कर रहे थे-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सगडोऽस्त्वकर्मणि॥

पाठ रुक गया। सामने बैठे हुए अपने युवक सहयोगियों को उन्होंने उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए अपना भावी कार्यक्रम बतलाना प्रारंभ किया, बच्चों! कर्म ही ईश्वर है और कर्म ही पूजा है। कर्म में भी सर्वोत्कृष्ट है समाज सेवा। पिछले दिनों आप सभी ने संगठित होकर जो कार्य किया है, सचमुच प्रशंसनीय है, परंतु अभी हमारा अभियान पूर्ण नहीं हुआ है। हमें अभी अपने अस्वस्थ भाई-बहनों को स्वस्थ करना है। मैं अभी से अपने आश्रम में जड़ी बूटियों को इकट्ठा कर दवाएँ बनाना शुरू करता हूँ और हम सभी कल से ही अपना नया अभियान प्रारंभ करे। घर-घर जाकर स्वास्थ्य की जाँच करने का, आवश्यक होने पर दवा वितरण का और रोगियों की सेवा-सुश्रूषा करने का कार्य प्रारंभ करना होगा।

रात-दिन जागरण और कठिन परिश्रम करके बाबा ने दवाएँ बनाना शुरू किया। उनके युवा सहयोगी घर-घर जाकर दवा वितरण करने लगे। उनकी सेवा-सहायता करने लगे। मेहनत रंग लाने लगी। रोगी स्वस्थ होने लगे, परंतु बाबाजी की अस्वस्थता अपार श्रम के कारण बढ़ती गई। फिर भी उनके परिश्रम में तनिक भी प्रमाद न आने पाया। समय के साथ-साथ गाँव की खुशहाली बढ़ती जा रही थी और उधर बाबा की रुग्णता भी। अचानक बाबा की तबियत अधिक खराब हो गई परिणामस्वरूप सूर्योदय से पूर्व ही चैत्र वदी नवमी के दिन वह महान संत समाज पर अपना सर्वस्व निछावर कर सदैव के लिए चल बसा। गाँव के बच्चे-बच्चे ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें भावभरी श्रद्धाँजलि दी।

उनकी स्मृति में गाँव के प्रवेश द्वार पर एक भव्य समाधि बनवा दी गई। उस कर्मधर्मी महान् संत की चिर-स्मृति को सँजोये रखने के लिए उनकी स्मृति में आज भी उनकी पुण्य तिथि के दिन प्रतिवर्ष एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। आज भी उनकी समाधि से कर्मण्येवाधिकारस्ते के शब्द प्रस्फुटित होते हुए प्रतीक होते हैं, जो जन-जन को निःस्वार्थ भाव से कर्म करने की प्रेरणा देते हैं।


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