“हमारे आत्मस्वरूप,
पत्र मिला। आपकी चिंता तथा कठिनाई की और भी अधिक गहरी जानकारी हुई। समाज का जो दृष्टिकोण हैं, वह अपनी जैसी अनेक कन्याओं के गले में नागपाश बनकर उनका दम घोंट रहा है। आपकी व्यथा हम जानते हैं। लगभग ऐसी ही व्यथा एक-तिहाई हिंदू धर्मानुयायियों को सहन करनी पड़ती है। चूँकि हर कोई अपनी सफलता व्यक्त करता है और व्यथा छिपता है, इसलिए वस्तुस्थिति का पूरा पता नहीं चलता, पर वस्तुस्थिति को बारीकी से परखा जाए, तो पता चलेगा कि लोक-मानस की जो अवाँछनीय स्थिति बन गई हैं, उससे कितना भारी उत्पीड़न हो रहा है। कई बार जी जल उठता है और लगता है जिस हिंदू समाज की महिमा गाते-गाते हमारे गले सूख गए अब उसकी बखिया उधेड़ने का काम आरंभ किया जाए। कन मसोसकर रह जाना पड़ता है। आपके सामने अपनी बच्ची की समस्या है, हमारे सामने ऐसी ही उससे मिलती-जुलती समस्याओं में उलझे हुए हजारों-लाखों अभिभावक हैं। उनकी व्यथा हमें रुला देती है।”
हमारे आत्मस्वरूप,
एक मिली। आपकी दयनीय तथा कठिनाई की और भी अधिक भी जानकारी हुई। समाज कर जो हम इकाई उतनी नई अनेक के समस्याओं के काम मात्र है।
परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से यह पत्र एक अभिभावक श्री बी. एल. गुप्ता को 16/3/1968 के दिन लिखा गया था। कितना कटु सत्य एवं वेदना भरी है इन पंक्तियों में। एक समाज सुधारक-संत के अंतःकरण में करुणा का स्तर क्या हो सकता है, इसका अनुमान इन पंक्तियों को पढ़कर लगाया जा सकता है। परमपूज्य गुरुदेव अंदर से माता समान थे एवं यही उनकी सजलता इनकी नारी जाति के उत्थान हेतु एक आँदोलन के रूप में विकसित हुई, जो परमवंदनीया माता जी का साथ पाने के बाद और गति पकड़ती चली गई। कोई भी आँदोलन जब तक करुणा नहीं उपजती, आध्यात्मिक आधार नहीं खड़ा होता, सफल नहीं हो पाता। नारी जागरण आज के समय की एक अनिवार्यता है, यह सभी जानते हैं। अविवाहित लड़कियों की बढ़ती समस्या, जलती बहुएं, दहेज-नेग की बलिवेदी पर लाखों अंतःकरणों का निरंतर जलते रहना यही बताते हैं कि गलित कुष्ठ की तरह से पनप रही इस समस्या का समाधान सभी को खोजना होगा। आज के भौतिकवादी युग में हम आधुनिक भी बने हैं, यथाकथित विज्ञान के आविष्कारों के चरम शिखर पर भी पहुँच चुके हैं, किंतु संवेदना की दृष्टि से हम शून्य होते चले गए हैं, यही कारण है कि अब यह घटनाएँ, ये समाचार और अधिक कष्ट नहीं देते। हमारी अंतश्चेतना को छूते नहीं।
परमपूज्य गुरुदेव ने 1942-43 से लेकर परमवंदनीया माताजी के शांतिकुंज आकर 1971 में नारी जागरण आँदोलन की बागडोर खड़ी करने तक अपनी लेखनी-वाणी द्वारा जो आग लगाई, उसी का परिणाम गायत्री परिवार है। इस संगठन के सत्तर प्रतिशत सक्रिय कार्यकर्ता नारी समुदाय से हैं। इसी से पता लगता है कि इस आंदोलन का आधार कितना सशक्त है। परमपूज्य गुरुदेव की नारी जागरण की पृष्ठभूमि उनकी श्रद्धासिक्त संवेदना है, जो नारी मात्र है।
प्रति है, उसके उत्पीड़न के विरुद्ध है। इसी पात्र में वे आगे लिखते हैं-
“आपकी बच्ची की समस्या हल होनी ही है। हो ही जाएगी। लड़की को समझाकर थोड़ा कम आजीविका वाला लड़का ढूंढ़ा जा सकता है। दोनों मिलकर आसानी से गुजर कर सकते हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त कर वह समाज कल्याण के रचनात्मक कार्यों में लग सकती है। विवाह जरूरी लगता तो हैं, पर है नहीं। इस जमाने में तो वह सुविधाजनक भी है।”
“आपकी सभी समस्या हल हो जाएंगी। है ही सच्ची। लड़की को समस्या कर थोड़ा कम आजीविका वाला लड़का मिलना आवश्यक है। सच कल भर आसानी से कहना आवश्यक है।
पत्र की एक-एक पंक्ति आज के अभिभावकों के लिए मार्गदर्शन है। आज की परिस्थितियों में कितने सही उतरने वाले आधुनिकतम विचार है। सभी अपनी लड़कियों के लिए अधिक कमाने वाले लड़का चाहते हैं। इसी में समय बीतता जाता है। यौवन ढल जाता है। यदि मानसिक पृष्ठभूमि बना ली जाए, तो बिना विवाह किए सुविधाजनक ढंग से भी रहा जा सकता है और अधिक समाज सेवा की जा सकती है तथा उस त्रासदी से भी बचा जा सकता है, जो जबर्दस्ती किसी अनपढ़ के साथ गले बाँध देने पर पैदा होती है।
इसी पत्र की आगे की पंक्तियाँ पूज्यवर की वास्तविक अंतर्व्यथा बताती है एवं आपसे व हम सभी से समाधान माँगती हैं।
“पर आपकी समस्या हल होने मात्र से क्या बनता हैं? रोग बहुत बड़ा और बहुत व्यापक है। इस महामारी से जूझने के लिए हमें अपने जीर्ण-शीर्ण शरीर और टूटे-फूटे साधनों को लगाना ही चाहिए। इसके बिना हमारी प्रबुद्धता निरंतर हमें धिक्कारती रहेगी। लोग बड़े-बड़े काम कर सकें, क्या हम लोग हिंदू धर्मानुयायियों के बीच सामाजिक क्राँति संपन्न नहीं कर सकते? यदि नहीं भी तो उसका बीजारोपण तो किया जा सकता है। आप जैसे थोड़े से भी समर्थ व्यक्ति इस दिशा में उठ खड़े हों, तो पहाड़ की बराबर काम हो जाए, पर आपकी भी विवशताएं हैं। क्या किया जाए? कैसे किया जाए? यही घुटन हर समय बनी रहती है।”
पर अपनी समस्या हल होने पर से कब बनता है।
गुरुसत्ता की व्यथा-वेदना किसी भी महामानव की अंतर्वेदना है। इसी व्यथा ने कभी महर्षि दयानंद को भी दुखी किया था एवं स्वामी विवेकानंद को भी। परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी से निकला एक-एक वाक्य भले ही संबोधित उन अभिभावक बंधु को हो, पर चुनौती सारे समाज के लिए है। इसी से संबंधित एक और पत्र पाठकों को पढ़वाने का मन है। यह पत्र 29/8/57 को सिवनी के श्री ध्रुवनारायण जौहरी को लिखा गया था।
“शादी के लिए बहुत ऊँचा दृष्टिकोण न रखें। बहुत धनीमानी घरों में जाकर लड़कियाँ मानसिक दृष्टि से सुख नहीं पातीं। मध्यम स्थिति के अपने से कुछ कम माली हालत तथा शिक्षा के लोगों में पैसे की तंगी भले ही रहे, पर लड़कियों का सत्कार होता है। इस दृष्टिकोण को रखकर ढूंढ़-खोज की जाए, तो गुत्थी सरलतापूर्वक सुलझ जानी चाहिए, ऐसी आशा है।”
शादी के लिए बहुत ऊंचा दृष्टिकोण न जाने। बहुत धनी लोग ये जानकर लड़कियाँ आवश्यक दृष्टि से प्राप्त नहीं करती। बात चाहे किसी की पुत्री की हो, बहिन की या मौसी की, सभी पर यह तथ्य लागू होता है। हम कितने चिंतित एवं दुखी बने रहते हैं, यह सभी जानते हैं। कई व्यक्ति तो रोगी हो जाते हैं एवं इसी चिंता में घुलकर मृत्यु के द्वार तक जा पहुँचते हैं। समाधान खोजना होगा एवं बड़े व्यापक स्तर पर इसके लिए जन-जागृति पैदा करनी होगी।
परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर यही प्रयास किया कि ऐसी बहिनों का मनोबल बढ़े, गृहस्थ जीवन सुखमय बने एवं वे रचनात्मक कार्यों में जुटें। ऐसा एक पत्र जो 4/12/51 को बदायूँ (उ. प्र.) की श्रीमती कुँती शर्मा के नाम लिखा, यहाँ उद्धृत है।
“प्रिय पुत्री कुँती,
आशीर्वाद। तुम्हारा पत्र मिला। पढ़कर बड़ा दुख हुआ। तुम्हारी जैसी लक्ष्मी महिला को पाकर जिन्हें अपना भाग्य सराहना चाहिए था, वे लोग इस प्रकार तिरस्कार करते हैं, यह उनके भाग्य की हीनता ही है। तुम इसे प्रारब्ध भोग मानकर अपने चित्त को समझा लो।
तुम विद्या पढ़ने में पूरा ध्यान दो। नारी की सबसे बड़ी दुर्बलता यह होती है कि वह परावलंबी होती है। यदि स्वावलंबी हो जाए, तो तरह-तरह के तिरस्कार न सहने पड़ें। तुम विद्या पढ़कर स्वावलंबन प्राप्त करो, तभी तुम्हारी रोज की मानसिक अशांति का मार्ग मिलेगा।”
पत्र की भाषा देखें, सत्परामर्श का स्वरूप देखें एवं समझने का प्रयास करें कि एक गुरु अपनी शिष्या का उंगली पकड़कर किस प्रकार मार्गदर्शन करता है। यही वह विधा है जिसने सक्रिय प्राणवान् नारियों की एक कार्यकर्ता वाहिनी खड़ी कर दी। यही तो वह संवेदनासिक्त मलहम हैं, जिसकी नारी को सर्वाधिक आवश्यकता है।
रचनाधर्मी काव्य का सृजन करने वालों में मिशन की मूर्द्धन्य कवयित्री के रूप में माया वर्मा को जाना जाता है। इन्हें यह स्वरूप दिया परमपूज्य गुरुदेव ने। उनने उन्हें इसी तरह गढ़ा जैसे कि कुम्हार घड़े का निर्माण करता है। समय-समय पर वे उन्हें पत्र लिखते, मार्गदर्शन करते। पत्र की पंक्तियों के माध्यम से जो प्राणशक्ति प्रवाहित होती थी, वही उनकी जीवनमूरि थी। 1/11/1969 को लिखा एक पत्र यहाँ प्रस्तुत हैं।
“तुम्हारी भावभरी सद्भावना पत्रों में लिपटकर जब आती हैं, तब सारी थकान दूर हो जाती है।
तुम्हें जो काम सौंपा है, उसे तन्मय होकर हर बार अधिक उत्कृष्टता लाने में, अधिक मनोयोग लगाने का प्रयत्न करती रहना। कोई चीज हलकी लगे, तो उसे दूसरी बार एक संशोधनकर्ता की तरह स्वयं ही सुधारा करो और दुबारा लिखा करो। आमतौर से सभी अच्छे लेखकों का क्रम यह रहा है कि एक बार प्राथमिक लेख लिखते हैं। दो-तीन दिन उसे पड़ा रहने देते हैं। तब तक जी ठंडा हो जाता है। फिर उसी रचना को किसी नौसिखिये की लिखी समझकर कड़ी समीक्षा करते हैं और कर्मियों पर निशान लगाते हैं। इसके बाद दुबारा उसे लिखते हैं। आमतौर से सभी अच्छे लेख दो बार लिखे जाते हैं।
तुम हर लेख को तो नहीं, पर जो हलके लगें, उन्हें दुबारा जरूर लिखा करो। इससे श्रम तो बेकार गया लगता है, पर अपनी प्रतिभा और उत्कृष्टता बढ़ती है। यह बढ़ोत्तरी बहुत बड़ा लाभ है। संशोधन के लिए हमारे ऊपर निर्भर रहना धीरे-धीरे छोड़ देना चाहिए और इस कार्य को स्वयं ही संभालना चाहिए। इसी क्रम से तुम्हारा स्तर लिखने के संबंध में ऊँचा उठेगा।
तुम्हारी याद भी सद्भावना से जब आती है। तब सजती है।
तुम्हें जो समझ हैं उस तन्मय होकर ही बाहर उत्कृष्टता सभी में अधिक समायोजित होती है।
माया वर्मा जी इसी शिक्षण को पाकर एक कवियित्री बन गई। आरंभ उनने गद्य से किया था, पर गति उन्हें पद्य लेखन में मिली। इसमें निश्चित ही उनको गढ़ने वाली गुरुसत्ता का प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों ही स्तर पर मिला अनुदान है।
नारी को नर के समान स्थान दिलाने के लिए सतत तत्पर रहे, इसीलिए तो वे एक पत्र में लिखते हैं।
“कन्या बहुत ही शुभ घड़ियों में जन्मी है। इस आप पुत्र से भी बढ़कर समझें। आपकी क्या उच्चकोटि की आत्मा है, वह आपके वंश को उज्ज्वल करेगी।”
कन्या बहुत ही शुभ जन्मी है। आपकी कन्या उच्च कोटि को आता है।
श्री बिहारी लाल दुबे विलासपुर को लिखा 13/11/1963 का यह पत्र इस गुरुसत्ता के एक सुधारक-चिंतक स्तर के स्वरूप को दर्शाता है। इक्कीसवीं सदी नारी सदी है। नया युग संवेदना की धुरी पर, नारी के द्वारा किए जाने वाले सृजन के माध्यम से ही आएगा। हम-आप सभी उसी भवितव्यता को साकार करने में अपनी ऊर्जा का नियोजन करने में लगाएँ।