व्यवस्था भी संभल गई (kahani)

May 2001

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मणियार ईश्वरभक्त था, किंतु उसका वैयक्तिक जीवन कुविचार और बुरे आचरणों में ग्रस्त होने कारण अशाँत था। उसकी धर्मपत्नी अर्बुद ने कहा, “स्वामी दुख और अशाँति का कारण अस्वच्छ मन है। आप ज्ञान के प्रकाश से पहले अंतरतम को धो लें, तभी शाँति मिलेगी।” मणियार ने कहा, “नहीं! हम लोग तीर्थ स्नान करने चलेंगे। तीर्थ स्नान से मन पवित्र हो जाता है।”

अर्बुद स्त्री थी, झुकना पड़ा। तीर्थ यात्रा पर चलने से पूर्व उसने एक पोटली में कुछ आलू बाँध लिए। जहाँ-जहाँ मणियार ने स्नान किया, उसने इन आलुओं को भी स्नान कराया। घर लौटते-लौटते आलू सड़ गए। अर्बुद ने उस दिन भोजन की थाली में वह आलू भी रख दिए, उनकी दुर्गंध कहाँ से आ रही है?” अर्बुद ने हँसकर कहा, “ये आलू तो तीर्थ स्नान करके आए हैं,’ फिर भी इनमें दुर्गंध है क्या?” मणियार ने वस्तुस्थिति को समझा और आत्मपरिष्कार की साधना में लग गया।

अकारण ही रुष्ट होकर महाराज प्रसिचेत ने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया। उनके इस अहंकारपूर्ण कृत्य से दुखी होकर राजपुरोहित ने उनका साथ छोड़ दिया। धीरे-धीरे बात प्रज्ञा के कानों में पहुँची। लोग स्पष्ट कहने लगे, जो व्यक्ति अपने स्वजन-सम्बन्धी की रक्षा नहीं कर सकता, वह प्रज्ञा जी रक्षा क्या करेगा। लोग राजाज्ञाओं का उल्लंघन करने लगे। इस स्थिति में पड़ोसी राजा ने प्रसिचेत पर आक्रमण कर दिया।

प्रसिचेत सेना लेकर मुकाबले के लिए चल पड़े। मार्ग में महर्षि अंगिरा कर आश्रम पड़ता था। वे महर्षि से मिलने को रुके, पहले तो महर्षि ने शासकोचित स्वागत की तैयारी की, पर तभी उन्हें पता चला कि महाराज ने अपनी पत्नी का परित्याग कर दिया है, तो उन्होंने स्वागत की सारी तैयारियाँ स्थगित कर दी और उनसे एक साधारण नागरिक की तरह मिले।

राजा ने इसका कारण पूछा, तो महर्षि ने कहा, राजन पत्नी का परित्याग करना अधर्म है, और धर्म से पतित कोई भी क्यों न हो, उसकी मान मर्यादा वैसे ही नष्ट हो जाती है जैसे आपकी। राजा ने भूल समझी और पत्नी को फिर बुला लिया, उससे उनकी शासन व्यवस्था भी संभल गई।


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