आत्महत्या का मनोविज्ञान

May 2001

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बहुमूल्य जीवन को लोग आखिर क्यों गँवाते हैं? वे कौन से कारण हैं, जिनकी वजह से लोग आत्महत्या करते है? आत्महत्या के इन कारणों को व्यक्ति व समाज के सम्बन्धों में तलाश करते हुए सुविख्यात फ्रांसीसी समाज शास्त्री एमिल दुर्खिम कहते हैं कि आत्महत्या बहुत कुछ व्यक्ति का समाज के साथ सम्बन्ध, समाज की स्थिरता, अस्थिरता और समाज में संव्याप्त मूल्यों पर निर्भर करती है, जिससे कि व्यक्ति घिरा होता है। इस आधार पर अपनी पुस्तक ‘द स्यूसाइड’ में वह आत्महत्या को तीन रूपों में वर्गीकृत करते हैं, (1) एनामिक स्यूसाइड (2) इगोइस्टिक स्यूसाइड और (3) इल्ट्रइस्टिक स्यूसाइड। उनके अनुसार एनामिक स्यूसाइड तब होते हैं, जब सामाजिक संतुलन बुरी तरह से प्रभावित होता है। अमेरिका में 1931 के दौरान ‘ग्रेट डिप्रेशन’ का एक युग आया। जिसमें आत्महत्या की दर 10 से 16 प्रतिशत बढ़ गई थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में अपने शत्रु से घिरे आस्ट्रियावासियों में आत्महत्या की यह वृत्ति अप्रत्याशित रूप से बढ़ी थी।

आतंकवाद से ग्रसित कश्मीर घाटी में भी इसी तरह से आत्महत्याओं को देखा जा सकता है। जिनकी संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। ‘द स्टेट्स ऑफ हेल्थ इन कश्मीर’ के नाम से छपे शोध पत्र में यह रहस्योद्घाटन छपा है कि आत्महत्या करने वाले अधिकाँश लोगों में किसी तरह के शारीरिक या मानसिक रोग की पूर्व शिकायत की थी। दुर्खिमब् ने विभिन्न देशों में अलग-अलग मानसिक कालखंडों में किए गए अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि विषम सामाजिक परिस्थितियों के अभाव के समय, आत्महत्या के विरुद्ध सबसे बड़ा सुरक्षा दल दूसरे लोगों के साथ मेल जोल व ऐक्य भाव होता है। आधुनिकतम अध्ययन की पुष्टि करता है।

स्यूसाइड में व्यक्ति अपने समाज के साथ साथ यहाँ बिना पाता। स्वयं को अलग थलग व असहाय अनुभव करता है। समूह या परिवार से दृढ़ पाकर उचित नहीं कर पाता। समाज का नियंत्रण उस पर कठोर होता है। यह स्थिति किसी शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न भी हो सकती है।

आत्महत्या का तीसरा स्वरूप है एल्ट्रइस्टिक स्यूसाइड। किसी समाज या संस्कृति के मूल्य उसके व्यवस्था तंत्र के कारण होते हैं। इन मूल्यों में गड़बड़ी के कारण व्यक्ति समाज या अपने परिवार कुटुँब के बंधनों में इतना जकड़ जाता है कि उसका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं बचता। अपने देश, जाति व समाज के नाम पर भावावेश में वह प्राणों का उत्सर्ग कर देता है भारत की सतीप्रथा व जापान की हाराकिरी इसके उदाहरण है। वियतनाम युद्ध में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा आत्महत्या व 1907 में जिम जोन के सौ से भी अधिक अनुयायियों द्वारा युयाना में आत्महत्या इसी के अन्य उदाहरण हैं।

मनःविशेषज्ञों के अनुसार आत्महत्या एक आक्रमण कृत्य है, जिसमें व्यक्ति का स्वयं को समाप्त करने के पीछे दूसरों को दुख देने का भाव निहित रहता है। सिम फ्रायड ने आत्महत्या पर सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक अध्ययन व शोध किया था। फ्रायड ने इसे आक्रामक वृत्ति का रूप माना है, इस कृत्य द्वारा व्यक्ति कल्पना में अपने नियम व आदर्श व्यक्ति पर प्रकार कर सुखानुभूति पाता है। स्वयं को समाप्त कर मानता है कि उसने उस व्यक्ति को खत्म कर दिया, जिसमें उसने अपनी पहचान बनाई फ्रायड का मानना था कि आत्महत्या किसी को मारने को नहीं इच्छा से पूर्व दमन के अभाव में नहीं हो सकती है। प्यार न मिल पाना भी व्यक्ति को आत्महत्या की ओर उकसा सकता है।

कार्ल मेनिंजर के अनुसार आत्महत्या व्यक्ति के रचनात्मक पक्ष पर उसके ध्वंसात्मक पक्ष की जीत है। मेनिंजर के अनुसार जीने की इच्छा ‘सुपर ईगो’ में विद्यमान स्वाभिमान के भाव पर निर्भर करती है। जब यह स्वाभिमान किसी भी कारण वश न्यून हो जाता है, तो आहत व्यक्ति भूखे व परित्यक्त शिशु की स्थिति में स्वयं को पाता है। जो समाविष्ट वस्तु का विनाश चाहता है। आत्महत्या क्षरा उस प्रिय वस्तु के नाश में सफल हो जाता है। जिसके समावेश ने सुपर ईगो की रचना में सहायता की थी। अपनी पुस्तक ‘मैन एगेन्स्ट हिमसेल्फ’ में मेनिंजर लिखते हैं कि व्यक्ति में किसी के प्रति हिंसा की भावना का अंत तीन रूपों में होता है, (1) मारने की इच्छा (2) मारे जाने की इच्छा और (3) मरने की इच्छा।

मनोवैज्ञानिक एल्फ्रेड एडलर आत्महत्या के कारण के रूप में मन में चल रहे द्वंद्वों की अपेक्षा व्यक्ति एवं समाज के बीच संबंधों को अधिक महत्व देते हैं। सामाजिक संबंध के बिना जीवन निरर्थक एवं निरुद्देश्य हो जाता है और आत्महत्या की ओर प्रेरित होता है।

मानव मन के मर्मज्ञ बौमेस्टर आत्महत्या को स्व से बचने या भागने का प्रयास का परिणाम मानते हैं। अपनी गलतियों कमियों व दुर्बलताओं के असहनीय अनुभवों के बोध से भागते ऐसे लोग अंततः ऐसी स्थिति में प्रवेश कर जाते हैं, जिसमें आत्महत्या के दुष्परिणाम के बारे में सोचने का अधिक श्रम करने की परवाह नहीं करते।

सुविख्यात मनीषी रोला के अनुसार मृत्यु ही जीवन को पूर्ण मूल्य देती है। अतः मृत्यु की निश्चितता हमें जीवन को गंभीरता से लेने के लिए प्रेरित करती है, जिससे कि हम अपनी क्षमताओं व शक्तियों का अधिकतम विकास व उपयोग कर सकें। इस संदर्भ में आत्महत्या जीवन से हार व इसे वृथा बरबाद करने का कृत्य है, क्योंकि इससे जीवन की समूची क्षमताओं की अनुभूति पर तुषारापात हो जाता है।

ब्राँस के अनुसार सभी आत्महत्याओं की पृष्ठभूमि छोटी -छोटी आत्महत्याओं द्वारा बनती है। जिनमें व्यक्ति दूसरों से कटता जाता है, जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेता है और जीवन मूल्यों की खोज बंद कर देता है। इस तरह आत्महत्या का अंतिम कुकृत्य अवास्तविक निर्णयों की एक लंबी शृंखला का परिणाम होता है।

एबनॉर्मल साइकोलॉजी इरविन और बखरा सरासान लिखते हैं कि 9 प्रतिशत व्यक्ति आत्महत्या करते समय किसी न किसी मनोरोग के शिकार होते हैं। मनोरोग में अवसाद व मूढ़ विकास को प्रमुख कारण माना गया है। इसके बाद व्यक्तित्व दोष एवं मादक द्रव्यों के सेवन को भी आत्महत्या का प्रमुख कारण बतलाया गया है। व्यक्तित्व दोष में समस्या के समाधान में अक्षमता, रचनात्मक दृष्टिकोण का अभाव, बिगड़े अंतर्वैयक्तिक संबंध, शरीर व मनःरोगों पर नियंत्रण का अभाव, सामाजिक सामंजस्य का अभाव आदि हो सकते हैं। अमेरिका में ऐसे 2379 व्यक्तियों पर किए गए अध्ययन के दौरान पाया गया है कि इनमें 98 प्रतिशत किसी न किसी प्रकार से रुग्ण थे। इनमें 94 प्रतिशत मनःरोग से पीड़ित थे।

एक आश्चर्यजनक तथ्य अध्ययन के दौरान उभरकर आया है कि अवसाद की गहनतम दशा से उबरने के दौरान ही आत्महत्या के अधिकाँश निर्णय लिए जाते हैं। अवसाद की घटना के दौरान मात्र एक प्रतिशत खतरा होता है, जबकि इससे राहत के दौर में खतरा 15 प्रतिशत अधिक बढ़ जाता है।

‘एबनॉर्मल साइकोलॉजी एंड मॉर्डन लाइफ’ पुस्तक के अंतर्गत फारवेदी और लिएमेन आत्महत्या करने वाले को 3 श्रेणी में विभाजित करते हैं। प्रथम श्रेणी वाले वास्तव में मरना नहीं चाहते। वे दूसरों पर अपने विषाद व आत्महत्या के विचार को व्यक्त करना चाहते हैं। ये न्यूनतम जहर न्यून जख्म या ऐसे ही गैरघातक तरीके अपनाते हैं और बचाव की पर्याप्त तैयारी रखते हैं। आत्महत्या का प्रयास करने वालों में दो तिहाई लोग इसी वर्ग में आते हैं। दूसरे श्रेणी के लोग मरने के लिए कृत संकल्पित होते हैं और कोई संकेत नहीं छोड़ते। ये अधिक घातक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इस वर्ग में तीन से पाँच प्रतिशत लोग ही आते हैं। तीसरी श्रेणी में लोग अनिश्चित मनःस्थिति में रहते व मौत को भाग्य के हाथ छोड़ देते हैं। इसमें 3 प्रतिशत लोग आते हैं। इनके उत्प्रेरक कारण मनचाही वस्तु का खो जाना, जीवन में अर्थहीनता, आर्थिक समस्या, बिगड़े संबंध आदि कुछ भी हो सकते हैं, जिनमें समाधान की कुछ आशा शेष नहीं रहती है।

आत्महत्या के जैविक कारणों पर भी वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के मनोचिकित्सक जे जॉन मान, वर्षों लंबे शोध के आधार पर आत्महत्या को गहरे विषाद का परिणाम नहीं बल्कि मानसिक दुर्बलता का परिणाम बताते हैं, जिसके कारण व्यक्ति भावनात्मक आवेग को सहन नहीं का पाता और इसके प्रवाह में बह जाता है। डॉ. मान आत्महत्या की प्रवृत्ति की जड़ मस्तिष्क के विशेष भाग प्रिफ्रंटल कॉर्टेक्स में तलाशते हैं मस्तिष्क का यही भाग मानवीय भाव संवेदनाओं की गंगोत्री है। इसी में सेराटॉनिन नामक न्यूरोट्राँसमीटर पाया जाता है। डॉ. मान की शोध के अनुसार सेराटॉनिन की मात्रा जितनी कम होगी, व्यक्ति आत्महत्या के लिए उतना ही अधिक उद्यत होगा। शराब सेवन करने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क में देखा जाता है कि सेराटॉनिन का स्राव कम होने लगता है। यही कारण है कि शराब पीने वालों में आत्महत्या की संख्या अधिक होती है।

‘एबनॉर्मल साइकोलॉजी- करेंट परस्पेक्टिव’ में रिचार्ड बूटनिम और जॉन रोस आत्महत्या का प्रमुख कारण अवसाद को मानते हुए कहते हैं कि इस स्थिति में आत्महत्या के विचार से शायद ही कोई बच पाता हो। सबसे उन्मत्त से लेकर सबसे सौम्य एवं विचारशील व्यक्ति तक जीवन में हताशा-निराशा के दौर में ऐसे विचारों की चपेट में आ सकता है। फ्रायड जैसा मनोचिकित्सक तक इस विचार से अछूता नहीं रह पाया। 39 वर्ष की आयु में ऐसे ही एक दौर में अपने एक आत्मीय संबंधी के नाम उसने लिखा था कि लंबे समय से मेरे मन में जीवन को समाप्त करने का विचार उठ रहा है, जो तुम्हारे खोए जाने की घटना से अधिक दर्द भरा नहीं है। विश्वप्रसिद्ध दार्शनिक व भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस राधाकृष्णन ने लिखा है कि विधेयात्मक विचारों के अभाव में हर व्यक्ति अपने जीवन में एक बार आत्महत्या की बात अवश्य सोचता है।

आत्महत्या के विचार एवं इसके वीभत्स कृत्य के बीच की दूरी व्यक्ति की संघर्ष शक्ति व जीवटता द्वारा निर्धारित होती है। जो कि आधुनिक युग में भोग लिप्सा एवं प्रगति की अंधी दौड़ में बेतहाशा निचुड़ती जा रही है। इसका रहस्य आत्मसंयम- सादगी व उदारता सहिष्णुता वाली जीवनशैली में निहित है। आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को अपनाकर ही हम आत्महत्या के विचार प्रवाह को ध्वस्त कर पाएँगे व आत्महत्या की बाढ़ को थाम पाएँगे और तभी मालूम हो सकेगा कि जीवन बहुमूल्य और बेशकीमती है।


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