मोहि मुकति सुगति की चाह नहीं जो पे जीवते पीव न पाइए जू ‘वली’ अंत समय जहाँ जावना तहाँ जीवते क्यों नहीं जाएइ जू।
वह बड़े ही आनंदविभोर होकर इन पंक्तियों को गाते हुए चले जा रहे थे। ये पंक्तियाँ भी उनके जीवन में समा गई थीं। इनके अर्थ और भाव उनके चेहरे पर छाए हुए थे। वह सचमुच ही जीते जी, सशरीर परमात्मा से एकाकार-भावलीन हो गए थे। तभी तो उन्हें वसाली कहा जाता था। वस्ल यानि कि मिलन और जो मिल चुका हो, उसे वसाली ही तो कहेंगे। वह सूफी थे, खुदा के हुस्न के आशिक। अपने इस अनोखे इश्क की मस्ती में सराबोर वह अपने मूल देश खुरासान से भ्रमण करते हुए पंजाब आ गए थे।
आज भी भ्रमण करते हुए मुल्तान शहर के समई चबूतरे के पास जा पहुँचे। यहाँ प्रकाँड पंडित टेकचंद रामकथा सुना रहे थे। उस दिन राम-लक्ष्मण के द्वारा जनकपुर के उद्यान में पुष्प चुनने जाने का वर्णन हो रहा था। पंडित जी की मधुर वाणी में प्रभु का सौंदर्य अलौकिक हो उठा था। वह कह रहे थे, “सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा।” सभी श्रोतागण मंत्रमुग्ध थे। सूफी फकीर तो खुदाई नूर के दीवाने थे। उनके मुख से पंडित जी की प्रशंसा में निकल गया-”किसी की आँख में जादू, तेरी जुबाँ में है।”
उस दिन की कथा समाप्त हुई । पंडित जी आरती करके घर जाने लगे। रास्ते में पाँव रखते ही देखा कि ये सूफी संत दोनों हाथ जोड़े बड़ी विनम्रता से उनके सामने खड़े हैं। पंडित जी ने हतप्रभ होते हुए कहा-अरे शाह साहब आप। हाँ, उनका पूरा नाम शाह जलालुद्दीन वसाली था। उनकी आत्मिक शक्तियों, चमत्कारी सिद्धियों की चारों ओर ख्याति थी। सभी उन्हें जानते थे पर यह भेंट पहली थी। पंडित जी की सवलिया आँखों के जवाब में उन्होंने कथानायक राम का परिचय पूछा।
पंडित जी भी चलते चलते बताने लगे-”हजरत यह रामचरितमानस अयोध्यापुरी के राजा दशरथ के सुपुत्र मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र का पावन चरित्र है।” शाह साहब बोले-”पंडित जी मुझे बड़ा आनंद आता है यह रामकथा सुनने में। रोज सबसे पहले आता हूँ और सबके बाद जाता हूँ। मुसलमान होने के कारण मुझे कोई बैठने नहीं देता, फिर भी घंटों मैं पाँव पर खड़े-खड़े ही तुम्हारी मधुर वाणी सुनता हूँ।” पंडित जी ने उन्हें आश्वासन दिया, “शाह साहब कल से मैं आपको सबसे आगे अपने पास ही बिठा लिया करूंगा, आप जरूर पधारें।
यह क्रम कुछ ही दिन चला और शाह साहब के द्वारा भक्तिपूर्वक रामकथा सुनने की चर्चा शहर के मौलवियों में पहुँच गई । हुकूमत का सहारा लेकर तुरंत मौलवी अब्दुल्ला के स्थान पर बड़ी सभा आयोजित की गई। उसमें शाह जलालुद्दीन वसाली को भी बुलाया गया। उन्होंने वहाँ पहुँचकर मौलवी की बातों पर ध्यान ही नहीं दिया, उसकी तरफ देखा तक नहीं। उलटे रामभक्ति की उमंग में सबके सामने निर्भय होकर गाने लगे-काफिरे इश्क मुसलमानी मारा दरकारा नेस्त। अर्थात् मैं तो प्रेमपंथ का पथिक हूँ, मुझे धर्म की नाकेबंदी की कोई जरूरत नहीं है। इसी के साथ अपनी रामभक्ति के आवेश में शाह रामकथा के संबंध में यह कहते हुए विदा हुए-
हसरत मेरी यही है मेरा अरमान है यही
वो आ जाएँ नजर तो उन्हें देखता रहूँ।
विचारों की शक्ति को समझो, क्योंकि वे ही तुम्हें अपने प्रवाह के अनुरूप चलने के लिए बाधित करेंगे और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करेंगे, जो आश्चर्यचकित कर दें।
ये सूफी संत वसाली रामकथा सुनते-सुनते प्रेमाश्रु धारा बहाने लगते थे और तन-मन की सुधि भूल जाते थे। इधर मौलवी साहब के भेजे हुए कई मुसलमान जो उन्हें ढूंढ़ने आए, उनका यह हाल देखकर सोचने लगे कि जरूर इस पंडित ने गलत रास्ता दिखाकर उन्हें मुसलमान से काफिर बना दिया है। अतः खबर पाकर मौलवी स्वयं वहाँ पहुँचे और क्रोध में तमतमाकर पंडित जी से कहने लगे-”खबरदार जो कल से यहाँ कथा बाँचने आए। तुम स्वयं समझदार हो, इसका नतीजा खुद ही सोच लेना।”
मौलवी के पास सत्ता का जोर था । सत्ता से भय खाकर सीधे-सादे पंडित जी को विश्वास दिलाना पड़ा कि मैं कल से यहाँ कथा नहीं कहूँगा। बालकाँड उस दिन पूर्ण हुआ था। अतः उनके लिए एक अवसर भी था कि वे रामकथा यहीं समाप्त कर दें। कुछ भयवश, कुछ उपद्रव न भड़के, इस कारण पंडित जी ने अपना कार्यक्रम समाप्त घोषित कर दिया।
दूसरे दिन संध्या-पूजा कर पंडित जी को जाते-जाते रास्ते में शाह साहब मिल गये। शाह साहब ने पंडित जी को बदहवासी में भागते देखकर पूछा, “कहाँ भागे जा रहे हैं पंडित जी ? जरा दिलदार यार का पूरा पता तो बताते जाओ।” पंडित जी ने घबराते हुए इधर-उधर देखकर छोटा सा जवाब दिया, “यदि आपके पास खड़ा रह गया, तो पकड़ा जाऊँगा हजरत और तब....... । “ पंडित जी ने बस आगे संकेत भर किया, बोले कुछ नहीं। वे जानते थे कि दीवारों के भी कान होते हैं और सत्ता के खिलाफ बोलना कितना कठिन होता है।
शाह साहब महान् तपस्वी, अलौकिक शक्तियों से संपन्न सिद्ध फकीर थे। वे कहने लगे, “ बस इतनी सी बात, डरो मत, यह लो मेरी लाठी, कितने ही लोग आवें, तुम इसे जमीन पर पछाड़ते रहना। तुम ज्यों -ज्यों पछाड़ोगे, यह लाठी बढ़ने लगेगी और दुष्ट तुरंत डरते हुए भाग जाएंगे। दुष्टों के भाग जाने पर इसे फिर से जमीन पर पटकते ही यह ऐसी ही छोटी हो जायगी। उसने मुझ में इतनी ताकत दी है, तो मेरे उस दिलदार में कितनी शक्ति होगी। उस पर मुझे भरोसा है, पर तुम्हें नहीं। तुम डरो मत, यहीं बैठकर यह बताओ कि अवध का शहजादा कितना हसीन है।”
पंडित जी बेचारे कर भी क्या सकते थे। उनमें थोड़ी हिम्मत आई। रामचरितमानस खोलकर वहीं बैठ गए और प्रभु श्रीराम की अपूर्व सुंदरता का वर्णन करने लगे। सारे जनकपुर की स्त्रियाँ उन पर किस तरह से मोहित हो गई। धनुषयज्ञा में देश-देश के राजा प्रभु के अतुलनीय सौंदर्य को देखकर किस तरह बेदाम बिक गए। वर्णन करते-करते पंडित जी स्वयं भी आनंदमग्न हो गाने लगे-
पृथ्वी का भार हरने यही श्री राम अब बने हैं पापों का घन उड़ाने घनश्याम भी बने हैं
विष्णु यही विश्वंभर यही नीलकंठ त्रिपुरारी यही परब्रह्म परमेश्वर, विनती सुने हमारी।
शाह साहब के आनंद का तो पूछना ही क्या। श्रीराम भक्ति के सामने उन्हें अपनी कठिन तपस्या, प्राप्त अलौकिक सिद्धियां सभी कुछ फीकी लगने लगीं। कथा की समाप्ति पर उन्होंने पंडित जी से कहा, “आपने मरे दिलदार की कथा सुनाकर मुझे बेदाम खरीद लिया है। यूँ तो मेरे पास कुछ नहीं है, फिर भी आपने जिसकी कथा सुनाई, उसी के बल पर मैं आपको कुछ दक्षिणा देना चाहता हूँ। आप कुछ भी माँग लें।”
उन परमसिद्ध फकीर से पंडित जी ने तीन चीजें माँगी- (1) मैं पुत्रविहीन हूँ, मुझे पुत्र चाहिए। (2) मृत्यु बीमार पड़े न हो। (3) प्रभु श्रीराम के चरणों में मेरी प्रीति सदा बनी रहे। “ऐसा ही होगा पंडित जी, आप तनिक भी फिक्र न करें। “ इतना कहते हुए वे श्रीराम गुण गाते चल पड़े। बाद में वह कहा करते थे, “प्रार्थना, जप-तप, पूजा की विधि न मालूम हो, तो कोई हर्ज नहीं। जरूरत है तो श्रीराम भक्ति की। इससे सब कुछ अपने ही आप हो जाएगा। इन्होंने उर्दू में रामायण भी लिखी। सचमुच श्रीराम तो सबके हैं, हिंदू या मुसलमान, जो भी उन्हें भजता है उसी को वे मिलते हैं।”