सिद्धियाँ : ध्यान-साधना का लक्ष्य नहीं लक्षण

May 2000

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जिन लोगों की चेतना परिमार्जित और उन्नत है, उन्हें ध्यान के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । सामान्य प्रयासों से ही वे चित्त को एकाग्र कर, अपने भीतर डुबकी लगा जाते एवं आत्मचेतना में रमण करने लगते हैं। चेतना की इस स्थिति को प्राप्त साधकों का उदाहरण देकर यह नहीं सोचना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति आसन लगाकर बैठते ही ध्यान में प्रवेश कर जाएगा। जो इस स्थिति में पहुँच चुके हैं, उन्हें भी लंबा श्रम करना पड़ा है। वर्षों तक साधना करने के बाद ही वह परिपक्व स्थिति आती है कि ध्यान सधने लगे। शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि कई जन्मों तक साधना करनी पड़ती है, तब ध्यान और समाधि की स्थिति सिद्ध होती है। गीताकार ने इसी तथ्य को निरूपित करते हुए कहा है-अनेक जन्मों के संस्कार बल से इस जन्म में संसिद्धि होती है।

निराश होने की आवश्यकता नहीं है कि कई जन्मों बाद ध्यान सिद्धि होगा, इसलिए अभी प्रयत्न करने में कोई सार नहीं है। तुरंत सिद्ध न होते हुए भी ध्यान -साधना के अपने लाभ हैं। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने गीता के इस वचन का आशय स्पष्ट करते हुए लिखा है, “सोलह-सत्रह वर्षों तक स्कूल-कॉलेज जाते रहने पर ही शिक्षा पूरी होती है। स्नातकोत्तर कक्षाएं पास कर लेने के बाद ही छात्र अपने को पूर्ण शिक्षित कह पाता है॥ शिक्षा आरंभ करते हुए बच्चा भी यह जानता है और उसके अभिभावक भी सोलह-सत्रह वर्षों की इस अवधि को छात्र कितने धीरज, शाँति और आनंद से व्यतीत कर लेते हैं। जिन्हें ध्यान अथवा योग से परमपद प्राप्त करना है, उन्हें भी धीरज रखना चाहिए। फिर इस मार्ग पर चलते हुए संसिद्धि तक खाली हाथ नहीं रहना पड़ता। साधना के मार्ग में तरह तरह की श्रेयस्कर उपलब्धियाँ मिलती रहती है। उनका आनंद लौकिक सुखों की तुलना में कई गुना महत्तर होता है।”

श्वेताश्वर उपनिषद् में ध्यान मार्ग में मिलने वाली उपलब्धियों, सफलताओं और आनंद-अनुभूतियों का उल्लेख किया गया है। ऋषि कहते हैं, “ध्यान से पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतों का उत्थान होता है। इनके उत्थान से पाँच प्रकार के योग संबंधी गुणों की सिद्धि होती है। सिद्धि से साधक को शरीर पर नियंत्रण प्राप्त होता है। और उसका क्षरण नहीं होता।” (अध्याय 2 मंत्र, 12)

“शरीर का हलकापन, किसी प्रकार के रोग का नहीं होना, विषयासक्ति की निवृत्ति, शारीरिक वर्ण की उज्ज्वलता स्वर की मधुरता, शरीर में सुगंध और मलमूत्र कम हो जाना। योग की पहली सिद्धि के लक्षण हैं।” (अध्याय 2 मंत्र, 13)।

योग के ग्रंथों में और भी कई सिद्धियों का वर्णन है। संकल्पसिद्धि, वाक् सिद्धि, आसन में उत्थान, शरीर का हलका होना, थोड़ी देर सो लेने से ही पर्याप्त विश्राम मिल जाना आदि ध्यान की सफलता के लक्षण कहे गये हैं, लेकिन इन्हें ध्यान की सर्वोच्च सिद्धि नहीं कहा जा सकता । स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य में साधना कर रहे एक साधक को वाक् सिद्धि प्राप्त हुई थी। वह जो कहता था, वैसा ही हो जाता था। रोगी को स्वस्थ होने का आशीर्वाद देता तो बीमार चंगा हो जाता । दरिद्र व्यक्ति संपन्न होने की बात कहते ही उस व्यक्ति में आत्मविश्वास जागता और वह दीन-हीन स्थिति से ऊपर उठने लगता। उसकी कही बातें सही होने की ख्याति फैलने लगी। कई लोग आने लगे। परमहंस देव से किसी शिष्य ने शिकायत की, तो वे चुप रहे। वाक् सिद्धि को प्राप्त साधक की स्थिति चालीस दिनों बाद समाप्त होने लगी। उसकी कही बातें पहले की तरह चरितार्थ नहीं होती। धीरे-धीरे असत्य होने लगीं। उसके आशीर्वाद खोखले होने लगे। परेशान होकर वह परमहंसदेव के पास गया। गुरु ने कहा, “तुमने साधना के कच्चे फल तोड़ने का अपराध किया है। अब वह वृक्ष सूख गया । फिर साधना करो और वैसी गलती मत करना।” लेकिन बहुत प्रयत्न करने के बाद भी साधक का मन फिर ध्यान-धारणा में नहीं लगा।

परमहंसदेव के दूसरे शिष्य नरेंद्र ने, जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुए, अपने गुरु से उस साधक पर कृपा करने का अनुरोध किया। यह भी कहा कि आपने समय रहते उसे संकेत क्यों नहीं किया ? परमहंस देव का उत्तर था कि साधक को स्वयं ही सावधान रहना चाहिए। दूसरा कोई भी व्यक्ति, यहाँ तक परमात्मा भी उसे नहीं रोक सकता, क्योंकि इस प्रकार की रोक-टोग साधक की स्वतंत्रता का हरण करती है।

योगशास्त्रों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति प्राकाम्य, ईशित्व आदि सिद्धियों के वर्णन आते हैं। यह भी कि इन सिद्धियों को प्राप्त करने के बाद साधक प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेता है। लेकिन इस प्रकार की सिद्धियाँ अथवा उनकी आकाँक्षा आत्मिक प्रगति में बाधक ही बनती हैं। महर्षि रमण ने इस प्रकार की सिद्धियों को मूल्यवान् कंकड़ पत्थर कहा है। सिद्धियों में उलझ रहे एक साधक को उन्होंने समझाया था कि थोड़ा और आग बढ़ो, तो तुम्हें हीरों की खदान मिलेगी, बल्कि हीरे तुम्हारे सामने ही बिखरे मिलेंगे। जब तक अपने हाथ से रंगीन कंकड़-पत्थर नहीं फेंकोगे, उन हीरों को अपनी मुट्ठियों में नहीं भर सकते। मूल्यवान उपलब्धि को प्राप्त करने के लिए कम मूल्य की वस्तुओं का मोह छोड़ना पड़ेगा।

एक सत्संग-प्रसंग में महर्षि रमण से ही किसी साधक ने पूछा था कि सिद्धियाँ बाधक हैं, तो परमसत्ता उन्हें प्रस्तुत क्यों करती है ? क्या वह चाहती है कि हम उन सिद्धियों में उलझ जायँ और अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचें ? महर्षि रमण ने इसका उत्तर दिया था कि सिद्धियाँ, तुम्हें अध्यात्म-मार्ग में आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से आती हैं । मार्ग में सुगंधित फूल इसलिए खिलते हैं कि उनकी सुवास से प्रेरित होकर तुम मंदिर तक पहुँच जाओ। मार्ग यदि शुष्क और ऊबड़-खाबड़ रहा, उसके दोनों ओर रम्य स्थितियाँ नहीं हुई, तो तुम आगे बढ़ने से इनकार कर सकते हो।

अच्छा स्वास्थ्य, निर्मल मन, संतुलित मस्तिष्क और स्थिर मनोयोग ध्यान -साधना के प्रारंभिक परिणाम हैं संकल्प-सिद्धि, कार्यसिद्धि और अतींद्रिय क्षमताएं इन प्रारंभिक लक्षणों के बाद ही मिलती हैं। साधकों को सावधान किया जाता है, वे सफलता के इन लक्षणों पर ही मुग्ध होकर ठहर न जाएँ, साधना-सिद्धि को अंधविश्वास बताने वाले आलोचक इन लक्षणों को कोरी बकवास बताते हैं, लेकिन प्रारंभिक सफलताएं अथवा सिद्धियाँ एक निश्चित प्रक्रिया के अंतर्गत मिलती है।

प्रारंभिक या साधनामार्ग में मिलने वाली सफलता को यों समझा जा सकता है। अनुभव किया जाता है कि ध्यान-धारणा भली-भाँति चल रही है, शरीर में स्वास्थ्य का अनुभव होने लगता है। ऐसा नहीं कि यह किसी चमत्कार के कारण होता है। वस्तुतः ध्यान-धारणा चित्त को संतुलित करती है, उसमें चलने वाले उद्वेगों और विक्षोभों को भी नियंत्रित करती है। चित्त शाँत, संतुलित और उद्वेगरहित होने पर आहार-विहार भी संतुलित होने लगता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए संतुलित और सात्विक आहार से ज्यादा उपयोगी कुछ नहीं है।

ध्यान विधि का उपदेश करते हुए गीतकार ने सम्यक् आहार-विहार के लिए है। दूसरे शास्त्रकारों ने भी आहार-विहार को संयमित रखने का उपदेश दिया है। यह आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलने के लिए दोहरी तत्परता और सावधानी है। शाँत और एकाग्र चित्त से आहार-विहार में संयम की प्रेरणा मिलती है और ध्यान के आचार्य ही नहीं मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि चित्त शाँत हो तो उलटा सीधा खाने और अनियमित जीवनचर्या पर अपने आप अंकुश लगने लगता है। मन स्वस्थ हो तो भूख से ज्यादा खाया ही नहीं जा सकता । चिंता और उद्वेग में प्रायः ज्यादा खाने में आता है। अथवा भूख एकदम गायब हो जाती है। दोनों ही स्थितियाँ स्वास्थ्य-संतुलन गड़बड़ाने वाली है।

आहार के प्रभाव का अध्ययन करना हो तो कुछ स्वादों के माध्यम से किया जा सकता है। मिर्च मसालेदार भोजन करने वालों को क्रोध जल्दी आता है। वे विषम परिस्थितियों को देर तक नहीं झेल सकते, जल्दी घबरा जाते और हार मान लेते हैं। मीठा और रसयुक्त भोजन करने वालों में आलस्य प्रमाद की बहुलता देखी गई है। उनके भोजन में शामिल शर्करा तत्व शरीर को बोझिल बनाता है। खट्टा, अम्लीय और तीक्ष्ण स्वाद वाला आहार राजसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है। ध्यान मार्ग के साधक को इसी लिए सात्विक आहार लेने का निर्देश दिया गया है। सात्विक आहार अर्थात् ताजा, सुपाच्य पौष्टिक और रुचिकर भोजन। ऐसे भोजन में स्वाद की नहीं संस्कार की प्रधानता रहती है।

ध्यान-साधना के प्रबल प्रचारक और बिहार योग विद्यालय के संस्थापक स्वामी सत्यानंद परमहंस ने लिखा है कि दस मिनट, सिर्फ दस मिनट भी यदि निश्चल, शाँत बिना हिले-डुले चुपचाप बैठा जा सके तो ध्यान आरंभ हो जाता है। ध्यान आरंभ होने के बाद साधक अनुपयुक्त आहार-विहार के प्रति अनायास ही उदासीन, विरक्त होने लगता है। उसकी रुचि असंयमित और कृत्रिम जीवन से हटने लगती है। अच्छा हो इस दिशा में स्वयं ही प्रवृत्त हुआ जाए अर्थात् अपने आहार-विहार को संयमित किया जाए। उसके बाद सफलता के अगले लक्षण प्रकट होने लगते हैं।

सफलता का अगला लक्षण अंतःदर्शन कहा गया है। इसमें दूसरों के मन की बात जाने और अनागत का आभास होने जैसी विशेषता आती है। संयमित और संतुलित जीवन स्वास्थ्य के तुरंत बाद निर्मल और पारदर्शी मनः स्थिति में पहुँचता है। मन कायिक चेतना का ही सूक्ष्म रूप है। उसकी उपमा दर्पण में जिस तरह स्वच्छ और स्पष्ट छवि दिखाई देती है, उसी प्रकार निर्मल मन में सामने आई परिस्थितियों का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देने लगता है। प्रस्तुत व्यक्तियों अथवा स्थितियों का स्पष्ट आभास जिसे हो रहा हो, उसे कोई धोखा दे ही नहीं सकता। वह किसी छल-प्रपंच को क्रीड़ा-कौतुक में सहन कर ले तो बात अलग है, अन्यथा बेधक और पारदर्शी दृष्टि, अंतःदृष्टि रखने वाले व्यक्ति को बहलाना, फुसलाना या ठगना संभव ही नहीं है।

अनागत का आभास होने की स्थिति भी चेतना के निर्मल और पारदर्शी होते जाने का लक्षण है इसे भविष्य दर्शन भी कहते हैं। कालतत्व का मर्म समझने वाले ज्ञान-गुणीजन मानते हैं कि समय का विभाजन नहीं किया जा सकता। हम समय को भूत, भविष्य और वर्तमान में मापने या बाँटने के अभ्यस्त भले ही हो गए हों, वस्तुतः ऐसा है नहीं। बोध की क्षमता सीमित-संकुचित होने के कारण ही समय तीन भागों में दिखाई देता है, अन्यथा है नहीं । उदाहरण के लिए, सड़क पर खड़े होकर आधा किलोमीटर दूर आ रहे वाहन को नहीं देखा जा सकता । लेकिन पेड़ पर चढ़कर अथवा किसी ऊँचे स्थान से देखें तो वह आसानी से दिखाई देता है। ऊँचाई पर खड़ा व्यक्ति सहज ही कह सकता है कि कुछ देर बाद इस जगह से एक वाहन गुजरने वाला है। समतल जमीन या सड़क पर खड़े व्यक्ति के लिए या घोषणा भविष्यकथन होगी, लेकिन वस्तुतः वह भविष्यवाणी या भविष्यदर्शन नहीं हैं। कालतत्व के विवेचक बताते हैं कि जिनकी चेतना ऊँची अवस्था में पहुँच गई है, वे समय को दूर तक देख सकते हैं और सामान्य स्थितियों में जो अनागत है, उसकी घोषणा कर सकते हैं। कहना नहीं होगा कि ध्यान-धारणा में गति कर रहे साधकों की चेतना उच्चस्थिति में पहुँची होती है। वह सामान्य लोगों को नहीं दिखाई देने वाली स्थितियों को भी अनुभव करती और बता सकती है।

उच्चस्थितियों में पहुँची और परिष्कृत चेतना किन्हीं भी स्थितियों की ज्यादा गहराई और व्यापक रूप से देख समझ सकती है। ऐसे साधकों की स्मरणशक्ति विलक्षण हो सकती है वे किसी भी बात को तुरंत समझ सकते हैं, क्योंकि उनकी ग्रहणशीलता बढ़ जाती है। कहते हैं कि स्वामी विवेकानंद किसी भी पुस्तक को पन्ने पलटकर ही पढ़ लेते थे और उसे शब्दशः सुना सकते थे। महावीर के साधना-मार्ग में जैन आचार्य अवधान नामक एक क्रिया सिखाते हैं। उसमें चौबीस और बत्तीस अंकों तक की संख्या के गुणा भाग और भिन्न आदि सवाल पलक झपकते हल किए जा सकते हैं। यह मानसिक क्षमता के अधिक सजग और ग्रहणशील होने का ही द्योतक है। गंभीरता और नियमपूर्ण किया गया ध्यान इस स्तर की कुशलता की विकसित कर देता है। चाहे तो इसे सिद्धि कह सकते हैं और चाहें तो कुशलता ।

साधक को क्या इन सफलताओं में रम जाना चाहिए? इनसे संतुष्ट हो जाना चाहिए अथवा इन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए ? साधकों के लिए ही नहीं, ध्यान-धारण और समाधि को प्राप्त कर चुके योगी के लिए सिद्धियों के उपयोग अथवा प्रदर्शन का निषेध है। उपनिषद् और योगशास्त्र के वचनों की व्याख्या करते हुए मनीषी कहते हैं, “ध्यान-साधना का प्रयोजन आत्मज्ञान की प्राप्ति और चेतना का उच्चतम विकास है, सिद्धि प्राप्त करना बिलकुल ही नहीं। चेतना के विकास की तुलना में सिद्धियों का स्थान बहुत ही तुच्छ है। विभूतियाँ अथवा सिद्धियाँ सही है। ध्यानमार्ग पर चल रहे साधक के पास वे अवश्य आती हैं। इन सिद्धियों को प्राप्त करने वाले अगणित साधक हुए हैं और होते रहे हैं। उनके संबंध में उदासीन ही रहना चाहिए। उदासीन रहते हुए साधक आध्यात्मिक शक्तियों का अक्षुण्ण भंडार एकत्र कर सकता है। वह स्वयं भी अपना कल्याण करता और दूसरे साधकों को भी आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर अग्रसर करने में भरपूर सहयोग दे सकता है।”


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