झर रही हैं देव संस्कृति की सजल शीतल फुहारें, अब धरित्री पर निराशा से भरा कोई न होगा।
जो प्रवासी जन अभी तक मूल संस्कृति से कटे थे, थे अपरिचित से परस्पर, जो बहुत बिखरे-बँटे थे,
जी रहे थे जो अकेले-से सुरक्षा की कमी में, जो नहीं अपनत्व पाते थे वहाँ के आदमी में,
भूमि से आकाश तक अब यज्ञमय सब कुछ हुआ है, अब कहीं असहाय आतंकित डरा कोई न होगा।
अब न धरती का सुरक्षा-कवच दुर्बल और होगा, माँ समझने का प्रकृति को, एक नूतन दौर होगा,
फिर न उसकी शक्तियों को और दोहन हो सकेगा, वायु जल अथवा धरा का फिर न शोषण हो सकेगा,
जल न पायेंगी वनस्पतियाँ, न झुलसेंगी लताएँ, उपवनों में फूल मुरझाया झरा कोई न होगा।
फिर प्रखरता और पावनता मिलेंगे, एक होंगे, गाँव देवालय बनेंगे, नागरिक फिर नेक होंगे,
शाँति सरिता में बहेगी, प्यार पर्वत से झरेगा, स्नेह-समता-लोकहित का भाव हृदयों में भरेगा,
फिर नहीं होगा कहीं अन्याय का ताँडव भयंकर, हर जगह सद्भाव होगा, दूसरा कोई न होगा।
*समाप्त*