आदिमता प्रकृति के हर संतान को अनूठे वरदान

May 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रत्येक कृति में प्रकृति ने अपनी अलौकिकता संजोई है। यह अलौकिकता कभी तो रहस्य की गहराइयों में ले जाती है, तो कभी अपनी अनूठी विचित्रता से अचरज में डाल देती है। मान की साहित्य संवेदना ने ‘जल बिन मीन’ को असंभव कल्पना माना है, परंतु प्रकृति ने इस असंभव को भी सहज संभव कर दिखाया है। हाँ, यह सच है कि सामान्य रूप में मछलियाँ जल में ही रहती हैं। यदि यह कहा जाए कि ऐसी भी मछलियाँ हैं जो पेड़ पर चढ़ने में समर्थ हैं, तो शायद कोई विश्वास नहीं करेगा। लेकिन यह अविश्वसनीय लगने वाला तथ्य भी सत्य है। पेड़ों पर चढ़ने वाली मछलियाँ भी हैं और वे विश्व के कई भू-भागों में पाई जाती हैं। इसमें दक्षिणी भारत भी शामिल हैं। वहाँ के स्वच्छ जलाशयों में पेड़ पर चढ़ने वाली ये मछलियाँ मिलती हैं। वैज्ञानिक भाषा में इनका नाम ‘एनाबास’ है।

जलाशयों के किनारे स्थिति छोटे-छोटे झाड़ीनुमा पेड़ों पर अक्सर ये चढ़ती हुई दिखाई दे जाती हैं। पानी के अलावा वे मछलियाँ गीली भूमि व धान वगैरह के खेतों में भी चलती-फिरती नजर आ जाती हैं। इस तरह इनकी विशेषता को कुछ यूँ भी कहा जा सकता है। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन-अनुसंधान में यह भी पता लगाया है कि यह जल-जीव खुले वातावरण की वायु में भी साँस लेकर जीवित रह सकता है। इसे प्रकृति का अनूठा वरदान ही कहा जाएगा।

इस ‘एनाबास’ मछली का आकार अन्य मछलियों की तुलना में थोड़ा अलग होता है। इसका रंग गहरा हरा या कुछ मटमैला-सा होता है। इसके शरीर की बनावट ही नहीं बुनावट भी औरों से अलग होती है। समूचा शरीर शल्कों से ढका होता है। इस मछली का भोजन पानी में रहने वाले छोटे जीव-जंतु होते हैं। कई बार यह अपने से छोटी मछलियों को भी अपना ग्रास बना लेती है। इस मछली की बनावट की एक अन्य खासियत यह है कि इसके लंबे पृष्ठ पंख व गुदा पंख काँटे पाए जाते हैं। ये कुछ समय पानी में रहकर ये मछलियाँ किनारे स्थित झाड़ीनुमा पेड़ों पर चढ़ जाती हैं, मानो सैर सपाटा करते हुए आराम फरमा रही हों।

‘मछली’ शब्द ज्यादातर लोगों के मन में वही चिर-परिचित आकृति बनाता है, जो पानी में तली और सतह के बीच तैर रही है। लेकिन वास्तव में मछलियों का संसार इतना विविध, विशाल और दिलचस्प है। कि हमें यदि इन्हें अलग-अलग देखने का अवसर मिले तो हमारे आश्चर्य की सीमा नहीं रहेगी।

जिस तरह जंगलों में रहने वाली ‘साही’ को प्रकृति ने अपनी रक्षा के लिए नुकीले काँटों का आवरण प्रदान किया है, उसी तरह समुद्र में पाई जाने वाली मछली है-’पोर्क्यू पाइन’। इसके पूरे शरीर पर काँटों की परत चढ़ी होती है। साही के नाम पर ही इसका नाम साही मछली पड़ा है। जब इसका दुश्मन इस पर हमला करने की कोशिश करता है या इसके क्षेत्र में घुसपैठ करता है, तब यह किसी छिद्र या चट्टानी दरारों में पहुँचकर अपने शरीर को पानी भरकर फुला देती है। जिसके इसकी शक्ल फुलाए हुए गुब्बारे की तरह हो जाती है और इसके काँटे खड़े हो जाते हैं। यदि इसे पानी से बाहर निकाल दिया जाएं, तो यह हवा भरकर ही अपने शरीर को फुला लेती है। ऐसी स्थिति में इसका दुश्मन इसके सामने कमजोर पड़ जाता है।

इसकी 14 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ज्यादातर का रंग नीला-भूरा, स्लेटी और सफेद होता है। इन मछलियों में काले धब्बे होते हैं। इनकी लंबाई 30 सेंटीमीटर तक बढ़ती है।सभी प्रकार की साही मछलियों में सामने के दो दाँत बढ़े होते हैं। यह सी-आर्चिन का नाश्ता और सैकड़ों का भोजन करती है।

बंसी और काँटे से मछली पकड़ने के बारे में हम सभी जानते हैं, लेकिन एक मछली ऐसी भी है, जो खुद बंसी और काँटे से शिकार करती है। प्रकृति ने इस अनोखी विचित्रता के रूप में इसे शिकार पकड़ने का साधन प्रदान किया है। इसे एंगलर फिश या काँटा मछली कहते हैं। यह इतनी खूबसूरत होती हैं कि लोग इसे अपने घरों के एक्बेरियम में सजाकर रखते हैं। इनकी कुछ प्रजातियों की आकृति प्याले की तरह होती है॥ इनकी अभी तक 60 प्रजातियों का पता चला है, जिनमें तीन दक्षिण अफ्रीका के मीठे जल में भी पाई जाती हैं। इनकी लंबाई 20 सेंटीमीटर तक और रंग भूरा-सफेद और पीला होता है। क्रिप्टिक एंगलर मछली में शिकार पकड़ने की डंडी और उस पर लगा चारा उसके थूथन पर लगे खाँचे में छिपा होता है। शिकार की तलाश में यह काई आदि किस्म की घास में छिपकर चारा लगी डंडी को बाहर निकाल देती है। जैसे ही कोई समुद्री कीट या मछली चारे को भोजन समझकर निगलने की कोशिश करती है, यह झट ये उसे अपने मुँह के अंदर खींच लेती है।

मछलियों की एक किस्म ऐसी भी है, जिसे तारों को निहारने वाली मछली भी कहा जाता है। इनकी आँखें सिर पर स्थित होती हैं। इन्हें देखकर कुछ ऐसा लगता है, मानो ये आकाश को निहार रहीं हों। इनकी विशेषता यह है कि ये अपने शरीर को रेत के नीचे छिपा लेती हैं और केवल मुँह और आँखें ही रेत की सतह पर खुली होती हैं। इनकी उपस्थिति से अनजान जैसे ही कोई शिकार इनके ऊपर से गुजरता है, वैसे ही ये उन्हें अपने मुँह में दबोच लेती हैं। इनका रंग रेत से इतना मेल खाता है कि रेत में ये कहाँ पर हैं, पता ही नहीं चल पाता है। इनकी कुछ प्रजातियों में शिकार को धराशायी करने के लिए बिजली के झटके का भी इस्तेमाल किया जाता है। ये मछलियाँ अपने शरीर से निकलने वाली विद्युत तरंगों को शिकार पर लक्ष्य करती हैं, जिससे इनका शिकार एक ही झटके में गिर जाता है।

कुछ मछलियाँ भी चिड़ियों की तरह अपने घोंसले बनाती हैं। है न अचरज की बात। घोंसलों का निमार्ण करने वाली मछलियों की यूँ तो अनेकों प्रजातियां देखने को मिलती हैं, मगर ‘स्टिलबैक’ एवं ‘ट्यूब नोज’ मछलियाँ इस प्रकार की मछलियों में घोंसले निर्माण के लिए अधिक प्रसिद्ध मानी जाती हैं। स्टिलबैक मछलियाँ आर्कटिक समुद्री तटों के आस-पास पाई जाती हैं तथा ‘ट्यूब नोज’ मछलियों का प्राप्ति स्थान कैलीफोर्निया का घोंसले का निमार्ण केवल नर मछली ही करती है। उसमें मादा मछली का बिलकुल भी सहयोग नहीं होता ।

घोंसला बनाने वाली इन मछलियों का आकार ज्यादा बड़ा नहीं होता ये ज्यादातर पाँच या छह इंच तक लंबी होती हैं। जब इनका प्रजनन काल आता है, तब नर मछलियाँ सक्रिय हो उठती हैं और घोंसला बनाने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में निकल पड़ती हैं। घोंसला बनाने के लिए ये मछलियाँ प्रायः जल में डूबी हुई चट्टानों में खोह जैसी जगह की तलाश करती हैं। उपयुक्त स्थान मिल जाने के बाद ये उसमें घास-फूस आदि के लंबे-लंबे रेशों को एकत्र कर गोल आकार का घेरेदार घोंसला बनाती हैं। जब घोंसला बनाने को काम पूरा हो जाता है, तब नर मछली अपने शरीर से एक विशेष प्रकार का चिपचिपा सा लेसदार पदार्थ स्रवित कर घोंसले लपेट देती हैं। इससे घोंसले को मजबूती मिलती है और यह अंडों-बच्चों के लिए अधिक सुरक्षित-लाभदायक बन जाता है।

प्रत्येक नर मछली अपना घोंसला बनाती है। घोंसला तैयार करने के बाद नर मछली-मादा मछली की तलाश में निकल पड़ती है और उसे अपने घोंसले में लाकर जोड़ा बनाती है। समय आने पर मादा मछली उसी घोंसले में अंडे देती है और अंडे देकर वह प्रायः भाग जाती है। इसके बाद नर को ही अंडों की देखभाल करनी पड़ती है। जब अंडों से बच्चे निकल आते हैं और वे घूमने-फिरने में सक्षम हो जाते हैं, तभी नर मछली अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो पाती है।

विचित्रताओं-विलक्षणताओं से भरा मछलियों का यह संसार इस सत्य को उद्घाटित करता है कि प्रकृति सचमुच आदि माता है। इसने बिना किसी भेदभाव के अपनी हार संतान को उसके अनुरूप अनूठे अनुदान दिए हैं। मनुष्य की यदि अपनी विशेषताएं हैं तो मछलियों की अपनी। ये सभी अपने वातावरण में सुखद ढंग से रह सकें, इसके लिए प्रकृति ने इन्हें अलौकिक रीति से संवारा है। प्रकृति का यह सृजन-कौशल मानवीय बुद्धि एवं शक्ति से परे उस सर्वमय चैतन्य सत्ता की ओर संकेत करता है, जिसके इंगित से प्रकृति आदि माता के रूप में सक्रिय है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118