आँगन में दो मिट्टी के घड़े रखे थे। एक का मुँह आसमान की ओर, दूसरे का धरती की ओर। वर्षा आई । जो पात्र ऊपर की उन्मुख था, भर गया। जो औंधे मुँह लेटा था, खाली रह गया। खाली घड़े को बहुत गुस्सा आया। उसने भरे घड़े को भी गालियाँ दीं, वर्षा को भी कोसा। बहुत रात बीतने तक भी जब बकवास बंद न की तो वर्षा बोली-अभागे चिढ़ मत, ईर्ष्या भी मत कर । हमारे यहाँ पात्र को सब कुछ मिलता है, तू भी ऊपर को मुँह कर लेता तो मुझे भी मिलता । बावले अब भी प्रयत्न कर सिर उठा, इस बार तुझे भी दूँगी। घड़े ने बात समझ ली। भूल स्वीकार कर ली।