जयपुर के राजा मानसिंह गुजरात की तरफ से आ रहे थे। मार्ग में उन्होंने मेवाड़ में पड़ाव डाला और चित्तौड़ के महाराज के मेहमान बने। उस समय चित्तौड़ में महाराणा प्रताप शासन करते थे। राजा मानसिंह के साथ भोजन पर उन्होंने अपने पुत्र अमरसिंह को भेज दिया और स्वयं नहीं गए। इस पर मानसिंह ने पूछा तो प्रताप ने कहला भेजा जिसे अपने धर्म, जाति, संस्कृति को गौरव ने रहा हो, जो आततायियों से मिल गया हो, उन्हें अपनी बुआ दे दी हो, उसके साथ मैं भोजन नहीं कर सकता।
अपमानित मानसिंह दिल्ली लौट गया। बादशाह के कान भर, अपने ही स्वजातीय वीर महाराणाप्रताप के विरुद्ध मुगलों की भारी सेना लेकर आया। प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में मुट्ठी भर राजपूतों ने शत्रु के दाँत खट्टे कर दिए। प्रताप ने परिस्थिति के अनुसार जंगलों में रहकर संघर्ष करना स्वीकार किया, पर कभी भी, किसी भी शर्त पर अपना स्वाभिमान न छोड़ा। संधि की सभी शर्तें नामंजूर कर वे आगामी पीढ़ी के लिए एक प्रेरणापुँज बन गए।
एक साधु ने अपने सो सकने जितने आकार की एक झोंपड़ी बनाई । अकेला रहता था। वर्षा की रात में एक और साधु कहीं से आया। उसने जगह माँगी। झोंपड़ी वाले ने कहा-इसमें सोने की जगह एक के लिए है, पर बैठे तो दो भी रह सकते हैं। आधी रात काटी। इतने में एक तीसरा साधु और कहीं से भागता हुआ आ गया। वह भी आश्रय चाहता था। झोंपड़ी वाले साधु ने फिर कहा-जगह तो कम है, पर खड़े होकर हम तीनों रात काट सकते हैं। तीनों खड़े रहकर वर्षा से बचाव करते रहे। यदि अंदर उदारता हो, वसुधैव कुटुँबकम् का भाव हो तो कम साधनों में भी अधिक व्यक्तियों का निर्वाह होता रह सकता है।