लोक सेवियों को दिशाबोध-11 - लोकसेवी का लोकव्यवहार

May 2000

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लोकसेवी को दूसरों से संपर्क करते समय, उन्हें सत्प्रेरणाएँ प्रदान करते समय निंदा, आलोचना से हमेशा बचना चाहिए। हो सकता है, वह आलोचना सुधार की भावना से की गई हो, पर सुनने वाले के मन पर उससे उलटी ही प्रतिक्रिया होती है।वह अपना अपमान समझने लगता है और बैर को बाँध लेता है, जैसे किसी से कहा जाए “आप बड़े गलत आदमी हैं, ऐसे काम क्यों करते हैं ? तो उस वाक्य में व्यक्ति के प्रति घृणा की भावना ही व्यक्त होती है। कहने वाला भले सदाशयी हो, पर वह अपने मन में शत्रुता की गाँठ बना लेगा। यदि सुधार की भावना से कहना था, तो यों कहना ज्यादा ठीक रहता-”इस क्रम में तो हानियां हैं। ये दोष हैं, ये दुष्परिणाम हैं। आपने भूल के कारण ऐसा कर लिया। भविष्य में बचें तो अच्छा हैं, ताकि इससे होने वाली हानियाँ न उठानी पड़ें। “ आवश्यक लगने पर इस भूल को सुधारने के लिए मार्गदर्शन भी दिया जा सकता है।

लेकिन ऐसे सुझाव भी किसी के सामने दिए जाएं तो वह भी सुनने वाले को ठेस पहुँचाएंगे, इसलिए निंदा-आलोचना तो की ही न जाए, सुधार के उद्देश्य से त्रुटियाँ भी अकेले एकाँत में जहाँ लोकसेवी और वह व्यक्ति हो, ऐसे स्थान पर बताई जाएं। निंदा-आलोचना से बचते हुए समीक्षा और सुझाव एकाँत में दिए जाएँ, पर प्रशंसा-सराहना करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने दिया जाए। सेवाकार्यों में जो भी व्यक्ति कोई सहयोग देने के लिए आते हैं, उनमें अच्छे तत्वों की, परमार्थ निष्ठा की मात्रा रहती ही है। प्रशंसा करने पर व्यक्ति के कार्यों और उसकी निष्ठा को सराहा जाने पर उसे अच्छे तत्वों के विकास की प्रेरणा मिलती है। प्रशंसा सबके समाने की जाए, पर उस प्रशंसा के साथ यह सतर्कता बरती जाए कि व्यक्ति में मिथ्याभिमान न आने लगे।

अनावश्यक प्रशंसा से व्यक्ति में मिथ्याभिमान भी उत्पन्न होता है और वह प्रशंसा चापलूसी के स्तर की बन जाती है। प्रशंसा और चापलूसी में वहीं अंतर है, जो अमृत और विष में। प्रशंसा से व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलता है और वह अपना उत्कर्ष करने की ओर बढ़ने लगता है, जबकि चापलूसी व्यक्ति में मिथ्याभिमान जगा देती है, जो उसे पतन के गर्त में धकेल देती है। और दिग्भ्रमित कर देती है। प्रशंसा और चापलूसी की एक कसौटी है। जब किसी व्यक्ति के गुणों को सराहा जाता है, उसके कार्यों के साथ ही उसकी निष्ठा -भावना को भी संबंधित किया जाता है, तो वह प्रशंसा होती है। उसे साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी यह अनुभव करने लगता है कि हमें इन गुणों के कारण प्रशंसा मिल रही है, अतः इन गुणों का विकास करना चाहिए। चापलूस व्यक्ति के स्वर में प्रायः हीनता का भाव रहता है तथा वह जिसकी प्रशंसा की जा रही है उसकी तुलना उसी स्तर के व्यक्ति से भी करता है और तृतीय पुरुष को हर दृष्टि से घटिया सिद्ध करने की चेष्टा करता है।

प्रशंसा से प्रोत्साहन तो मिले, पर उसके कारण अहंकार न जागे, इसलिए प्रशंसित व्यक्ति न किसी से तुलना की जाए और न ही उसके दोषों को गुणों के रूप में बखान किया जाए। इस तरह की प्रशंसा व्यक्ति को अभीष्ट दिशा में आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है। कमियाँ और विशेषताएँ सभी में होती हैं। स्वयं लोकसेवी भी पूर्णतः निर्दोष या समस्त विशेषताओं से युक्त नहीं होता। अपनी कमियों को हम जिस प्रकार दूर करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, साथ ही यह भी पसंद नहीं करते कि उनकी चर्चा सार्वजनिक रूप से हो। जहाँ तक हो सके अपनी ओर से उन्हें व्यक्तिगत लक्ष्य कर न कहा जाए तो ही अच्छा रहता है। सामान्य सिद्धांत के रूप में उनका विश्लेषण अलग बात है, अन्यथा व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी के रूप में उनकी चर्चा करना संबंधित व्यक्ति के मन को सुधारने के साथ गुणों के विकास को प्रोत्साहन दिया जाए, तो लोकसेवी की सुधार-चेष्टा में और भी प्रखरता आ जाती है।

जनसंपर्क के समय शिष्ट और शालीन व्यवहार तथा प्रशंसा और प्रोत्साहन के साथ-साथ लोकसेवी को चर्चा संवाद में धैर्यवान भी होना चाहिए। लोकसेवी को निश्चित रूप से लोगों तक अपनी बात पहुँचानी है व एक संदेश लेकर पहुँचना है, पर लोग उसे अपना प्रतिनिधि तथा मार्गदर्शक के रूप में देखते हैं। इसलिए वे अपनी समस्याओं और कठिनाइयों को उसके सामने रखना चाहते हैं और लोकसेवी से यह आशा करते हैं कि वे उनकी बातों को धैर्यपूर्वक सुनेगा, उसकी कठिनाइयों पर ध्यान देगा तथा उनका समाधान सुझाएगा। इस जन अपेक्षा की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए तथा न ही अपनी बात कहने के लिए उतावलेपन से काम लिया जाए। लोकसेवी जनसामान्य के पास एक संदेश लेकर पहुँचता है, संदेश सुनाया जाए, अपनी बात कही जाए, पर कहने की सार्थकता तभी सिद्ध होगी, जब सुनने वाला सुनने के लिए तैयार हो।


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