सच्चा ईशप्रेम

May 2000

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“आलीजाह। “ “कहो यह हमारे आराम फरमाने का वक्त है“ बादशाह के स्वर में तल्खी। “खता मुआफ हो हुजूर। जहाँपनाह से कल अर्ज़ कर दूँगा। “ “नहीं-नहीं कहो जी कहना चाहते हो” “यही तय करना था जहाँपनाह कि कल दरबार में कौन-कौन से फनकार पेश किए जाएँ ?” “कोई नहीं। कल हम सिर्फ गाना सुनेंगे।” “बहुत नेक ख्याल है बंदा परवर का। मौसम भी माकूल है। तब तो हुजूर अपने मरी मुँशी घनानंद को भी तलब कर लिया जाए।” “हाँ। हाँ । क्यों नहीं, सुनते हैं वे भी इस फन में माहिर हैं, लेकिन मैं ज्यादातर यह बात भूल जाता हूँ।” “ तो हुजूर । कल के लिए उन्हें इत्तला दे दूँ ?” “ठीक है दे दो।”

यह मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले का जमाना था। दिल्ली नाच-गाने वालों से भर गई थी।दरबार में भी जी हजूरी करने वालों और खुशामदियों की ही भरमार थी।इन्हीं दिनों हिंदुस्तान पर दूसरे नए हमले के लिए मुहम्मदशाह अब्दाली अपनी फौजें सजा रहा था। लेकिन मुगल बादशाह इससे बेखबर था। उसे अपनी ऐय्यासी-खुमारी से फुरसत ही नहीं थी।दिल्ली के लोगों पर भी अब्दाली के संभावित हमले के कोई भी आसार नहीं जाहिर हो रहे थे।

घनानंद कवि थे, गायक भी, लेकिन पेशेवर नहीं, उनका गायन प्रभु के लिए था । वह उन दिनों बादशाह के मीर मुँशी थे। काम के एकदम पाबंद । लेकिन उसके बाद मीर मुँशी थे। काम के एकदम पाबंद । लेकिन उसके बाद वे अपना पूरा समय भगवान के ध्यान लगाते। कृष्ण ही उनका वर्चस्व था। प्रेम की यही पीड़ा उनकी कविता कविता में छलकती थी। घनानंद की यह कृष्णप्रेम-चर्चा पूरे दरबार में रहती थी । मुगल दरबारी उनसे जलते थे। तभी तो उन्होंने आज ऐसी चाल चली थी कि बादशाह घनानंद पर कुपित हों और वे दंडित और निर्वासित हो, क्योंकि सभी जानते थे कि घनानंद दरबार में गाएंगे नहीं। हाँ, उन्हें उपस्थित तो होना ही था।

दूसरे दिन दरबार लगा हुआ था। बादशाह तख्ते शाही पर आसीन थे। खुशबू के गुबार उठ रहे थे। रेशमी कपड़ों पर जरी के बेल-बूटों की चमक चकाचौंध पैदा कर रही थी। तभी बादशाह ने घनानंद से गाने के लिए कहा-

घनानंद शील-विवश मुस्कराकर बोले, “मुझे कुछ आता नहीं हुजूर ।”

दरबारीगण बनावटी अदब से बोले, “हुजूर अपने मरीमुँशी जहाँपनाह के लिए नहीं, कृष्ण के लिए गाते हैं।’8

“कोई बात नहीं, कृष्णप्रेम का ही कोई गीत सुनाओ मीरमुशी।” घनानंद एक क्षण के लिए मौन रहे ।उनकी मुखमुद्रा गंभीर हुई और स्वरलहरी बह निकली । लेकिन उनकी आँखें शून्य में कृष्ण की अदृश्य छवि पर टिकी थीं। संगीत ने समा बाँध दिया। लंबी साधना का परिणाम जादू बनकर छा गया।

बादशाह खुश हुआ। “मीर मुशी इस फन के भी माहिर हैं।” उसने कहा। लेकिन मुगल दरबारियों ने बादशाह को उकसाया, “हुजूर। कितना ही अच्छा गाते हों मुँशी जी, हुई तो जहाँपनाह की तौहीन ही। हुजूर के लिए गाने से इनकार कर उस किशन के लिए गाना।”

चापलूसी पसंद बादशाह भड़क उठा। बोला-”ओह यह तो बगावत हैं । मीर मुँशी। तुम हमारी निगाहों से दूर हो जाओ। हुकूमत में तुम्हारे लिए जगह नहीं। तुमने हमारी तौहीनी-हुक्म उदूरी की है।”

घनानंद का मुख मलिन नहीं हुआ। दिल्ली छूटी, नौकरी छूटी, उन्हें कृष्ण याद आए। कृष्ण का वंशीवट, उनका मोर-मुकुट खींचने लगा यमुना तट के निभृत निकुँजों की तरफ और घनानंद ब्रज में आ रमे। वृंदावन की गलियों में यमुना तट के पुलिन में घूमने लगे। मन वंशी वाले के लिए तड़पने लगा।

जे घनानंद की ऐसी रुची तो कहा बस है अहो प्राननि पीरों।

अंततः अब्दाली के आक्रमण से मथुरा भी लुटी। किसी ने आक्रमणकारियों को उनके बारे में भड़काते हुए कहा-”यह बादशाह का मीर मुँशी रहा है, काफी बड़ा खजाना है इसके पास।”

अब्दाली के सैनिकों ने उन्हें यमुना की रेती पर आ घेरा। वे कहने लगे, “जर (धन) दो ऐ मुँशी। हमें जर दो, वरना कत्ल कर देंगे।” सुनकर घनानंद जोर से हँसे, फिर एक मुट्ठी रेत वहीं से उठाकर सिपाहियों से बोले-”लो रज-रज-रज।” अब्दाली के क्रूर सिपाहियों ने उन पर तलवार से कई बार किए । वे घायल हो गए। सिपाही तो चले गए, पर घनानंद पीड़ा के इन चरम क्षणों में भी गुनगुनाने लगे-अधर लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान। और उस पावन रेत में उनकी अंतिम साँस टूट-टूटकर बिखर गई। उनके प्राण अपने प्राण-प्यारे कृष्ण से जा मिले । उनके प्रेम की सच्चाई सार्थक हो गई।


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