चाहिए ऐसी शिक्षा, जो मानव का निर्माण कर सके

May 2000

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शिक्षा जीवन को सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा बुद्धि का शिवत्व, हृदय का सौंदर्य और आत्मा का सत्य स्वरूप झलकता है। शिक्षा अंतःप्रकाश को व्यवहार में उतारने का कार्य करती है। यह चरित्र में समुज्ज्वलता, चिंतन में उत्कृष्टता एवं व्यवहार में उदात्त भाव भरती है। एक ओर जहाँ इससे भौतिक पक्ष समृद्ध होता है, वहीं दूसरी ओर यह आत्मिक उत्थान की ओर अग्रसर होने का भी उचित एवं श्रेष्ठ माध्यम है। शिक्षा ‘शिक्ष’ धातु से आगे ‘गुरोश्च हलः’ सूत्र से ‘अ’ प्रत्यय होकर स्त्रीलिंग में ‘शिक्षा’ शब्द का प्रयोग होता है। इसका तात्पर्य है-जिसके द्वारा विद्या ग्रहण की जाए, उसे शिक्षा कहते हैं। ‘सा विद्यया विमुक्तेये’ कहकर विद्या की महत्ता प्रतिपादित की जाती है। अर्थात् शिक्षा वह जो सन्मार्ग प्रदान करे, सन्मार्ग की प्राप्ति अज्ञान के अभाव से ही संभव है, जो कि सत्ता, ज्ञान और लाभ अर्थवाची ‘विद’ धातु से बनी है। सत्-चित-आनंद प्रदात्री ही विद्या है। अतः जिसके माध्यम से व्यक्ति का सर्वांगीण विकास यानि भौतिक एवं अध्यात्मिक विकास हो, वह विद्या ही शिक्षा कहलाती है।

शिक्षा में नैतिकता एवं आत्मिक विकास का स्वाभाविक समावेश होता है। इसके कारण ही राष्ट्र संपन्न और समृद्ध बनता है। इसे कल्पलता के सदृश माना गया है। शिक्षा अज्ञान का निवारण करती है तथा व्यवहार जगत् में सहिष्णुता एवं कर्मठता का पाठ पढ़ाती है। इसकी महत्ता नीति शतक में कुछ इस तरह से अभिव्यक्ति हुई है-

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यम् मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।

चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम। किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या॥

निश्चित रूप से शिक्षा को अपने स्वरूप का बोध कराती है। यह मानव में मानवता का रहस्योद्घाटन करती है। यह मानवीय अंतःकरण का ऐसा शृंगार है, जिससे भावना एवं संवेदना जाग्रत होती है। इसके संवेदन सूत्रों से ही व्यक्ति एवं समाज आपस में जुड़ते हैं। इसी कारण शिक्षित समाज में प्रेम एवं सामंजस्य का सौहार्दपूर्ण वातावरण स्वयमेव बना रहता है।

भारतीय मनोविज्ञान ने मानव की मूल प्रकृति को आध्यात्मिक माना है। अपनी इसी आध्यात्मिक प्रकृति के कारण मनुष्य सचेतन से आत्मचेतन होने की ओर उन्मुख होता है। इसी लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए वह अविज्ञात के अनावरण की जिज्ञासा करता है। परम सत्य को जानने के लिए वह निरंतर अनुसंधान एवं अनवरत खोज में लगा रहता है। महर्षि अरविंद के अनुसार “मानव की सबसे बड़ी विशेषता है कि उसमें एक ऐसी चेतना विद्यमान है, जिसमें वह अपने सीमित भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठ सकता है। यही विशेषता मनुष्य को पशु से भिन्न ठहराती है।”

मनुष्य अपनी इसी आध्यात्मिक प्रकृति के कारण ही कला, संस्कृति, सदाचार और धर्म के स्वरूप को अभिव्यक्ति कर सका है। उसने अपने व्यावहारिक जीवन को भी इसी परिप्रेक्ष्य में ढाला, संवारा, और गढ़ा । तत्ववेत्ता मनीषियों ने इसी गढ़ने-सँवारने की प्रक्रिया को ही शिक्षा एवं विद्या के रूप में निरूपित किया है। वस्तुतः ये दोनों ही आपस में एक-दूसरे से संबंधित हैं। एक में जहाँ लौकिक जीवन की गुत्थियों को सुलझाया जाता है, तो दूसरे में आँतरिक जगत् का अन्वेषण किया जाता है। हालाँकि दोनों में ही आत्मा के ज्ञानरूप का साक्षात्कार किया जाता है। मनीषियों के अनुसार, ज्ञान का यह स्रोत कहीं बाहर नहीं है, प्रत्युत आत्मा के अनावरण से ही इसका प्रकटीकरण होता है। महर्षि अरविंद के शब्दों में, मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी नहीं सिखाया जा सकता, जो जीव की आत्म में सुप्तज्ञान के रूप में पहले से विद्यमान न हो।

युगद्रष्टा स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा अंतर्निहित सत्य को बताते हुए कहा है, मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्ति करना ही शिक्षा है। ज्ञान मनुष्य का स्वभाव सिद्ध है। कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता, सब अंदर ही हैं। हम जो कहते हैं कि मनुष्य जानता है, यथार्थ में मानव शास्त्र-संगत भाषा में हमें कहना चाहिए कि वह आविष्कार करता है, अनावृत या प्रकट करता है। अतः समस्त ज्ञान चाहे वह भौतिक हो अथवा आध्यात्मिक, मनुष्य की आत्मा में है। बहुधा वह प्रकाशित ने होकर ढका रहता है और उसका आवरण धीरे-धीरे हटने लगता है, तब हम कह सकते हैं कि हम सीख रहे हैं। युगनायक स्वामी विवेकानंद ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है -”शिक्षा से आत्मविश्वास जगता है और आत्मविश्वास से अंतर्निहित ब्रह्मभाव जाग उठता है। शिक्षा का सुशिक्षा होना मात्र पाठ्यक्रम पाठ्यपुस्तकों तथा परीक्षाओं के घेरे में बंद नहीं हैं, यह जीवन, धर्म, विश्वास, सेवा एवं प्रेम की शिक्षा का समन्वित रूप है। आज ऐसा न समझे जाने के कारण ही इतनी वैमनस्यता, विषमता एवं वितंडावाद पनप उठा है। शिक्षा भावात्मक होनी चाहिए, निषेधात्मक नहीं। भावात्मक विचार संस्कारों के नियंत्रक हैं। वे जीवन निमार्ण तथा चरित्र निमार्ण में सहायक होते हैं। आज ऐसे ही शिक्षा की आवश्यकता है।

स्वामी रामतीर्थ शिक्षा को स्वतंत्रता तथा मोक्ष की प्राप्ति का साधन मानते हैं। संत तिरुवल्लुवर के अनुसार अनश्वर महान संपत्ति केवल शिक्षा ही हो सकती है। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं, श्रेष्ठ शिक्षा वह नहीं, जो जानकारी दी, सच्ची शिक्षा वह है, जो हमारे जीवन और वातावरण में सामंजस्य स्थापित करे। जो भी हो, इतना सच है कि शिक्षा जीवन को अभिव्यक्त करती है। इसके द्वारा जीवन जीवंत एवं जाग्रत हो उठता है। इसी कारण दिव्य जीवन संघ के संस्थापक स्वामी शिवानंद ने शिक्षा के सत्य को निरूपित करते हुए कहा हैं, वास्तविक शिक्षा का उद्देश्य मन को नियंत्रित करना, अहंकार नष्ट करना, दैवी गुणों का संवर्द्धन करना और ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करना होता है। मनीषी एडीसन ने कहा है, मानव-जीवन के लिए शिक्षा वैसी ही है, जैसे किसी संगमरमर-खंड के लिए मूर्तिकला।

इस तरह देखा जाए तो शिक्षा का लक्ष्य कुछ निर्माण करना नहीं, बल्कि मनुष्य में पूर्व संचित शक्तियों का जागरण, अनावरण और विकास करना है। महान् दार्शनिक डा. राधाकृष्णन ने शिक्षा को मनुष्य के भीतर निहित पूर्णता का विकास माना है। उन्होंने शिक्षा का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि समस्त शिक्षाओं, विद्याओं और अभ्यासों का अंतिम उद्देश्य मनुष्य-निमार्ण है। वेदों में भी शिक्षा का उद्देश्य एवं लक्ष्य मानव को प्रबुद्ध, सुसंस्कृत, उन्नत, निरोगी, विकसित एवं पूर्ण बनाना ही माना गया है। वेदकालीन शिक्षा में ज्ञान को आत्मसात करने, नवीन-सृष्टि करने तथा भावधारा आदि का समावेश था। इस तरह शिक्षा का मूल उद्देश्य मानवता का विकास एवं उसकी पूर्णता ही सिद्ध होता है। अतः इसका स्वरूप पूर्ण वैज्ञानिक है।आधुनिक शिक्षा के तीन प्रमुख आधार माने गये हैं ये हैं-दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक-साँस्कृतिक। शिक्षादर्शन में शिक्षा की आवश्यकता एवं अनिवार्यता पर बल दिया गया है। शिक्षा मनोविज्ञान के अंतर्गत शिक्षा के सिद्धाँतों, प्रतिमानों, विधियों तथा प्रणालियों का विस्तार से वर्णन किया जाता है। मनोविज्ञान के अनुसार, व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शिक्षा का परम लक्ष्य है। शिक्षा के सामाजिक साँस्कृतिक पहलू में उसके विषय एवं सामयिकता पर प्रकाश डाला गया है। शिक्षाविदों ने आधुनिक शिक्षा के तीन प्रमुख घटकों का उल्लेख किया है-शिक्षक, शिक्षार्थी और शिक्षणप्रक्रिया व विषय। प्राचीनकाल में भी शिक्षा इन्हीं तीन मूल बिंदुओं पर आधारित थी। परंतु इसके स्वरूप व क्रियान्वयन में उत्कृष्टता एवं ग्राह्यता का आग्रह था।

शिक्षा देने वाला शिक्षक या गुरु वह व्यक्ति है, जो शिक्षा को सहज एवं सरल ढंग से छात्र के मन-मस्तिष्क में उतार देता है, प्राचीनकाल में चार प्रकार के शिक्षकों का वर्णन मिलता है-आचार्य, प्रवक्ता, श्रोत्रिय एवं उपाध्याय। विद्यार्थी को संस्कार-सूत्रों से जो आबद्ध करे उसे आचार्य कहते थे। आचार्य शिक्षार्थी के अंदर संस्कार एवं शिक्षा को बीजारोपण करता है। आर्षग्रंथों के गूढ़ एवं सूत्र रूप में भरे बड़े ज्ञान भंडार की सरल, सहल एवं सुँदर भाषा में व्याख्या करने वाले को प्रवक्ता कहा जाता है। हालाँकि वर्तमान समय के प्रवक्ताओं में वह बात नहीं है, जो प्राचीनकाल में होती थी। छंद अर्थात् वेदों की शाखाओं को कंठस्थ रखने वाले एवं शिक्षार्थी को कंठस्थ कराने वाले शिक्षक श्रोत्रिय कहलाते थे, लौकिक एवं वैज्ञानिक साहित्य का अध्ययन-अध्यापन करने वालों को अध्यापक या उपाध्याय कहा जाता था।

अध्यापक का ज्ञान, शैली, संप्रेषण एवं व्यवहार बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसी के माध्यम से वह अपने विद्यार्थियों को ज्ञान का बोध करा सकता है। आधुनिक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षकों की विशेषताओं का इन बिन्दुओं के अंतर्गत आकलन किया है-सम्यक् ज्ञान, कुशल शैली, सरल एवं सुबोध भाषा, मधुर व्यवहार, सत्यवादिता, निष्पक्षता, न्यायप्रियता एवं विद्यार्थियों के प्रति स्नेह व सद्भावपूर्ण दृष्टिकोण । विनोबा भावे ने शिक्षकों में तीन गुणों को रेखाँकित किया है-शिक्षक के मन में शिक्षार्थी में तीन गुणों को रेखाँकित किया है-शिक्षक के मन में शिक्षार्थी के प्रति प्रेम और वात्सल्य की भावना, शिक्षक की निरंतर अध्ययनशीलता एवं शिक्षक का वर्तमान राजनीति में सक्रिय न होना। इन गुणों से युक्त शिक्षकों को डा. राधाकृष्णन ने समाज का प्रकाशस्तंभ कहा है। पूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन का कहना है कि सच्चे शिक्षक ही हमारे भाग्य-विधाता है।

सच तो यह है कि शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों ही एक दूसरे के पूरक होते हैं। इनके मध्य पवित्र ज्ञान का संबंध होता है। श्रद्धापूर्वक शिक्षा ग्रहण करने की इच्छा रखने वाला शिक्षार्थी होता है। छात्र के गुणों के बारे में सिद्धांत कौमुदी में इस तरह कहा गया है-”गुरुर्दोषाणानावरणं छत्रम् ततशीलम् अस्थ इति छात्रम्।” इसी को उपनिषद् इस तरह से कहता है-’यानि अस्माकम अनवद्यानि तानि त्वया उपाखनिनो इतराषि।” प्राचीन काल में छात्र शिक्षक के पास श्रद्धाभाव से पहुँचता था। शिक्षक उसे संस्कारों की भट्टी में गला-ढलाकर अपने अंतर्निहित विद्या गर्भ में प्रविष्ट कराता था। इसी उदात्त भावना से शिक्षक को अंतेवासी शब्द से अलंकृत किया जाता था। शिक्षक शिक्षार्थी को उसके अनुकूल शिक्षा प्रदान करता था।

आज के आधुनिक परिदृश्य में भी इसे तीन रूपों में परखा जा सकता है-(1) ज्ञानात्मक (2) भावात्मक तथा (3) क्रियात्मक । ज्ञानात्मक उद्देश्यों में समझना, रचना करना वे मूल्याँकन पर जोर दिया जाता है। भावात्मक पहलू के अंतर्गत विद्यार्थियों में सकारात्मक अभिवृद्धि को जाग्रत कर अध्ययन हेतु प्रेरित किया जाता है। क्रियात्मक प्रक्रिया प्राप्त ज्ञान व प्रेरणा को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर बल देती है। वर्तमान युग में कम से कम समय में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया चल पड़ी है। इसलिए प्राथमिक स्कूलों से महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तक ऐसी ही विधियाँ प्रयोग में लाई जा रही हैं। प्रयोग में लाई जाने वाली विधियों में भाषण या वाचिक विधि, सामूहिक विवेचना या संगोष्ठी विधि, सामूहिक प्रदर्शन विधि एवं पत्राचार विधि मुख्य है। इन्हें और सरल, सुबोध एवं व्यापक बनाने के लिए रेडियो, टेलीविजन एवं कंप्यूटर की सहायता ली जा रही है।

शिक्षा जगत् के वर्तमान परिदृश्य में उच्चस्तरीय सिद्धांतों एवं अत्याधुनिक व्यवस्थाओं के बावजूद प्रतिपल विफलता एवं व्यक्तिक्रम बढ़ता जा रहा है। इस तथ्य की गहराई में जाने पर निष्कर्ष यही निकलता है। कि आज की शिक्षा अर्थ एवं काम पर प्रतिष्ठित है। यह केवल जीविकोपार्जन या आजीविका का साधन बनकर रह गई है। जो शिक्षा वैभव-विलास से जुड़कर तप से मुँह मोड़ ले, वह भला चरित्र चिंतन एवं व्यवहार में कैसे परिवर्तन ला सकती है। सत्य यही है कि आज का शैक्षिक परिदृश्य एकदम दिग्भ्रमित है।

वर्तमान शिक्षा को यदि सृजनशील बनाना है तो शिक्षा के मूल्य, महत्व एवं उद्देश्य को सही ढंग से समझना होगा और प्राचीन भारतीय परंपरा को सामयिक रूप से प्रतिष्ठित करना होगा। शिक्षणप्रक्रिया में ऋषि-चेतना का समावेश करके ही उपर्युक्त विसंगतियों को दूर किया जा सकता है। वर्तमान शिक्षा में जीवन जीने की कला या अध्यात्मविद्या का समावेश आवश्यक है। इसके बिना सच्चे जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । आज पाश्चात्य जगत के शिक्षाशास्त्रियों जैसे पैंटर, डेवी, फ्रीबेल, जेम्स विवेकानंद, महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, ब्रह्मर्षि दयानंद आदि के विचारों का समन्वय आवश्यक है। क्योंकि आज समाज को ऐसी शिक्षा चाहिए, जो मानव का निर्माण कर सके एवं समाज व राष्ट्र को विकसित एवं गतिशील बना सके।


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