भूल मालूम पड़ गई (kahani)

May 2000

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कौशांबी राज्य में एक बार भयंकर अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए। अभावग्रस्त मनुष्य मृत्यु के मुँह में जाने लगे। नगर के नगर और गाँव के गाँव खाली हो गए। इसी नगर में चंपक नामक एक ईमानदार मजदूर रहता था । उसकी पत्नी भी उसी के समान धर्मपरायण थी। दिनभर वे कड़ी मेहनत करते, शाम को जो कुछ मिलता, बच्चों को खिला देते, बचता तो खाते, नहीं तो स्वयं भूखे सो जाते। कुछ ही दिनों में यह भी मिलना बंद हो गया। दोनों बच्चे अकाल देवता की भेंट चढ़ गए।

एक दिन भूखा-प्यासा चंपक हव्या के साथ घर लौट रहा था। उसने रास्ते में सोने का एक कड़ा पड़ा देखा। पत्नी को कहीं उसका मोह न जाग पड़े, इसलिए उसने उस कड़े के ऊपर धूल डाल दी।

हव्या अभिप्राय समझ गई। उसने कहा-”स्वामी नाहक ही धूल पर धूल डाल रहे हैं, आप इतने निर्लाभी हैं, तो आपकी हव्या क्या आपके आदर्श से डिग सकती है ?”

भगवान ये सब देख रहे थे। दोनों के आत्मसंतोष व निर्लाभता को देखकर उन्होंने कहा-जहाँ ऐसे देवता रहते हों वहाँ अकाल नहीं रह सकता। उस रात खूब जलवृष्टि हुई।

एक पुजारी नियत समय पर पूजा करने आता और आरती करते-करते भावविह्वल हो जाता। घर आते ही अपनी पत्नी-बच्चों के पति कर्कश व्यवहार करने लगता है। एक दिन उसका छोटा बच्चा भी साथ लगा चला आया । पुजारी स्तुति कर रहा था-’हे प्रभु तुम सबको प्यार करने वाले, सब पर करुणा लुटाने वाले हो।”

अभी वह इतना ही कह पाया था कि बच्चा बोल उठा-”हे पिता। जिस भगवान के पास इतने दिन रहने पर भी आप करुणा और प्यार करना न सीख सके, उसे भगवान के पास रहने न रहने से क्या लाभ ?” पुजारी को अपनी भूल मालूम पड़ गई और वह उस दिन से आत्मनिरीक्षण व आत्मसुधार में लग गया।


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