शिष्य की अंतर्वेदना

May 2000

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देख रहा हूँ आपकी राह, जीवन के एकाँत में । खोज रहा हूँ आपकी छवि जीवन की अंतहीन अंतर्वेदना में। सोच रहा हूँ कि सूर्य के सामने अंधेरा कैसा । आप जिसके रक्षक हैं, विपत्तियाँ ही उसकी सहचरी बनी रहें, यह न संगत है और न संभव ही। क्या मुझ में कर्मठता, परिश्रम, धैर्य और साहस की कमी है अथवा मेरा विश्वास कमजोर है। तेजी से घूमने वाला उलझा हुआ घटनाक्रम-विपरीत और संघर्षशील घोर दैन्य, मायावी, छली और वंचनाशील परिस्थितियों को सतत् सामना करने की स्थिति में मेरी निष्ठा को डिगाने से बचाना । अपनी कृपा से निराश नहीं होने देना। असंतुलित मन से क्रंदन किए जाना ही बुद्धिमानी तो नहीं हैं । परन्तु निरुपाय और सर्वथा असुरक्षित मनोदशा में करूं तो क्या करूं ? लोग उपहास की दृष्टि से देखें, अर्थ लगा-लगाकर हँसें, इसमें मेरा क्या वश।

साधु संतों की झोंपड़ी देखी, महंतों-मठाधीशों के खेमे-डेरे देखे। विद्वानों की गलियाँ झाँकी, ग्रंथालयों के चक्कर काटे। उजड़े हुए खंडहरों तथा बीहड़ वन पर्वतों को कोना कोना छाना । सदियों की पीड़ा का प्रकरण पलों में कह देने वाली सजल सूनी निगाहों से सबको निहारा। परंतु हे दयालु गुरुदेव सब जग मुझे उपेक्षा-तिरस्कार और निराशा के सिवा और कुछ भी नहीं मिला। सब जगह से हार-थककर जब मैं आपकी शरण में आया, तब आपने ही मुझे अपनी ममता के जल से सींचा, अपने आशीष की छाँव में रखा।

दीन प्रतिपालक दयाधाम। ये स्वप्न-स्मृतियाँ, आशा-प्रतीक्षा, कामना-कल्पना, अँधेरे और अज्ञान की पीड़ाएं मुझे अनाथ की भाँति सता रही हैं । प्रभो मेरी आर्त प्रार्थना की आपने कभी अनसुनी नहीं की। मेरे तन कि से दुःख से आपको बिलख उठते अपनी इन्हीं आँखों से मैंने न जाने कितनी बार देखा है। आज जो ये असहनीय पीड़ाएं मुझे घेरे हैं, क्या ये मेरी मिथ्या धारणा हैं अथवा असत्याभास है।

हे परम सद्गुरु मेरे दुर्गुणों-दोषों-दुष्प्रवृत्तियों को, एक-एक को गिनकर रखना और सभी का बदला इसी जन्म में चुकाकर आगे का रास्ता साफ कर देना। मुझे पवित्र होने का वरदान भी तो आप ही ने दिया है। अपने उसी वरदान को साकार करना। आपके सिवा पहले भी कोई नजर रहीं आया और आज भी कोई नजर नहीं आता। जो मिलते हैं वे चले जाते हैं। समस्या का समाधान तो आपके ही वरद हाथों में है। प्रभो जीवन से मोह नहीं है और मृत्यु का भय नहीं है। कष्ट जो कुछ है, शरीर को है। अपमान-तिरस्कार, उपेक्षा-अवमानना तो एक तरह से शुभ ही हैं, क्योंकि इनसे अहंकार नष्ट होता है। हाँ, बस मेरी अंतर्वेदना पर ध्यान देना । मुझे अपने चरणों से वंचित मत होने देना।

आपसे सभी ने कुछ न कुछ माँगा ही है। आपसे कुछ न चाहना भी सब कुछ चाहता है और यह भी सच है कि आपका कुछ न देना भी सब कुछ देना है। हे परम दयालु अंतर्यामी। मेरी दर-दर भटकती-ठोकर खाती, मिटती और बरबाद होती हुई, आकुल-अशाँत और अंधेरों से घिरी जिंदगी के लिए, मेरे लिए कुछ करें-यह मेरी वाणी से निकल नहीं पाता। आपकी याद आते ही शब्द मूक हो जाते हैं, मन निस्पंद हो जाता है और हृदय चक्षु घटों से अपनी पीड़ा का अश्रु-अर्घ्य आपको अर्पित करता रहता है।

मेरी इस अकथ-अवर्णनीय अंतर्वेदना की व्यथा कथा का कोई अंत नहीं। इसकी गरिमा ही कहाँ ? मैं भला क्या जानूँ ? अंतर्वेदना में भी तो आप ही व्याप्त हो, फिर जानना क्या ? हाँ यह मानता हूँ कि मेरी यह व्यथा मुझ अकेले की नहीं, सभी शिष्य-संतानों की व्यथा गाथा है। सिर्फ शब्द मेरे हैं, भाव तो उन सभी के हैं। युग को भले ही धारे-धीरे बदलने दो, पर हम सबके जीवन को शीघ्र परिवर्तित कर दो प्रभु। हममें से हर एक यह अनुभव कर सके कि उसने ज्योर्तिमय स्पर्श पाया है।


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