अपनों से अपनी बात-1महापूर्णाहुति वर्ष की अति महत्वपूर्ण पाँच सूत्री योजना

May 2000

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्रज्ञापुँज-प्रतिभावानों का नियोजन अब इसमें होना है।

परमपूज्य गुरुदेव ने कहा है -” मनुष्य शरीर में प्रसुप्त देवत्व का जागरण करना ही आज की सबसे बड़ी ईश्वर पूजा है। युगधर्म इसी के लिए विभूतियों का-प्रबुद्ध आत्माओं का आह्वान कर रहा है। नवयुग-निर्माण की आधारशिला यही है।” हमारा इस वर्ष का महापूर्णाहुति का विशिष्ट पुरुषार्थ इसी निमित्त नियोजित है। इतिहास के पृष्ठों पर दृष्टि डाली जाए तो भारतवर्ष के वर्चस्व का इतिहास उसके आत्मबल की सफलता का उद्घोष है। ऋषिगणों के पास भौतिक साधन कम थे, पर आत्मबल इतना प्रचंड था कि वे जनसमूह को अपने प्रवाह में एक निर्धारित समय में उसी प्रकार बहा ले चलते थे, जिस प्रकार प्रबल वेग से बहती नदियाँ तिनकों को अपने साथ बहते चलने के लिए विवश कर देती हैं। कीचड़ में फँसे हाथी को सहस्रों मेढ़कों की चेष्टा भी उबार नहीं पाती। उसी समर्थ हाथी ही युक्तिपूर्वक मजबूत रस्सों की सहायता से बाहर निकाल पाते हैं।

आत्मबल संपन्न ऋषिगण स्वयं प्रकाशवान् थे, इसी कारण उन्होंने समस्त क्षेत्र को प्रकाशित किया- चाहे वह बृहत्तर भारत हो, चाहे दक्षिण−पूर्वी एशिया, पूर्वोत्तर में स्थित जापान अथवा लैटिन अमेरिका । कहना न होगा कि इस देश के निवासी जिन दिनों उत्कृष्टतावादी आध्यात्मिक मान्यताओं से अनुप्राणित थे, उन दिनों इस धरती पर स्वर्ग बिखरा पड़ा था। हर मनुष्य के भीतर से देवत्व की झलक दिखाई पड़ती थी और उस लाभ-लालसा से समस्त विश्व के लोग भारतवासियों का मार्गदर्शन, सहयोग एवं प्रकाश पाने के लिए लालायित रहते थे। इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतीय संस्कृति समस्त विश्व का सर्वोत्तम आकर्षण बनी हुई थी।

जैसे-जैसे आत्मबल संपन्न हस्तियाँ घटती चली गईं, प्रकाशस्तंभ बुझते चले गए। जनमानस में भी उत्कृष्टता मिटती गई । राष्ट्र ही नहीं, विश्व का इतिहास बताता है कि उच्च आत्मबल संपन्न आत्माओं के अवतरण-अवसाद के साथ-साथ जनमानस का भी उत्थान-पतन हुआ है। आज ही नहीं, जब कभी भी नवनिर्माण की बात आएगी, अध्यात्म की ही प्रमुख भूमिका उसमें होगी। नए युग का जो नया निर्माण होने वाला है, उसमें भी अब सन् 2000 व उसके बाद के वर्षों में अध्यात्म की आत्मबल संपन्न उच्चस्तरीय महामानवों की प्रधान भूमिका होगी। प्रत्यक्ष श्रेय इतिहासकार भले ही किन्हीं को भी देते रहें। देवत्व के-प्रसुप्त प्रतिभा के जागरण का हमारा अभियान ही युगनिर्माण योजना है एवं इस महापूर्णाहुति वर्ष में वह सारी धरित्री के भावनात्मक नवनिर्माण हेतु आध्यात्मिक पुरुषार्थ में जुटा है। बारह वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण का यह अंतिम पूर्णाहुति वर्ष इसीलिए हर दृष्टि से विशिष्ट है।

परमपूज्य गुरुदेव ने प्रतिभाओं के तीन वर्ग किए थे। प्रथम वर्ग में प्रज्ञा-परिजन, दूसरे थोड़े वरिष्ठ स्तर पर प्रज्ञापुत्र एवं तीसरे वरिष्ठतम-विशिष्ट प्रज्ञापुँज। पूज्यवर ने कहा था कि युगसंधि महापुरश्चरण का अंत आते-आते मूर्द्धन्यों, प्रतिभावानों, ओजस्वी, तेजस्वी, जीवंतों में ने केवल स्फुरणा आएगी, उनकी बढ़ती संख्या युग परिवर्तन की प्रक्रिया को अंजाम देगी। प्रज्ञापरिजनों के विषय में पूज्यवर ने कहा है कि वे सहयोग जुटाएँगे, प्रज्ञापुत्र नेतृत्व करेंगे और प्रज्ञापुँज साधन जुटाने का वह कार्य संपन्न करेंगे, जैसे शरीर को जीवित रखने में रक्त की महत्ता मानी जाती है।

पाँच सूत्री योजना जो प्रज्ञापुंजों के लिए परमपूज्य गुरुदेव निर्धारित कर गए, हम सभी के लिए आज के इस महापूर्णाहुति वर्ष में और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि समय की माँग है कि अब वे सुनियोजित ढंग से पूरे हों। राष्ट्र व विश्वभर की प्रतिभाओं के समय-श्रम-साधनों का उसमें नियोजन हो तो आज की निराशा भरी परिस्थितियाँ देखते-देखते बदलती नजर आने लगेंगी। निर्धारित कार्यक्रम इस प्रकार हैं-

(1) आत्मशक्ति के उभार के रूप में युगशक्ति का प्रकटीकरण - यह कार्य तपश्चर्या से ही संभव है। साधना की धुरी पर ही यह कार्य हो सकता है। शाँतिकुँज एक जाग्रत तीर्थ-साधना केन्द्र के रूप में ढलकर बीस वर्षों में ऐसी स्थिति में आ गया है कि यहाँ तेजस्वी-मनस्वी ढाले जा सकते हैं। लव-कुश, चक्रवर्ती भरत की ढलाई ऐसे ही वातावरण में होती है। नररत्न साधना द्वारा स्वयं का परिमार्जन कर अपने को सशक्त प्राणवान के रूप में उभारते थे, ऐसे अनेकों तीर्थ-तपोवन प्राचीनकाल में थे। आज भारतीय संस्कृति के विश्वविद्यालय स्तर के निर्माण में साधना को एक स्थापित विधा मानकर जीवनविद्या के सर्वांगीण प्रशिक्षण को बीड़ा जो शाँतिकुँज ने उठाया है, उसे क्षेत्र के कई छोटे-छोटे निर्झर केन्द्र गायत्री शक्तिपीठ, प्रज्ञा-संस्थान पूरा करेंगे। गायत्री तीर्थ-ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान के रूप में गायत्री साधना-यज्ञविज्ञान की जो आरंभ की गई थी, उसका अब बहुगुणित बिस्तर होना है।

(2) युगसाहित्य का सृजन और उसे देश-विश्व के हर भाषा-भाषी तक पहुँचाना- विचारक्राँति का आलोक जन-जन तक पहुँचेगा तो ही लोकमानस को बदला जा सकना संभव है। ऋषियों के युग में यह कार्य वाणी से होता था। आज लेखनी-मुद्रण-इंटरनेट के युग में यह कार्य बड़ी तेजी से विस्तार पाकर होता रह सकता है। पुस्तक रूप में-विचार संप्रेषण के रूप में युगाँतरीय चेतना को हर शिक्षित तक पहुँचाया जा सकता है। अशिक्षित को समझाया जा सकता है। यदि इन प्रतिपादनों में तर्क, तथ्य, प्रमाण, न्याय, औचित्य का पुट है, तो जनमानस को हिलाए बिना ये रह नहीं सकते- ऐसा पूज्यवर का विश्वास रहा है। क्राँतिधर्मी साहित्य की गिनी-चुनी बीस पुस्तकें व प्रारंभिक परिचयात्मक पाँच पुस्तकें, इन दिनों भारत की व विश्व की सभी भाषाओं में अनूदित कर फैलाई जा रही हैं। प्रज्ञापुँजों का इनमें विशिष्ट योगदान हो सकता है। इन बीस पुस्तकों के सेट को कार्लमार्क्स के साम्यवाद की दास कैपिटल, हैरियट स्टो की टाम काका की कुटिया समझा जा सकता है। सारे जमाने की विचारधारा को नया मोड़ देने के लिए यह क्राँतिधर्मी साहित्य वह भूमिका निभा सकता है, जो कभी क्राँतिकारियों ने अपने चिंतन के विस्तार के लिए निभाई थीं। क्राँतिधर्मी साहित्य अभी हिंदी, गुजराती, उड़िया, बंगाली, मराठी में उपलब्ध है। तेलगू में प्रकाशित हुई युगशक्ति गायत्री के साथ-साथ यह उस भाषा में तथा दक्षिण की शेष तीन तमिल-मलयालम-कन्नड़ भाषाओं में भी इस वर्ष के अंत तक उपलब्ध होने जा रहा है। इस वर्ष के अंत में होने जा रहे सृजन संकल्प विभूति महायज्ञ के साथ ही अंगरेजी में संभावित अखण्ड ज्योति के उच्चस्तरीय अनुवाद के प्रकाशन के साथ ही विश्वभर की न्यूनतम पाँच जर्मन, फ्रेंच, स्पेनिश, जापानी व चीनी भाषा में भी इन बीस+पाँच पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित हों, यह प्रयास किया जा रहा है। प्रतिभाओं को इस निमित्त अपना पुरुषार्थ जुटाना होगा।

अनुवाद, मुद्रण, प्रकाशन के इस विश्वव्यापी तंत्र को प्रभावी बनाने के लिए एक नहीं अनेक केंद्र अगले दिनों खड़े होंगे। शाँतिकुँज में स्थापित हो रहे नालंदा-तक्षशिला विश्वविद्यालय स्तर की स्थापना से यह कार्य और गति पकड़ेगा। ऐसी आशा है। शुरुआत तो युगसाहित्य के क्राँतिधर्मी सार अंश से की गई है, किंतु विस्तार के सारे वाङ्मय का विभिन्न भाषाओं में होना है।

(3) कलातंत्र-लोकरंजन से लोकमंगल-इलेक्ट्रानिक मीडिया की क्राँति द्वारा जन-जन को प्रभाव क्षेत्र में लेना-आज टेलीविजन, कलामंच, इंटरनेट वेबसर्फिंग विचार-संप्रेषण के एक विलक्षण माध्यम बन गए हैं। संगीत, अभिनय, एक्शन साँग, चित्रकथाएँ, नाटिकाएँ, फिल्मों ने मनोरंजन की दुनिया को एक क्राँतिकारी आयाम देकर रोजमर्रा की चीज बना दिया है। कामुकता-विलासिता यदि इस माध्यम से फैली है, तो इसके लिए प्रतिभाएँ दोषी हैं, जिन्होंने इस माध्यम का सदुपयोग-सुनियोजन नहीं किया। युगसाहित्य की तरह ही प्रज्ञा अभियान को कलाक्षेत्र में भी प्रवेश करना होगा। छोटे-छोटे रचनात्मक धारावाहिक-फिल्मों को बनाने वाला तंत्र खड़ा करना होगा। जो ‘ब्रेनवाशिंग’ की क्राँतिकारी भूमिका प्रस्तुत कर सके। स्लाइड प्रोजेक्टर से आरंभ हुआ हमारा प्रज्ञा अभियान मल्टीमीडिया प्रोजेक्टर तक, साइबर क्राँति तक पहुँच चुका है। अगले दिनों इस माध्यम को कई गुना विस्तार दिया जाना, विभूतियों का इसमें सुनियोजन होना है।

(4) सृजन शिल्पियों का बड़े स्तर पर प्रशिक्षण और निर्माण- अगले दिनों नवसृजन के असंख्य प्रयोजनों के लिए हजारों-लाखों युगशिल्पियों को मोरचे पर खड़ा होना है। धर्मतंत्र तो शासनतंत्र से भी बड़ा है। इसकी अगणित शाखा-प्रशाखाएँ है। लोकसेवी, समयदानी, वानप्रस्थ, परिव्राजक अब अगणित संख्या में प्रशिक्षित हो भारत व विश्व के कोने-कोने में पहुँचें, यह समय की माँग है। ईसाई चर्च की तरह अपने पादरियों के निमार्ण-प्रशिक्षण निर्वाह-प्रबंध आदि का तंत्र हमें स्वयं खड़ा करना होगा, ताकि भारतीय संस्कृति को विश्वभर में पहुँचाया जा सके। प्रतिभाओं का सुनियोजन इस विराट तंत्र की व्यवस्था बनाने में इस वर्ष लगे, ऐसी पूज्यवर की अपेक्षा रही है।

(5) विश्वराष्ट्र-विश्वधर्म-विश्वभाषा-विश्वसंस्कृति का लक्ष्य पूरा करना- युगाँतरीय चेतना का आलोक सभी धर्मों, भाषा-भाषी नागरिकों में फैले, इसके लिए हमें अपने साँस्कृतिक दूत प्रवासी भारतीयों को धुरी बनाकर विश्वभर में इसके विस्तार हेतु उन्हें प्रयुक्त करना होगा। साँस्कृतिक आत्मीयता के आधार पर भावना क्षेत्र में यदि प्रवासीजनों को बाँध लिया जाए, तो देखते-देखते वहाँ के उस मूल के अगणित प्रतिभाशाली प्रज्ञापुँज आगे आएंगे एवं इस प्रवाह से जुड़ते चले जाएंगे। ये प्रयास बीस वर्ष पूर्व से आरंभ तो हो गए थे, अभी विगत दस वर्षों से इन्होंने गति पकड़ी है। आगामी दो वर्षों में इन्हें उच्चतम वेग तक पहुँचाना है।

मिशन-गायत्री परिवार का विराट तंत्र अपनी प्रौढ़ता की स्थिति में है। आगामी वर्ष हमें अखण्ड दीपक की हीरक जयंती के रूप में युगचेतना का अवतरण वर्ष मनाएंगे। 75 वर्ष का प्रौढ़ यह परिवार भारी-भरकम व्यक्तित्व वाले भावनासंपन्न प्रतिभाशालियों के समुदाय के उभरकर एकजुट होने के रूप में विकसित हो, यही महाकाल की इच्छा है। हम सब तो इसके श्रेयाधिकारी बन रहे हैं, इस सौभाग्य भरे अवसर पर सक्रिय होने-बने रहने में ही हमारी शान है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118