दूसरा आरंभ करूंगा (kahani)

May 2000

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एक ब्राह्मण ने चार यज्ञ किए,पर अंतिम समय उसकी अवस्था बड़ी दयनीय हो गई। वह धर्मराज के पास अपना एक यज्ञफल बेचने चल दिया। रास्ते में एक जगह वह भोजन करने बैठा, उसी जगह कई दिन का भूखा एक संत पड़ा था, ब्राह्मण ने आधा भोजन उसे दे दिया। पर इससे उसकी संतुष्टि नहीं हुई। इस पर ब्राह्मण ने उसे सारा भोजन खिला दिया और धर्मराज के पास चल दिया। धर्मराज ने पूछा-तुम्हारे चार यज्ञ और एक अक्षय यज्ञ जमा हैं, इनमें से कौन सा यज्ञफल बेचते हो? ब्राह्मण पाँचवे यज्ञ की बात सुनकर आश्चर्यचकित हुआ। तब धर्मराज ने उसे बताया कि स्वयं कष्ट सहकर दूसरों की सहायता करना यज्ञ नहीं वरन् अक्षय यज्ञ है। तब ब्राह्मण ने शेष जीवन परोपकार में लगाने का निश्चय कर लिया।

वस्तुतः पिछड़े हुए और दुखियों की सहायता करना, गिरे हुए को उठाना सबसे बड़ा यज्ञ कार्य है।

पाँच पाँडव-सौ कौरव द्रोणाचार्य की पाठशाला में पढ़ने गए। सभी शिष्य एक पाठ रोज याद कर लेते, पर युधिष्ठिर को कई दिन से एक ही पाठ को रटते हो गए। गुरुजी ने झल्लाकर इसका कारण पूछा। ‘सत्यं बद’ इस पहले पाठ को शब्दों से याद नहीं कर रहा हूँ। जीवन में उतारने का ताना-बाना बुन रहा हूँ। जब एक पाठ हृदयंगम हो जाएगा, तब दूसरा आरंभ करूंगा।


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