युगगीता-12 - व्यावहारिक अध्यात्म का मर्म सिखाता है गीता का कर्मयोग

May 2000

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(कर्मयोग नामक गीता के तीसरे अध्याय की युगानुकूल विवेचना )

युगगीता के अंतर्गत ‘कर्मयोग’ नामक तृतीय अध्याय के प्रारंभिक पाँच श्लोकों की व्याख्या विगत अंक में की गई थी। उनका सार−संक्षेप एक ही है कि कर्मा में न तो उसकी कोई आसक्ति हो, न वह अतिवादी होकर ‘नैष्कर्म्य’ को ही परमसिद्ध मान बैठे। योगेश्वर कृष्ण स अध्याय में प्रारंभिक व्याख्या में ही अर्जुन को ‘निष्पाप’ संबोधन देते हैं। निष्पाप व्यक्ति ही निर्मल मन का होता है। जिसके ‘पाप’ क्षय हो गए हों, जो अति सरल व निर्मल भाव से प्रभु की शरणागति हो जाए, उससे श्रेष्ठ पात्र और कौन हो सकता है-गीता का परमपावन संदेश सुनने के लिए हम पर भी प्रभुकृपा तब ही बरस सकी है, जब हम स्वयं को नियमित उपासना गायत्री-साधना के ‘भर्ग’ पर ध्यान केंद्रित कर कषाय-कल्मषों से मुक्त, पापरहित अंतःकरण वाला बना सके। इसी प्रारंभिक उपदेश में भगवान दो प्रकार की निष्ठाओं की बात करते हैं। ‘निष्ठा’ शब्द को प्रयोग यहाँ साधना की पराकाष्ठा के संदर्भ में किया गया है। निष्ठा ही आस्तिकता का प्राण है। वे कहते हैं कि निष्ठाओं में एक ज्ञानयोग से सधती है, दूसरी कर्मयोग से । पहला मार्ग बुद्धि प्रधान है, विचारतंत्र से संबंधित है ज्ञानतंतुओं को झकझोरता है, तो दूसरा मार्ग सक्रियता का-कर्मठता का है। फिर वे कहते हैं कि न तो कर्मों के त्याग मात्र से सिद्ध हस्तगत होती है, न ही कर्मों को आरंभ किए आदमी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है। दोनों ही मार्ग एक-दूसरे से बड़े गहरे जुड़े हैं। इसके बाद भगवान कहते हैं कि कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। यह किसलिए? क्योंकि सभी को अपनी प्रकृति के अनुरूप विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है। “कार्यते हृयवषः कर्म सर्वः प्रकृजिजैर्गुणैः” गीता 3।4।सत, रज, तम इन तीन प्रकार के गुणों से प्रकृति का लीलाव्यापार चलता है। ये ही हमारे कर्मों के मूलस्रोत हैं। इनके वशीभूत हो मनुष्य कर्म करता है। इसका अर्थ यह कि हम कभी निष्क्रिय रह नहीं सकते। सकारात्मक स्वरूप जीवन का सक्रियता से भरा हुआ है। आज की सभी समस्याओं-सभी प्रकार की आसक्ति -तनावों का एक ही समाधान है कि हम “जीवित मृतक’ बनने के स्थान पर सतत् कर्म करें, सक्रिय होकर जिएँ एवं निर्भय होकर जीना सीखें। हंसती-हंसती, मस्ती भरी जिंदगी जिएँ। इसके पश्चात की व्याख्या छठे श्लोक से आरंभ होती है, जो इस बार की प्रस्तुति में पाठकों के समक्ष है।

भगवान आगे कहते हैं कि ‘निष्काम-भाव’ एक उच्चस्तरीय सिद्धि है। इसे सही अर्थों में समझा जाना चाहिए। यदि नहीं समझा गया तो एक निर्दयी मूर्ख व्यक्ति तो यही कहेगा कि कम-से-कम काम और अधिक-से-अधिक भोगमय जीवन ही सबसे आकर्षक है। आज संन्यास के साथ यही विडंबना जुड़ गई है। जहाँ वर्णाश्रम परंपरा में वानप्रस्थ और सक्रिय होकर समाज के लिए जीने की प्रेरणा देता था, वहीं संन्यास और भी सक्रिय हो कर्मों का क्षय कर पूर्णतः विश्वकल्याण को समर्पित जीवन होता था। मूल अर्थ कहीं और रह गया एवं आज के संन्यासियों ने युगधर्म की उपेक्षा कर स्वयं को भोग-विलास से, अकर्मण्यता से जोड़ लिया। सभी ऐसे हैं, यह बात नहीं। किंतु प्रायः देखने में यही आता है कि जिसे पलायन करना हो, जो सक्रिय जीवन जीने से घबराता हो, वह उसी भीड़ में जाकर खड़ा हो जाए। यदि यह संस्था सक्रिय रही होती, गीताकार के उपदेश का पालन कर रही होती तो भारतवर्ष के एक करोड़ से अधिक बाबाजी परमपूज्य गुरुदेव के अनुसार, सारे राष्ट्र को शिक्षित-विद्यावान् स्वावलंबी बना चुके होते।

इसका अर्थ यह कि कर्म करने में ही हमारी शान है। उसका कोई विकल्प नहीं । एक सच्चे कर्मयोगी व निम्न स्तर के मिथ्याचारी में अंतर समझ लेना भी ठीक होगा। भगवान कृष्ण छठे श्लोक में कहते हैं-

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढ़ज्ञत्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ 3/6

अर्थात्-”जो मूढ बुद्धि मनुष्य समस्त इंद्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दंभी कहा जाता है।”

यही वह शिक्षण है, जो हमें बताता है कि हमें कर्म कैसे अच्छे ढंग से करना चाहिए ? आदर्श जीवन क्या होना चाहिए। एक सच्चे लोकसेवी एवं एक मिथ्याचारी में क्या अंतर होता है ? शारीरिक विषयोपभोग की तुलना में मानसिक कामुकता-विषय चिंतन न केवल हमारी प्राणशक्ति का ह्रास करता है, हमारी कार्य-कुशलता को भी प्रभावित करता है। आँतरिक विषय चिंतन के कारण वह धीरे-धीरे असफलता की आरे बढ़ने लगता है, चाहे वह कितना ही कर्म करता दिखाई पड़े, कितने ही आकर्षक व्यक्तित्व वाला, ऊँचे पद वाला क्यों न हो।

कर्म न करते हुए भी मन-ही-मन कामुक-अश्लील चिंतन करने वाले, द्वेष भरे विचार मन में पालने वाले मिथ्याचारी, दंभी कहे जाते हैं। कर्म मात्र बहिरंग से नहीं, अंतरंग से भी व निष्पाप मन के द्वारा होना चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान यहाँ ऐसे लोगों की चर्चा कर रहे हैं, जो समाज की कुछ सेवा नहीं करते, समाज पर भाररूप हैं, मन से विषयों को चिंतन करते रहते हैं, कामना के प्रति आसक्ति भाव अंदर से छोड़ नहीं पाते । ऐसे व्यक्तियों से भिन्न हमें एक आदर्श जीवन बिताने वाला बुद्धिमान, प्रज्ञावान् व्यक्ति बनना है। वे सातवें श्लोक में कहते हैं -

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेउर्जन। कर्मेन्द्रियैः र्कयोगमसक्तः स विशिष्यते॥ 3/7

अर्थात् -” हे अर्जुन जो पुरुष इंद्रियों को मन द्वारा संयत कर निरासक्त हुआ समस्त इंद्रियों द्वारा (शरीर द्वारा) कर्मयोग का आचरण करता है,वही श्रेष्ठ है।”

यही महामानव की परिभाषा है। अनासक्ति का भाव मन में पैदा होना। मन द्वारा इंद्रियों का संयम संभव है। इंद्रियों के माध्यम से ही बहार भागता रहता है। संयत मन द्वारा अपनी इंद्रिय क्रियाओं को संपादित करते हुए-बहिरंग संसार के स्वामी मात्र ही नहीं, अपने उद्विग्नता रहित शाँत मन के स्वामी बनकर जीना ही मनुष्य को शोभा देता है। ऐसे व्यक्ति को अनासक्त मन द्वारा संसार में अपने कर्मों का संपादन करना चाहिए।

इस शब्द ‘अनासक्त’ को यहीं पर भली-भाँति समझ लेना चाहिए। यह शब्द गीतायोग की मूल धुरी है। ‘आसक्ति’ का अर्थ है-मैं (अहंकार) चाहता हूँ। (प्राप्त करने की-भोगने की इच्छा है)। अहंकार और अहं-केन्द्रित इच्छा के युग्म को ही आसक्ति कहा गया है। तब श्रीकृष्ण ‘अनासक्ति’ की बात कहते हैं।, तो वह कहते हैं कि अहंकार और अहंता-केन्द्रित इच्छाओं और वासनाओं से रहित होकर संसार के सेवक बनकर जीना । उसके लिए कर्मक्षेत्र एक ऐसे मंच के समान होता है, जहाँ वह बिना नई वासनाएँ उत्पन्न किए वर्तमान वासनाओं का क्षय करता चलता है।

स्वामी विवेकानंद कहते हैं, “कर्म (सकाम) जब तक क्षय नहीं हुआ हो, तब तक संन्यास किसी काम का नहीं।” आद्यशंकराचार्य विविक चूड़ामणि में कहते हैं, “निष्काम कर्म करते हुए जब हम आगे बढ़ते हैं, तो हमारे कुसंस्कार ऐसे झड़ते हैं, जैसे वृक्ष से पत्ते।” पुराने पीले पड़े पत्ते इस प्रकार झड़ते चले जाते हैं कि पता भी नहीं चलता । निष्काम कर्म, बिना आसक्ति के किया गया कर्म ही सबसे बड़ा तप है, योग है।

हम जितने भी महामानव देखते हैं, सभी कर्म से मान बने हैं, यह विदित होता है। निष्काम कर्म ही उसके जीवन की मूल धुरी रहा है। आद्यशंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद मिल्टन आदि ने थोड़े ही समय में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर अपना नाम इतिहास में लिखाया।परमपूज्य गुरुदेव ने जीवनभर निष्काम कर्म किया। युगसाधना में लगे, युगधर्म का पालन किया । जब पूज्यवर ने अपने गुरु के आदेशानुसार 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरण आरंभ किए तो एक और आदेश साथ में मिला कि आध्यात्मिक पुरुषार्थ के अतिरिक्त लौकिक दृष्टि से स्वयं को 3 वर्ष के लिए स्वतंत्रता संग्राम के लिए भी नियोजित करना होगा। ऐसे में 24 वर्ष के महापुरश्चरण यदि 27 वर्ष में संभव होते हों तो कोई हर्ज नहीं, किंतु उसे भी वे युगधर्म मानकर करें। बिना किसी कामना के, आसक्ति भाव के, जब तक बताया गया तब तक पूज्यवर ने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते भागीदारी की एवं पुनः साधना साधना में लग गए। हम सबके लिए भी आज के समय को स्वतंत्रता संग्राम एक ही है-युगनिर्माण को आँदोलन-विचारक्राँति-ज्ञानयज्ञ अभियान। शरीर बीमार है, मन परेशान है, तो भी कोई दिक्कत नहीं। शरीर धुल जाएगा स्वतः ही, मन भी स्वस्थ हो जाएगा इस तप से। कुसंस्कार रूपी पत्ते यदि इस कर्म के माध्यम से झड़ते रहें, तो निश्चित ही दैवी अनुकंपा महानता के रूप में बरसेगी। कर्मों का संपादन हम सतत् करें, करते रहें एवं बिना आसक्ति के करें।

अब प्रश्न यह उठता है कि कौन से कर्म करें ? किस प्रकृति के वे कर्म हों ? क्या कुछ ऐसे कर्म भी हो सकते हैं, जिनके संपादन से हमारे संवेदनशील मन को आघात पहुँचता हो, हमारी आध्यात्मिक प्रगति में अवरोध आते हों ? तब भगवान कृष्ण अर्जुन के मन को पढ़ते हुए कहते हैं-

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म न्यायो ह्यकर्मणः। शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्वयेदकर्मणः॥ 3/7

अर्थात् “ अर्जुन तू शास्त्विहित कर्म कर। क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।”

जैसा शास्त्र कहता है, जैसा समय की आवश्यकता के अनुसार जरूरी है, वैसे ही कर्म किए जाने चाहिए। सारी तत्परता -सारी इंद्रियों का नियोजन युगधर्म के निर्वाह में हो-यह मंतव्य प्रस्तुत श्लोक से निकलता है। हमारे ऋषियों ने कर्मों के विषय में बड़ा स्पष्ट विभाजन कर हमारा मार्गदर्शन किया है । उन्होंने चार भागों में इन्हें बाँटा है-

(1) निषिद्ध कर्म - जो मानव के विकास के अनुरूप नहीं हैं तथा शास्त्रों में जिनको निंदा की गई है।

(3) काम्य कर्म - जो निजी इच्छाओं-कामनाओं से प्रेरित होते हैं।

(3) नित्य कर्म- दैनिक कर्म, जिनके संपादन की सभी से मानव होने के नाते अपेक्षा की जाती है।

(4) नैमित्तिक कर्म- जिन कर्मों के संपादन की हमसे विशेष और असाधारण परिस्थितियों में अपेक्षा की जाती है।

इनमें से प्रथम दो से हमें बचना चाहिए, क्योंकि न तो वे मानवी गरिमा के अनुरूप हैं और न ही आध्यात्मिक प्रगति में सहायक । शास्त्र मत के अनुसार अगले दो नित्य-नैमित्तिक कर्म ही हमारे कर्त्तव्य-कर्मों को निमार्ण करते हैं। ये दोनों मिलकर वह शब्द बनता है, जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने नियत कर्म नाम से संबोधित किया है।

हम इस संसार में एक स्वार्थी की जिंदगी जीने नहीं आए। हम सामाजिक प्राणी हैं, अतः हमसे अपेक्षा की जाती है कि हम अपने परिवार, जाति-समाज-संसार सभी के प्रति अपने कर्त्तव्यों का संपादन करें। नियत कर्मों को हम श्रेष्ठ तरीके से अनासक्ति के भाव से प्रसन्नतापूर्वक संपादित करते रहें, इसी में हमारी शान है। कर्म करते-करते एक और प्रक्रिया होती चली जाती है, हमारे संस्कारों-दबी हुई कामनाएँ, भावनात्मक ग्रंथियों से हमें मुक्ति मिलती है। कर्मठ जीवन आलस्यपूर्ण निष्क्रियता के जीवन से कहीं अधिक श्रेष्ठ है। हम समय व्यर्थ न खोकर उद्यमपूर्वक कर्म करते रहें, यही गीताकार का संदेश है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि शरीर यात्रा भी तो बिना कर्म के नहीं सधेगी। जीवन-व्यापार पूरा उद्यम पर टिका है। इसलिए निर्धारित-नियत कर्मों को निष्ठापूर्वक संपन्न करते रहना ही मनुष्य की सर्वांगपूर्ण प्रगति का आधार बनता है। सारे राष्ट्र जो समृद्ध-संपन्न विकसित कहलाते हैं, इसी कर्मठता की धुरी पर चलकर ही उस स्थिति में पहुँचे हैं। जहाँ भी आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता है, वहाँ निश्चित ही अविकसित-अर्द्धविकसित-अनगढ़ स्थिति है, यह मानकर चलना चाहिए । हमारे राष्ट्र की भावी प्रगति-आर्थिक महाशक्ति के रूप में सफल होने की कुँजी भी यही है उद्यमशीलता।

परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि कर्म करते रहने से, शारीरिक श्रम से कुसंस्कार कटते हैं। सक्रिय जीवन शारीरिक स्वास्थ्य के लिए स्थूल व सूक्ष्म दोनों ही दृष्टि से अनिवार्य हैं। इसलिए उन्होंने प्रातः जागरण से लेकर संध्या तक कार्यकर्त्ताओं को नियत कर्म में लगे रहने की प्रेरणा दी- श्रमदान के माध्यम से अहंता को गलाने की तथा निरंतर इस प्रक्रिया द्वारा अपनी साधना को प्रखर करने की बात कही। पत्रलेखन, जनसंपर्क, विशिष्ट शोधपरक लेखन हमारे लिए गुरु द्वारा निर्धारित नियत कर्म हैं, तो उसमें श्रमदान नैमित्तिक कर्म है, जो हमारे व्यक्तित्व के उच्चस्तरीय विकास का पथ प्रशस्त करता है। कर्म करते रहने से अंतः करण की शुद्धि होती है एवं हमें इसे योगसाधना मानकर नियमित करना चाहिए।

श्री अरविंद ‘नियतकर्म’ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि यह शब्द पिछले श्लोक (सातवें) के ‘नियम्य’ शब्द का तात्पर्य लेकर प्रयुक्त हुआ है। अर्थात् मुक्त बुद्धि द्वारा नियत किया हुआ निष्काम कर्म। ‘मनसा नियम्यारभते कर्मयोगम्’ यह उद्धरण सातवें श्लोक में आया है अर्थात् जो कोई मन से इंद्रियों का नियमन करते हुए कर्मेंद्रियों द्वारा कर्मयोग करता है, वही श्रेष्ठ है। इसी का सार अगले श्लोक में ‘नियतं कुरु कर्म त्वं’ के माध्यम से प्रस्तुत है। इसका अर्थ यह कोई वेदोक्त याज्ञिक अनुष्ठानपरक नित्यकर्म व दिनचर्या मात्र से नहीं लिया जाना चाहिए।यह श्रेष्ठ स्तर का निष्काम कर्म ही है, जिसकी व्याख्या गीताकार ने की है। (गीता प्रबंध, पृष्ठ 114)

गीता की शिक्षा अनगढ़ नहीं है-लौकिक स्तर की नहीं है। गीता का शिक्षण अति गंभीर स्तर का व सूक्ष्मतम है, सर्वकालीन है, सब मनुष्यों के लिए है । गीता बहिरंग के ढकोसलों-साँप्रदायिक धारणाओं के बंधनों को तोड़कर मूल सिद्धाँतों की ओर हमारा ध्यान डालती है। गीता व्यावहारिक अध्यात्म का ग्रंथ है, मात्र दार्शनिक सूत्रों और बंधे बंधाए मतवादों का ग्रंथ नहीं ।

गीता की इसी शिक्षा को जो ‘नियत कर्म’ की व्याख्या के माध्यम से बताई गई है, यदि भली भाँति समझ लिया जाए तो कर्मयोग का ककहरा हमारी समझ में आ जाएगा। वह कर्म फिर कामना से मुक्त होकर किया जाएगा। बिना किसी फल की अपेक्षा के संपन्न होगा। परंतु ऐसा तो पाता है क्या। पुण्यसंचय, देशसेवा, मानवसमाज की सेवा-साधना भी कर्म के उत्प्रेरक कारण हो सकते हैं। फिर कर्म कामना से मुक्त कैसे हो, इसकी व्याख्या इस माध्यम सके अगले श्लोकों में है, जहाँ यज्ञार्थाय कर्म करने की बात कही गई है। इसी में आसक्ति से मुक्त होकर यज्ञ के निमित्त कर्म करने की बात बड़े विस्तार से समझाई गई हैं। अब उस प्रकरण को परिजन अगले अंक की युगगीता में पढ़ेंगे, पर यहाँ कर्म के विषय में थोड़ा चिंतन परमपूज्य गुरुदेव की लेखनी के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत है। परमपूज्य गुरुदेव नियत लेखनी के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हैं परमपूज्य गुरुदेव नियत कर्म की परिभाषा ऐसी जीवनचर्या के रूप में करते हैं।

पूरा आश्वासन है ज्ञानयज्ञ के निमित्त लग जाने को युगऋषि का-”निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्” के रूप में वस्तुतः अखण्ड ज्योति एवं युगनिर्माण योजना पत्रिका का प्रचार-प्रसार-पूज्यवर के क्राँतिधर्मी चिंतन का प्रसार-विस्तार ही अबका युगधर्म है। पत्र की भाषा से इसकी स्पष्ट झलक मिलती है। एक पत्र और यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। यह पत्र 10-9-64 को टीकमगढ़ के श्री बैजनाथ शौनकिया जी को लिखा गया था श्री बैजनाथ जी अखण्ड ज्योति के 108 सदस्य बनाने के लिए संकल्प किया था। इस संबंध में ‘युग निर्माण योजना’ में विवरण छपता था ताकि औरों को भी प्रेरणा मिले। इसी संबंध में पूज्यवर लिखते हैं-”आपने 108 सदस्य बनाने के लिए संकल्प क्यों संकल्प किया ? इसमें आपने जनता का क्या हित समझा ? इस संबंध में एक छोटा लेख लिख दें और अपने आधे शरीर का साफ-सा फोटो खिंचवाकर भेज दें। इसे युग निर्माण के किसी अगले अंक में छाप देंगे।”

सद्गुरु की लीला अपरंपार है। विचार जन-जन तक पहुँचे, इसके लिए ही उनका पुरुषार्थ जीवनभर चलता रहा। ‘अखण्ड ज्योति’ ऐसी ही आध्यात्मिक आभा-ऊर्जा संपन्न प्राणचेतना की संवाहक है। आज प्रत्यक्षतः उंगलियाँ किसी की भी चलती हों, मूल प्रेरणा स्रोत सूत्र-संचालक का दिव्य प्राण ही है।


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