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May 2000

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प्रज्ञा-परिवार की परंपरा रघुकुल जैसी रहे तो ही उसकी शान है, अन्यथा वचन का महत्व न समझने वाले और कभी भी कुछ कह गुजरने वाले समय का तकाजा सामने आने पर ऐसे ही दाँत निपोरते और कंधे मटकाते, गए गुजरे स्तर का परिचय देते हैं। स्मरण रहे कि अध्यात्म और धर्म के क्षेत्र में श्रद्धा ही

सर्वोपरि हैं। जहाँ निष्ठा न हो वहाँ समझना चाहिए कि कर्मकाँडों की औंधी-सीधी विडंबना से भी कुछ प्रयोजन बनने वाला नहीं है।


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