अनंत काल पूर्व ऊपर खगोल में एक आवाज उठी-”तू कौन है ?” सारा जीव-संसार चकित होकर ऊपर देखने लगा। खगोल गूँजा-”तू कौन है ?” अबकी बार सारे प्राणी खगोल की ओर देखकर कुछ सोचने लगे। खगोल ने फिर प्रश्न किया-”तू कौन है ?” संसार प्रश्न को अनसुना कर अपना काम करता रहा, किंतु मनुष्य चिंतित हो उठा, विचार करने लगा-”मैं कौन हूँ ?” एक-दूसरे की ओर देखता ओर प्रश्न करता, “मैं कौन हूँ?”
उस अज्ञात पूर्व काल का वह साधारण प्रश्न आज तक प्रश्न बना हुआ मनुष्य की विचारक्रिया को गतिमय बनाए हुए है। नियति के उस एक प्रश्न ने फैलकर असंख्यों प्रश्नों का रूप धारण कर लिया है और एक उत्तर, मैं यह हूँ” ने अनेकता से प्रभावित होकर अपना मौलिक रूप खो दिया।
कितना अच्छा होता-आकाश के “तू कौन है ?” जैसे साधारण प्रश्न का साधारण उत्तर देकर मनुष्य निश्चित हो जाता, “जो तू है वहीं मैं हूँ।”
पारलौकिक जगत के अस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता । उसका अस्तित्व है । अब तो वैज्ञानिकों एवं परामनोवैज्ञानिकों ने भी पारलौकिक जगत की सत्ता और सत्य को स्वीकार कर लिया है। उनका कहना है कि इस दुनिया से भी सुँदर, रमणीक और आकर्षक वह दुनिया है।