संत रैदास मोची का काम करते थे। काम को वे भगवान की पूजा मानकर पूरी लगन एवं ईमानदारी से पूरा करते थे। एक साधु को सोमवती अमावस्या के दिन साथ-साथ गंगास्नान करते के लिए उन्होंने आश्वासन दिया था। अमावस्या के स्नान का दिन निकट था। साधु रैदास के पास पहुँचे । गंगास्नान की बात याद दिलाई । रैदास लोगों के जूते सीने का काम हाथ में ले चुके थे। समय पर देना था। अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए रैदास ने कहा, “महात्मन् । आप मुझे क्षमा करें। मेरे भाग्य में गंगा का स्नान नहीं है। यह एक पैसा लेते जाएँ और गंगा माँ को चढ़ा देना।
साधु गंगास्नान के लिए समय पर पहुँचे । स्नान करने के बाद उन्हें रैदास की बात स्मरण हो आई। मन-ही-मन गंगा से बोले, ‘माँ यह पैसा रैदास ने भेजा है, स्वीकार करें। इतना कहना था कि गंगा की अथाह जलराशि से दो विशाल हाथ बाहर उभरे और पैसे को हथेली में ले लिया। साधु यह दृश्य देखकर विस्मित रह गए और सोचने लगे , “मैंने इतना जप-तप किया, गंगा में आकर स्नान किया, तो भी गंगा माँ की कृपा नहीं प्राप्त हो सकी, जबकि गंगा का बिना स्नान किए ही रैदास को अनुकंपा प्राप्त हो गई।
वे रैदास के पास पहुँचे और पूरी बात बताई। रैदास बोले, “महात्मन् यह सब कर्त्तव्य-धर्म के निर्वाह का प्रतिफल है। इसमें मुझ अकिंचन के तप, पुरुषार्थ की कोई भूमिका नहीं।”