पत्रों के आइने से झलक दिखाती ‘अखण्ड ज्योति’

May 2000

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छपे कागज के पुलिंदों के रूप में हजारों पत्रिकाएँ साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक रूप में निकलती हैं। कुछ थोड़े दिन खींचती हैं, कुछ आगे तक चली पाती है व कुछ हलके मनोरंजन की बैसाखी पर चलती हुई घिसटती रहती हैं।मानवी वृत्ति है कि जहाँ उसे हलका-फुलका मन की पाशविक प्रवृत्तियों को भड़काने वाला मसाला मिला, सूखी हड्डी चबाने वाले कुत्ते की तरह वह उसमें रस लेने का प्रयास करता है। ऐसी परिस्थितियों में जब मानवी चिंतन श्रेष्ठता के स्थान पर निकृष्टता के सरल प्रवाह में बहने को उतारू हो, एक आध्यात्मिक पत्रिका का निकलना, सतत् संख्या बढ़ते चले जाना एवं न मिलने पर जन-जन को उसका अभाव खलने लगना, इस तथ्य का परिचायक है कि किसी शक्तिपुँज ने अपनी प्राणचेतना उड़ेलकर हृदय में उमड़ी संवेदना की स्याही के सागर में लेखनी डुबोकर उसे लिखा है एवं बिना किसी लाभ की कामना के उसे प्रकाशित किया गया है।

यहाँ प्रसंग ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका का चल रहा है, जिसके प्रतिपादनों ने न केवल अगणित व्यक्तियों के मनोबल को जगाया है, उन्हें मूर्च्छना से उठाया है, उन्हें हस्तामलकवत भविष्य संबंधी मार्गदर्शन देते हुए प्रत्यक्ष गुरु की भूमिका निभाई। परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी जिन्होंने अखण्ड दीपक से प्रेरणा लेकर ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका पूर्व में 1937 की वसंत पंचमी से आरंभ की, इसे प्रकाशन के रूप में 1940 की वसंत पंचमी से आरंभ की इसे दैवीचेतना का संदेश ही मानते थे। अनेकानेक व्यक्ति इस पारस के संपर्क में आकर अनगढ़ लौहखंड से स्वर्ण बनते चले गए। जीवन जीने की दिशा मिली, प्रेरक मार्गदर्शन मिला मानों कोई उँगली पकड़कर चलना सिखा रहा हो।

पत्रिका अभी शैशवावस्था में थी। लगातार निकलते मुश्किल से आठ वर्ष हुए थे। एक पाठक श्री मोहनराज भंडारी ( अजमेर) ने उसकी प्रशंसा में कुछ शब्द लिखे, तो पूज्यवर ने उत्तर दिया, जो इस प्रकार है-

“हमारे आत्मस्वरूप,

24-11-47

अखण्ड ज्योति की आपने जो समालोचना लिखी है। सो पढ़ी । कुँजडी अपने बेरों को खट्टे क्यों बताएगी? अखण्ड ज्योति के प्रति तुम्हारी जो आत्मीयता है, उसके कारण वह वस्तुतः तुम्हारी अपनी वस्तु हो गई है। जब अखण्ड ज्योति तुम्हारी अपनी वस्तु है, तो स्वाभाविक है कि तुक इसकी प्रशंसा करो। इसके लिए मैं तुम्हें धन्यवाद क्यों दूँ ?”

पत्र लेखन की कला सीखने वालों को उपर्युक्त उद्धरण से शिक्षण लेना चाहिए। जहाँ समालोचना लिखी है, वहाँ पूज्यवर ने ‘आप’ शब्द प्रयुक्त किया है, किंतु जहाँ अपनत्व की बात आई है,वहाँ वे ‘तुम’ संबोधन पर उतर आए हैं। दूसरे प्रशंसा की बात को कितनी सहजता से अभिव्यक्ति दी है आचार्य श्री ने । उन्होंने लिखा है कि यह पत्रिका आपकी अपनी ही है एवं अपनी की तो हर कोई तारीफ करता है ही। अखण्ड ज्योति पत्रिका को पत्रों के आइने से पढ़ने पर जो भी कुछ समझ में आता है, उसे अनुभव करने के लिए भावनात्मक गहराई चाहिए। यह बुद्धि के स्तर की चीज नहीं है।

एक और पत्र उद्धृत है-

“चि0 माया, आर्शीवार

19-10-1967

पत्र मिला। भावनाओं के आदान-प्रदान की मंजिल का एक चरण अब पूरा हो गया । अब दूसरे उस चरण में प्रवेश करना है, जिससे आत्मा के अवतरण का लक्ष्य पूरा हो। सो अब पत्रों का विषय भी वहीं रहना चाहिए। भावनाओं का आदान-प्रदान काग के नहीं, अंतरिक्ष के माध्यम से होता रहेगा।”

वे मिशन की चिर-परिचित कवयित्री स्व0 माया वर्मा को लिखते हैं कि भावनाओं के आदान-प्रदान मात्र तक अब पत्राचार सीमित न रहे।पत्र उसका एक माध्यम बना, ठीक है, पर वह प्रारंभिक कक्षा थी, वहीं तक सीमित होकर न रह जाएँ। आत्मिक पंक्तियों में अपनत्व के माध्यम से जुड़े परिजनों का कितना सशक्त मार्गदर्शन है। इन्हीं माया वर्मा को सतत् दिशा देते हुए अमरकृति बन गई। उनके भावना संपन्न अंतस्तल को सृजनात्मक मोड़ हमारे गुरुदेव ने दे दिया-पत्रलेखन भी एक माध्यम बना व पास बिठाकर दिया गया मार्गदर्शन भी। अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर उनके काव्य को स्थान मिला। इसी पत्र में आगे पूज्यवर लिखते हैं-

“जनवरी 67 से तुम विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचना छपने भेजते रहना। समन 67 के अंत तक तुम इस देश की मूर्द्धन्य कवयित्री होंगी। कलम तुम चलाना-कविताएँ रचते हम चले जाएंगे।”

“तुम्हारे शरीर और मस्तिष्क का-आत्मा का प्रयोजन-लक्ष्य क्या है, यह अक्टूबर अंक (अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1967) में स्पष्ट है। जो बीत गया सो गया-अब शेष समय किसी महान आदर्श के लिए ही व्यतीत होना चाहिए।”

“कविता में तुम्हारी आत्मा का निर्मल चित्रण है, पर अब हमारे लिए नहीं, हमारे मिशन के लिए, सर्वतोभावेन जुट जाना है। कविताएँ भी उसी के लिए लिखो ।”

परमपूज्य गुरुदेव का समस्त लेखन गद्य-पद्य-पत्र-अपनत्व भरा मार्गदर्शन सभी मिशन को समर्पित था एवं यही अपेक्षा वे अपने अनुयायियों विशेषतः विभूतिवान् समीपवर्तियों से रखते थे। अखण्ड ज्योति पत्रिका का लेखन विशुद्धतः लोकमंगल के लिए हुआ, मनोरंजन के लिए नहीं। यही कारण है कि आज वह लाखों-करोड़ों की मार्गदर्शक बनी हुई है। इस तथ्य को स्वयं परमपूज्य गुरुदेव ने जनवरी 1977 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में इस तरह लिखा है, “यह पत्रिका मात्र नहीं है। उसमें लेखक का -सूत्र-संचालक का दिव्य प्राण भी आदि से अंत तक घुला हैं, अन्यथा मात्र सफेद कागज को काला करके न कहीं किसी ने इतनी बड़ी युगसृजेताओं की सेवावाहिनी खड़ी की है और न इतने ऊँचे स्तर के इतनी बड़ी संख्या में सहायक, सहयोगी, अनुयायी ही मिल हैं।” “इसे (अखण्ड ज्योति को) एक शब्द में इतना ही समझाया जा सकता है कि यह हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में निवास करने वाली ऋषिचेतना का समन्वित अथवा उसके किसी प्रतिनिधि का सूत्र-संचालन है।” (अखण्ड ज्योति पृष्ठ 26-27, जनवरी 1977)

यही प्रेरणा पूज्यवर अपने परिजनों को पत्र में सतत् देते भी रहते थे। श्री ब्रजमोहन दधीचि (तत्कालीन जिला शिक्षा अधिकारी मुरैना, म.प्र.) को 26-11-67 में लिखे एक पत्र में पूज्यवर लिखते हैं-

“अखण्ड ज्योति के सदस्य एवं नवनिर्माण साहित्य प्रसार की योजना सब प्रकार उपयुक्त हैं । अपने पुरुषार्थ से जितना बन सके, करते रहें। हम आपकी पीठ पर हैं, भगवान आगे, फिर चिंता किस बात की।

जिसमें आत्मकल्याण और लोककल्याण के दोनों प्रयोजन पूरे होते हों, साथ ही निर्वाह और परिवार-पोषण में भी में किसी को कोई कठिनाई अनुभव न होती हो। वे लिखते हैं, “आठ घंटे कमाने के लिए, सात घंटे विश्राम के लिए लिए, पाँच घंटे घरेलू कामकाजों से निपटने के लिए ठीक प्रकार निकाले जा सकें, तो नित्य कुआँ खोदने-पानी पीने वालों की निर्वाह आवश्यकता भली प्रकार पूरी होती रह सकती है, साथ ही चार घंटे का घंटे का समय सामयिक परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति के लिए नित्य सरलतापूर्वक निकल सकता है।” जो भी अवकाश के दिन मिलते हों, उन्हें युगसृजन में लगाने की व्यवस्था बनाएँ तो कहीं अधिक स्फूर्ति और समय की सार्थकता का आनंद लिया जा सकता है। पूज्यवर की दृष्टि में यह समयदान ही इस समय का नियत कर्म हैं-युगधर्म हैं।

महापूर्णाहुति पुस्तकमाला क्र. 20 के रूप में प्रकाशित पुस्तक ‘समयदान ही युगधर्म’ में महाकाल की अंशधर सत्ता ने लिखा है कि “युगपरिवर्तन के इस पराक्रम में दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन ये दो ही प्रधान कार्य हैं।” इनके निमित्त नियोजित समयदान इस समय का युगधर्म है, श्रेष्ठतम कर्म है- यज्ञार्थाय किया गया कर्म है। शेष व्याख्या अगले अंक में।


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