सृजन का मूल्य
ऐतिहासिक महाभारत में भारते देश को विशाल भारत के रूप में विकसित करने की योजना थी। आज का लक्ष्य एवं प्रसंग ऊँच नीच अब मनुष्य को महामानव, धरातल को स्वर्ग लोक बनाने की तैयारी है। पतन की दिशा में प्रवाहमान लोकमानस को मानवी गरिमा का गला घोंट डालने से कठोरता पूर्वक रोकना है। पतनोन्मुख प्रवाह को उलटना कितना कठिन है, इसे उस प्रयोजनों में संलग्न शक्तियाँ ही जानती हैं । सृजन किसे कहते हैं, उसे हर कोई नहीं जानता, जिसने पाया जैसा मनोयोग जुटाने, पराक्रमियों जैसे श्रम स्वेद बरसाने का अभ्यास है। उन्हीं को सृजन का मूल्य समझने की भी जानकारी है। किसी को भी दो नावों पर एक साथ चढ़ने की, दो घोड़ों पर ही समय में सवारी गांठने की बात कल्पना का परित्याग कर ही देना चाहिए। यह प्रौढ़-प्रखरों को शोभा नहीं देता।
(वाङ्मय 29 पृ. 6.23)