आत्मबल संवर्द्धन से ही जूझ पाएँगे इस महाव्याधि से

May 2000

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न जाने क्यों ऐसे अनचाहे क्षण आ ही जाते हैं, जब हम दुःखी एवं निराश हो जाते हैं। हमारा मन उदास हो जाता है। यों तो यह उदासी जीवन का एक सहज भाव है, यदा-कदा आ ही जाता है, परंतु उदासी का यह भाव जब बिना किसी कारण मन की गहराइयों में उतरकर इस तरह छा जाए कि कुछ भी अच्छा न लगे, जीवन बिलकुल नीरस व व्यर्थ लगने लगे, तब समझो कि हम अवसाद या डिप्रेशन के कुहासे से बुरी तरह घिर गए।

‘डिप्रेशन’ एक आम प्रचलित शब्द है। किसी का कोई नुकसान हो जाए, किसी को कोई परेशानी हो अथवा कोई दिमागी तनाव हो तो लोग तुरंत अपने आप को डिप्रेशन को शिकार मान लेते हैं, जबकि बात ऐसी नहीं है। चिकित्सा-विज्ञान खासतौर पर मनोरोग विज्ञान में डिप्रेशन उस बीमारी का नाम है, जिसके साथ लक्षणों को एक समूह जुड़ा होता है।ये सभी लक्षण मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-मानसिक लक्षण एवं शारीरिक लक्षण।

इनमें मानसिक लक्षण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। तनाव, याददाश्त की कमी, मन की परेशानी , किसी काम में मन का न लगना, हर वक्त किसी न किसी निषेधात्मक विचार से घिरे रहना मुख्य मानसिक लक्षण हैं। दिमाग में विचारों का प्रवाह कुछ इस तरह चलता रहता है, जैसे कोई टेप चल रहा हो। ऐसी मनोदशा में किसी अखबार या पुस्तक को पूरा पढ़ लिया जाता है, पर बाद में कुछ भी याद नहीं रहता। निराश रहना, सदा रोने का मन करना, कहीं अकेले जाने की हिम्मत न कर पाना, किसी बीमारी का डर महसूस होना डिप्रेशन के ही लक्षण हैं। शारीरिक लक्षणों में बिलकुल भूख न लगना, नींद न आना, कब्ज या बदहजमी हो जाना ही मुख्य हैं। रोग ज्यादा बढ़ जाने की स्थिति में रोगी पानी पीना बंद कर देता है। व्यक्ति का वजन कम होने लगता है एवं कमजोरी आने लगती है।

प्रायः देखा जाता है कि डिप्रेशन का एक अटैक चार से छह महीने तक चलता है। उसके बाद डिप्रेशन अपने आप ही ठीक हो जाता है। हालाँकि यह कह पाना मुश्किल है कि डिप्रेशन के अटैक कितने दिनों के अंतराल में होंगे ? वैसे सामान्यतया माइनर डिप्रेशन के अटैक हर दो या तीन वर्ष के अंतराल में या कुछ मरीजों में दस साल के अंतराल में भी हो सकते हैं। जब अटैक बार-बार होने लगे, तो यह लक्षण मेजर डिप्रेशन का होता है। डिप्रेशन या अवसाद की शिकार ज्यादातर महिलाएँ होती हैं। एक शोध-अनुसंधान के अनुसार 12 प्रतिशत महिलाएं किसी न किसी अवसाद का शिकार होती हैं, जबकि पुरुषों के यह सिर्फ 9 प्रतिशत पाया गया है। पहले यह समझा जाता था कि बच्चे अवसाद के शिकार नहीं होते, परंतु नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों से यह साबित हो चुका है कि आज के दौर में बच्चे भी अवसादग्रस्त रहने लगे हैं।

विज्ञानवेत्ताओं का मानना है कि हमारे दिमाग में कई तरह के न्यूरोट्राँसमीटर्स होते हैं, जो संदेशवाहक का काम करते हैं। इनके बनने और नष्ट होने की प्रक्रिया में जब गड़बड़ी पैदा हो जाती है, तब यही गड़बड़ी डिप्रेशन कहलाती है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि यह किसी भी देश में और किसी भी व्यक्ति को हो सकती है। फिर भी कई ऐसी बातें होती हैं, जो आमतौर पर इसका कारण बनती हैं। पहला कारण प्रतिक्रियागत है, जैसे किसी मानसिक आघात से, निकट संबंधी की मृत्यु से, आर्थिक हानि या प्रेम अथवा परीक्षा में असफलता से एवं किसी अपमान से। दूसरा कारण शारीरिक व्याधि है। यह किसी शारीरिक रोग का लक्षण भी हो सकता है। जैसे -ब्रेन ट्यूमर, यकृतशोध आदि लंबी असाध्य बीमारी भी इसका कारण बन सकती है। इतना ही नहीं कुछ औषधियां, विशेष रूप से रक्तचाप कम करने की औषधियां भी इसका कारण हो सकती हैं। तीसरा कारण अंतर्जनित है। वंशगत एवं अंतर्निहित असामान्य रासायनिक प्रक्रियाओं के कारण भी डिप्रेशन हो सकता है।

इन सबके अलावा हमारी जीवनशैली की कई सामान्य बातें भी गंभीर अवसाद का कारण बन जाती हैं। जैसे कई बार ऐसा होता है कि हम सोने में देरी कर देते हैं अथवा उठने में बहुत जल्दी कर जाते हैं। लगातार कई दिनों तक यदि हमारे शरीर को पूरा आराम नहीं मिल पाता तो हम अवसाद के शिकार हो सकते हैं। इसी तरह अपनी कमियों को लेकर हीन-भावना से ग्रस्त रहना या जरूरत के ज्यादा असंतुष्ट रहना भी अवसाद को आमंत्रित कर सकता है। संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार प्रणाली का प्रचलन इन दिनों बढ़ा है। ऐसे परिवार में सिर्फ युवा पति-पत्नि व अवयस्क बच्चे होते हैं, जहाँ किसी विपरीत परिस्थिति में कोई मदद करने वाला नहीं होता। इससे असुरक्षा की भावना पैदा होती है, जो अवसाद का कारण बन जाती है।

उम्र के अनुसार भी इसके अलग-अलग कारण हैं। एक छोटे बच्चे के लिए माता-पिता के प्यार-दुलार का अभाव या उनके आपसी मतभेद और लड़ाई-झगड़े अथवा माता-पिता में से किसी का निधन ऐसे हालात हैं, जो उदासी की अभिव्यक्ति वह खाना-पीना छोड़ने, तुतलाकर बोलने, रात में बिस्तर गीला करने जैसी हरकतों से करता है। किशोरावस्था में बच्चों के हृदय में एक प्रकार का द्वंद्व रहता है। वह एक ओर जहाँ अधिक से अधिक स्वतंत्रता चाहता है, वहीं दूसरी ओर माता पिता व अन्य स्नेहीजनों का प्यार भी नहीं खोना चाहता । इस अंतर्द्वंद्व में फंसा किशोर-मन अवसाद की कड़वी सच्चाइयों से होता है। तीस से पचास की उम्र में बच्चों की समस्याएं, नौकरी व व्यवस्था को लेकर असंतोष, घर-परिवार में भावनात्मक असंतुष्टि, वैवाहिक संबंधों में बिखराव, शरीर पर उम्र का असर मन को गहरे अवसाद में डुबोने का कारण बन सकता है।

महिलाओं में प्रसूति के बाद तनाव ज्यादा होता है। मनोचिकित्सकों के अनुसार 40 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव के बाद नार्मल या क्रोनिक डिप्रेशन हो जाता है। नॉर्मल डिप्रेशन बच्चा होने के बाद प्रथम सप्ताह में ही शुरू हो जाता है और स्वयं ठीक भी हो जाता है। क्रोनिक डिप्रेशन ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि इसकी शिकार महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी आ जाती है। वे बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहने लगती हैं। हमेशा ही नकारात्मक विचारों में डूबी रहती है। भविष्य को लेकर सशंकित रहती है। प्रसव के पश्चात क्रोनिक डिप्रेशन होने का कारण हार्मोन्स में ‘सेरोटोनन’ नामक केमिकल का कम या ज्यादा होना होता है।

अभी कुछ समय पूर्व हुए एक मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार प्रति हजार व्यक्तियों में लगभग 16 व्यक्ति इस मानसिक रोग से पीड़ित हैं। विदेशों में तो यह स्थिति और भी चिंताजनक है। सिर्फ अमेरिका में लगभग दो करोड़ व्यक्ति डिप्रेशन से प्रभावित हैं। अवसाद की यह बीमारी न सिर्फ मानसिक बाधा उत्पन्न करती है, बल्कि ज्यादातर आत्महत्याओं का मुख्य कारण भी यही है। अतः इसका उपचार आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।

पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ मेडिकल साँइसेज के प्राध्यापक डा. डेविड वर्न्स ने अपनी पुस्तक ‘फीलिंग गुड’ में लिखा है कि डिप्रेशन का मुख्य कारण त्रुटिपूर्ण विचार होते हैं। इन विचारों पर नियंत्रण करके हम व्यर्थ की उदासी से बच सकते हैं। इसके लिए उन्होंने ‘संज्ञात्मक चिकित्सा का सिद्धांत’ विकसित किया है। इसके अनुसार चिकित्सा के दौरान चिकित्सक रोगी को उत्साहित करते हैं कि वह अपने नकारात्मक विचारो को सुने और उस पर ध्यान दे। इसमें रोगी को पूरी तरह प्रशिक्षित किया जाता है कि वह विध्वंसक विचारक्रम के उठते ही उन पर काबू पाने के लिए क्या करे? यह रीति-नीति एक प्रकार से ‘अपनी मदद आप करें’ की है। इसके अंतर्गत नकारात्मक विचारों के उठते ही उन्हें दिल में बसाने की बजाय कागज पर उतार लेना चाहिए और ऐसे विचारों को हृदय में स्थान देना चाहिए, जो उद्देश्यपूर्ण हों, जीवन के करीब हों।

कलात्मक अभिव्यक्ति जैसे-नृत्य, संगीत, साहित्य लेखन आदि से भी अवसाद पर काबू पाया जा सकता है। अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है और यह बात पूरी तरह से साबित हो चुकी है कि कलात्मक गतिविधियों में अभिरुचि बढ़ाने से मानव−शरीर में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वह स्वयं को चुस्त-दुरुस्त महसूस करता है। यहाँ तक कि उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ जाती है। कलात्मक अभिरुचि एवं अभिव्यक्ति से मस्तिष्क के बायें एवं दायें गोलार्द्ध के आपसी संबंधों में मजबूती आती है। जिससे कठिनाइयों से जूझने की शक्ति का विकास होता है, साथ ही समस्याओं का सही हल ढूंढ़ने में आसानी होती है।

विभिन्न व्यायाम भी अवसाद की स्थिति से उबरने में सहायक होते हैं। ‘मानसिक आरोग्य राष्ट्रीय संस्थान अमेरिका’ के अनुसंधानकर्त्ताओं ने अपने विभिन्न शोधनिष्कर्षों से यह प्रमाणित कर दिया है कि व्यायाम से व्यक्ति का सारा अवसाद दूर हो जाता है। प्रयोगों से पता चला है कि अवसादग्रस्त व्यक्ति में नारएपिनैफाइन, डोपामाइन आदि न्यूरोट्राँसमीटरों की कमी पाई जाती है। विभिन्न व्यायामों से इन्हें संतुलित रखने में मदद मिलती है।

जहाँ तक इसके निदान के तौर-तरीकों का सवाल है, परिस्थितियों के मुताबिक ये कई है। मनोचिकित्सक औषध परामर्श भी देते हैं। इलेक्ट्रो कन्डयूसिव थैरेपी भी प्रयोग में लाई जाती है। इसके अंतर्गत विद्युत तरंगों को एक निश्चित पैमाने पर दिमाग में प्रविष्ट कराया जाता है। ‘साइकोथेरेपी’ भी इसके निदान का एक तरीका है। इसमें व्यक्ति की मानसिकता को समझकर उसकी परेशानी के समाधान सुझाए जाते हैं। कुछ रोगी ऐसे होते हैं, जिनके व्यवहार में अवसाद घर का जाता है। ऐसे रोगियों को कागनिटिव बिहेवियर थैरेपी द्वारा यह समझाता जाता है कि उनके व्यवहार में क्या असामान्य बाते हैं, जिन्हें उन्हें बदलना है।

अवसाद मूलतः एक मनोभाव है और मनोभाव हमारे विचारो का ही प्रतिबिंब होता है। यदि हम अपने विकृत विचारों के उन्मूलन का साहस जुटा सकें, तो निश्चय ही हम कभी अवसादग्रस्त नहीं होंगे। अपनी कमियों को आत्महीनता का कारण बनाने की बजाय हममें उन्हें दूर करने का आत्मबल होना चाहिए। बेहतर यही होगा कि हमारी नियमित दिनचर्या भी खुशी व उल्लास से परिपूर्ण हो। हर स्थिति में हमें घुटन से बचने का प्रयास करना चाहिए। जीवन में आई विपरीत परिस्थितियाँ पानी के बुलबुलों की तरह होती हैं, जो स्वयं ही समाप्त हो जाती हैं। मन की शाँति पर उनका प्रभाव पड़ने देना किसी भी तरह से बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती। सहनशक्ति की कमी व आत्मदृढ़ता का अभाव ही हमें छोटी-छोटी बातों पर उदास कर देता है। हमें इस बात को जान लेना चाहिए कि जीवनयात्रा में उतार-चढ़ाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी स्वयं को शाँत व प्रसन्न रख पाते हैं, वही अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होते हैं।


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