साधना-विज्ञान का शिक्षण भी देती है उनकी पाती

May 2000

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पत्रलेखन एक कला भी है और शिक्षण की एक महत्वपूर्ण विधा भी। महापुरुषों के चिंतन का आकलन करना हो तो उसे बड़ी आसानी से उनके उनके पत्रों द्वारा किया जा सकता है, जिसमें अनौपचारिक रूप में उनकी परामर्श भरी सद्भावना झलकती दिखाई देती है। स्वामी विवेकानंद के साहित्य में जितना जन-जन को रस आता है, उससे अधिक प्रेरणा उनके द्वारा लिखे पत्रों से मिलती है। ‘सलक्टेड लेटर्स ऑफ स्वामी विवेकानंद’ पुस्तक के पन्ने पलटकर देखा जा सकता है कि कितनी विविधता भरा शिक्षण उस देखा जा सकता है कि कितनी विविधता भरा शिक्षण उस महामनीषी ने तत्कालीन स्थितियों को दृष्टिगत रख दिया । इसी प्रकार बापू के पत्रों के वाङ्मय पर दृष्टि डालकर जाना जा सकता है कि उनके विभिन्न विषयों पर विचार क्या थे।

परमपूज्य गुरुदेव के द्वारा लिखे पत्रों पर जब हम दृष्टि डालते हैं, तो उसमें बहुमुखी-वैविध्य से भरा न केवल शिक्षण हमें मिलता है, साधना-विज्ञान को किस रूप में समझना चाहिए, उसका मार्गदर्शन भी मिलता है। पत्र-लेखन के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति संबंधी सूक्ष्म स्तर का दिग्दर्शन भी पूज्यवर किस कुशलता के साथ करते थे, इसका नमूना इन पत्रों से मिलता है।

हमारे आत्मस्वरूप

23-12-40

“आपका कृपापत्र मिला। कुशल समाचार पढ़कर संतोष हुआ । आपकी प्रगति बराबर आगे को ही रही है। यह गति मंद भले ही हो, पर है सीधी दिशा में । हमारा विश्वास है कि आप लक्ष्य तक अवश्य पहुँचेंगे। आपको कोई विचलित न कर सकेगा।”

“आत्मसाक्षात्कार तो पूर्णावस्था है, उस तक पहुँचने में देर लगेगी। पूर्णावस्था तो परम सिद्धि हैं। उसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रहता। ईश्वरदर्शन के लिए ही सब साधनाएँ होती हैं। वह हो जाने पर किसी साधना की आवश्यकता नहीं हैं। आत्मसाक्षात्कार ही तो जीवन लक्ष्य होता है।”

उग्र अनुष्ठान और तपश्चर्या न करके मात्र सौम्य साधना करें, ऐसा प्यार भरा मार्गदर्शन पूज्यवर ने दिया है। पीठ भी थपथपाई है तथा कुछ शब्दों में गूढ़ दर्शन की बात कहकर उन्हें निरंतर गायत्री साधना करते रहने की बात कही हैं यह पत्र न केवल एक गुरु-शिष्य के मध्य का संवाद है, अपितु साधना विज्ञान संबंधी एक गंभीरतम स्तर का प्रशिक्षण भी। यह सही है कि पास बैठकर-उपदेश सुनकर सब कुछ सीखा-समझा जा सकता है, परंतु पत्रों से भी यह कार्य विधि-व्यवस्थापूर्वक संभव है। इसका नमूना है यह पत्र।

इसी प्रकार 17-12-41 का एक पत्र एक साधक के नाम संबोधित है तथा कुँडलिनी संबंधी उनकी जिज्ञासा को परिपूर्ण समाधान देता है। पूज्यवर लिखते हैं-

“सुषुम्ना द्वारा कुँडलिनी जागरण का कार्य आपके लिए कुछ कठिन नहीं है। वह कराया जा सकता है। परंतु एक कठिनाई यह है कि उस आनंद को प्राप्त करने पर मनोदशा विचित्र हो जाती है। साधक अवधूत जैसा बन जाता है।उससे फिर साँसारिक क्रियाएँ ठीक प्रकार नहीं हो पातीं, तदनुसार उसे विरक्त ही कहना पड़ता है। आपके लिए अभी अनेक कर्त्तव्य साँसारिक शेष है। उन्हें पूरा होने तक आप गायत्री साधना द्वारा अपनी अंतःभूमिका का पकाते रहें। जब आप आवश्यक कर्त्तव्यों से छुटकारा पा जाएँगे, तब आप एक सप्ताह की साधना में सुषुम्ना द्वारा कुँडलिनी जागरण को प्रत्यक्ष कर लेंगे।”

परिजन की स्थिति का पूज्यवर को पूरा ध्यान है। परंतु उत्साह में आकर कोई ऐसा प्रयोग कर बैठे, जो आत्मघाती हो, यह सावधानी रखकर वे अपने शिष्य को एक बालक की तरह समझाते भी हैं। कुँडलिनी जागरण आज एक ‘इंस्टेंट’ प्रक्रिया की तरह विज्ञापित होता रहता है। कुँडलिनी का क-ख-ग न जानने वाले भी कुँडलिनी जागरण की कक्षाएँ चलाते , उस दुकान से लाखों कमाते देखे जाते हैं। यह कितनी गूढ़ साधना है। उसके लिए सुपात्र बनना आवश्यक है, यह कोई नहीं समझता। नासमझी के आधार पर धूर्त मूर्खों को ठगते देखे जाते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने सभी को एक सुव्यवस्थित मार्गदर्शन देते हुए साधना के सभी सोपानों को यथासमय अखण्ड ज्योति पत्रिका में भी दिया एवं पत्रों द्वारा भी उनका मार्गदर्शन किया।

कानपुर के इन्हीं श्री रामदास जी को जिनका पत्र ऊपर उद्धृत किया गया है, 17-9-41 को लिखे एक पत्र में पूज्यवर लिखते हैं-

“आपकी आध्यात्मिक यात्रा ठीक प्रकार चल रही है। साँसारिक झंझट इसलिए चलते रहेंगे कि जिसका जितना आपको देना-लेना है-उसको चुकाने की व्यवस्था करनी है, ताकि आगे के लिए कोई हिसाब-किताब ऐसा न रह जाए, जो बंधनकारक हो। आपका वर्तमानकालीन कोई कर्म बंधनकारक बनने दिया जाएगा। उसका तो हम स्वयं ही परिमार्जन करते रहते हैं। उसकी तनिक भी चिंता नहीं करनी है। चिंता तो केवल पूर्व संचय की है, जिसका लंबा हिसाब-किताब इसी जीवन में बेवाक करना आवश्यक है।”

साधक श्री रामदास जी बड़ी जल्दी-जल्दी परेशान होकर पूज्यवर को पत्र लिखते थे, तो तुरंत मार्गदर्शन मिलता था। साँसारिक उलझनों से परेशान-क्षुब्ध साधक को एक मलहम-सा मिलता था इन पत्रों से। ये कष्ट हमें हँसकर झेलना है। हमारे कर्म बंधन न बनने पाएँ, इसका एक नियति का तरीका है-विभिन्न प्रकार के साँसारिक झंझटों का आक्रमण । इनसे जूझते हुए, जीवन-साधना करते हुए यदि श्रेष्ठ कर्म किए जाएंगे, तो क्रियमाण-कर्म काटे जा सकते हैं। संचित-प्रारब्ध का हिसाब-किताब यदि भगवान इन झंझटों के माध्यम से-दैनंदिन जीवन में आती तकलीफों के रूप में ले रहा हो, तो इसे हंसकर स्वीकार करना चाहिए, यह व्यवहारिक अध्यात्म परक शिक्षण इस पत्र से मिलता है। पत्र लिखा तो एक साधक को गया है, वह भी आज से 49 वर्ष पूर्व, किंतु शाश्वत चिंतन के रूप में हम सबके लिए है। आज भी यह तथ्य अपनी जगह है कि हमें कष्टों को तप बनाकर जीवन जीने का अभ्यास डालना चाहिए। आत्मिक प्रगति तो सतत् अभ्यास से होती रहेगी, किंतु थोड़े-बहुत छोटे-मोटे लौकिक अवरोधों से हममें से किसी को भी विचलित नहीं होना चाहिए। साधना-विज्ञान का इतना सरल-सुगम व व्यावहारिक मार्गदर्शन इससे श्रेष्ठ और क्या हो सकता है।

कभी-कभी परिजन अपनी विलक्षण अनुभूतियों का विवरण पूज्यवर को लिख देते थे। उन्हें लगता था कि इनसे जो संकेत मिल रहा है, वह कहीं भ्रम मात्र तो नहीं है। यदि नहीं तो क्या मार्गदर्शन लिया जाए, यह एक सहज जिज्ञासा होती थी। श्रीमती गीता को 7-7-70 को लिखे एक पत्र में पूज्यवर व्यक्त करते हैं-

“तुम्हें इन दिनों जो अनुभूतियाँ हो रही हैं, वे भ्रम नहीं हैं। उन्हें सर्वथा सार्थक ही समझना चाहिए। भगवान् की विशेष कृपा होने पर ही ऐसी अनुभूतियाँ होती हैं।

तुम्हारा आत्मबल और तप-तेज निरंतर बढ़ता रहे, ऐसी सर्वशक्तिमान माता से प्रार्थना है।”

इसी प्रकार एक पत्र में जो 4-12-40 को मुजफ्फरपुर के श्री देवव्रत जी को लिखा गया था,-पूज्यवर गायत्री साधना संबंधी मार्गदर्शन देते हुए उन्हें धैर्य बनाए रखने को कहते हैं। किसी के द्वारा यह कह दिए जाने पर कि आपकी जीवनरेखा छोटी है, अब अंतकाल आ गया है, पूज्यवर करते हुए उन्हें आश्वासन देते हुए हैं कि इसकी वे तनिक भी चिंता न करें। पाठकगण यदि पत्र अच्छी तरह पढ़े तो समझ पाएंगे कि इसमें जीवनदान किस तरह दिया गया है। हस्तरेखा विज्ञान की गहराइयों को न समझने वाले भी बिना भयभीत हुए अपने भाग्य का निमार्ण स्वयं कर सकते हैं। पत्र इस प्रकार है-

“हमारा दीर्घकालीन अनुभव है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती । अभीष्ट मनोरथ पूरे न भी हों तो भी प्रकाराँतर से आत्मिक और सांसारिक सुविधाएं बढ़ने में किसी न किसी प्रकार सहायता अवश्य मिलती हैं। जितना समय, श्रम और शक्ति साधना में खरच होती हैं, उसका मुआवज़ा अवश्य ही मिलकर रहता है। आप अपनी साधना को निष्ठा, धैर्य और स्थिरतापूर्वक जारी रखें । इससे आपकी जीवनदिशा में परम सात्विक परिवर्तन होगा। भविष्य के लिए आप तनिक भी चिंता न करें। लालच की बात न सोचें । वह सोचें जिसके लिए जीवन प्राप्त होता है। आपको जीवनोपयोगी वस्तुओं का कष्ट न रहेगा।”

“जीवनरेखा की चिंता न करें । आपकी अन्य रेखाएँ ऐसी हैं जिनके कारण आपका जीवनकाल कम न होगा। दीपक में थोड़ा तेल होने पर भी उसे व्यवस्थापूर्वक खर्च किया जाए, पतली बत्ती डाली जाए तो दीपक अधिक समय तक जल सकता है।”

क्या बेबाक लेखनी है। जिन सज्जन का हाथ क्या शक्ल भी कभी नहीं देखी थी, कितना सरल मनोवैज्ञानिक उपचार प्रस्तुत किया गया है। यह इस पत्र से समझा जा सकता है कि अभी दिसंबर 99 की मुजफ्फरपुर यात्रा में स्वयं श्री देवव्रत जी हमसे मिले। 49 वर्ष बाद उनका स्वास्थ्य यथावत है। उन्होंने ही हमें ये पत्र सौंपे। किसी को भी डरा देना आसान है, तुम्हारे ग्रह खराब हैं, तु यह साधना मत करो, शनि की शाँति हेतु वह करो, परंतु वास्तव में उसके मनोबल को बढ़ाकर कैसे जीवनरक्षा की जा सकती है, यह मार्गदर्शन हमें पूज्यवर की लेखनी-पाती से मिलता है।

अंत में एक साधिका की लेखनी-पाती से मिलता है। बहन को लिख एक पत्र का अंश यहाँ प्रस्तुत है। साधना की परिपक्वावस्था में क्या स्थिति होती है, उसका संकेत इसमें है व पाठकों के लिए एक प्रेरक मार्गदर्शन भी ।

प्रिय पुत्री केशर आशीर्वाद 16-2-67

“तुम्हारा पत्र मिला । कुशलता जानी। तुम अब पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बहुत बड़ी मंजिल पार कर चुकीं। अब तुम्हारी वह स्थिति आ गई है, जो परमहंस संतों की होती है।” इसी पत्र में वे आगे लिखते हैं -

“गाय अपने बच्चे को दूध पिलाकर जिस प्रकार पुष्ट करती है, वैसे ही तुम्हारी आत्मा को विकसित करने और ऊपर उठाने के लिए हम निरंतर प्रयत्न करते रहते हैं।”

पत्र स्वयं में बड़ा ही स्पष्ट है। आध्यात्मिक साधना में भावपक्ष प्रबल हो तो सिद्धि शीघ्र ही मिलती है, इसका परिचायक है। गुरु-शिष्य अनुदानों का आदान-प्रदान कैसे किस स्तर पर होता है, इसका भी संकेत इससे मिलता है। पत्रों को माध्यम बनाकर भावभरा हृदय अनुदानों के लिए बैठा दिखाई देता है। वे अपनी प्रखर मेधा से सतत् लाखों को मार्गदर्शन करते रहे । आज पूज्यवर हमारे बीच सशरीर नहीं हैं, पर उनकी अमूल्य धरोहर ये पत्र हैं जो उनके कथामृत के अंश रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। धन्य हैं वे, जो इन पत्रों को पाते रहे, धन्य हैं वे, जो सतत् इनको पढ़कर अपनी निष्ठा समर्पण को नित्य बढ़ाते हैं।


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