वास्तुविद्या के अनुसार भवन में कक्षों में का उपयुक्त स्थान

October 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भारतीय संस्कृति में वास्तुशास्त्र को चौसठ महत्वपूर्ण विधाओं में से एक मन गया है। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में वास्तु या स्थापत्य एवं भवन विन्यास सम्बन्धी अनेक सूत्र है। चारों वेदों के साथ ही चार उपवेद भी है, जिनके नाम है- गंधर्ववेद, धनुर्वेद, आयुर्वेद एवं स्थापत्य वेद। इनमें से स्थापत्य वेद को ही वास्तुशास्त्र कहते है। वैदिककाल में जन्मे इस वास्तु विद्या का विकास ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् एवं पौराणिक काल में हुआ। तदुपराँत रामायण एवं महाभारत काल- जिसे उत्तरवैदिक काल भी कहा जाता है, में वास्तुशास्त्र विद्या का पूर्ण विस्तार हुआ। अयोध्यानगरी लंकानगरी, द्वारिका एवं हस्तिनापुर आदि का स्थापत्यकला अपने चरमोत्कर्ष पर थी। उसकी सुन्दरता एवं निर्माण काल अनुपम एवं अद्वितीय थी। अयोध्या के स्थापक अर्थात् निर्माणकर्ता भगवान मनु थे, तो लंकानगरी के विश्वकर्मा और माय दानव। महाभारत के पश्चात एक समय ऐसा भी आया जब कहने लायक कोई निओर्मान नहीं हुआ। जब आठवीं सदी से छठवीं शताब्दी ईसापूर्व नए-नए राज्य का उदय हुआ, तब फिर से युग की आवश्यकता के अनुरूप नए भवनों, राजप्रसादों, चैत्य आदि का निम्न आरंभ हुआ। चौथी शताब्दी ईसापूर्व जब सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया तो उसके द्वारा भारतीय संस्कृति को भारी क्षति उठानी पड़ी। बहुत कुछ तहस-नहस कर दिया गया। किन्तु उसके बाद चाणक्य काल में वास्तुशास्त्र को नया आयाम मिला। उस अर्थशास्त्र काल में बड़े-बड़े भवन, दुर्ग, सभागार, अधिकारियों एवं सामान्यजनों के आवास, शस्त्रालय, पूजागृह, अतिथिशालाओं, चैत्यों को नमय स्वरूप प्रदान किया।

मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं, मुगल आक्रमणकारियों के कारण भारतीय वास्तुकला संक्रमणकाल से गुजरी। ऐशोआराम की जिन्दगी जीने वाले आक्रांताओं ने भवन निर्माण शिल्प को अपने-अपने दृष्टिकोणों के आधार पर प्रभावित किया। वर्णभेद, जातिवाद, धर्मभेद आदि अनेक संकीर्ण आधारों ने जनसामान्य के बीच भेदभाव की दीवार खड़ी कर दी। अधिकाँश सामान्य जनता को शर से भर कर दिया गया। अंग्रेजी शासनकाल तक यही क्रम चलता रहा। फलतः प्राचीन वास्तुविद्या का प्रायः लोप ही हो गया। आज लोग मनमाने ढंग से भवनों, फ्लैटों, काम्प्लेक्स, अपार्टमेंट, आवासीय, कालोनियों, गगनचुम्बी इमारतों के अंबार लगते चले जा रहे है। बढ़ती आबादी के कारण घिचपिच मकानों की भरमार होती चली जा रही है। इन निर्माणों में वास्तुशास्त्रों के नियमों का पालन नहीं हो पता है। ऐसी स्थिति में उनमें निवास करने वाले, व्यवसाय-व्यापार खड़ा करने वाले स्वास्थ्य की, सुख-शान्ति की, समृद्धि की कल्पना कैसे कर सकते है?

यद्यपि आज गृहनिर्माण में प्राचीन वास्तुशास्त्र के नियमों-सिद्धाँतों का यथा रूप पालन करना सर्वत्र संभव नहीं दिखता। लेकिन कुछ सूत्र संकेत इतने सरल है जिन्हें निर्माण में अपनाकर मनुष्य अपने छोटे से घरौंदे से लेकर विशालकाय भवनों, प्रासादों तक में सुख-शाँतिपूर्वक रह सकता है और पारिवारिक जीवन का आनंद लेते हुए प्रगति के उच्च सोपानों पर चढ़ते हुए मनवाँछित धन-सम्पदा का स्वामी बन सकता है।

गृहनिर्माण सम्बन्धी कमियों,त्रुटियों एवं उनसे उत्पन्न शारीरिक-मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक एवं सामाजिक परेशानियों को वास्तुशास्त्र के अनुसार मानचित्र बनाकर घर बनाने, आवासीय कालोनियों बसाने या औद्योगिक प्रतिष्ठान खड़ा करने से अथवा पूर्व निर्मित भवनों-घरों में वास्तुनियमों के अनुसार थोड़ा-बहुत फेर बदल करके समाधान किया जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम यह जन लेना आवश्यक है कि जो मकान या भवन हम बनाने जा रहे है, उसमें कौन-सा कक्ष अर्थात् कमरा कहाँ और किस दिशा में बनाना उपयुक्त रहेगा इससे नैसर्गिक शक्तियों, पंचमहाभूतों एवं सूर्य आदि शक्तिस्रोतों का उनमें निवास करने वालों पर अनुकूल व उपयुक्त प्रभाव पड़ता है और वे अधिक-से-अधिक सुख-शान्ति एवं वैभव का लाभ उठा सकते हैं।

जैसा कि पिछले अंकों में बताया जा चुका है कि (१) पूजाकक्ष या मंदिर- ईशानकोण में होना चाहिए। इसके अलावा (२) स्नानगृह-पूरब में (३) रसोईघर- आग्नेयकोण में (५) स्ट्राँगरूम या धनकक्ष--वायव्य कोण में (६) स्टोररूम या भंडारकक्ष- उत्तर दिशा में (७) दूध-दही.घृत-तेल कक्ष --आग्नेयकोण और पूरब के मध्य में (८) शौचालय एवं सेप्टिक टैंक - दक्षिण और नैऋत्य कोण के मध्य में (९) अध्ययनकक्ष-स्टडीरूम- पश्चिम या नैत्रत्त्य कोण दाम्पत्य कक्ष - वायव्व कोण व उत्तर दिशा में तथा (१०) मनोरंजन कक्ष - वायव्य कोण में होना चाहिए इसके अतिरिक्त (११) क्लीनिक या औषधालय-- उत्तर दिशा व ईशान कोण के मध्य (१२) मैटरनिटी होम या प्रसूति कक्ष -- नैत्रत्त्यकोण में (१३) डाइनिंग हॉल या भोजनकक्ष --पश्चिम दिशा में (१४) बैडरूम या शयनकक्ष--दक्षिण में;१५द्ध

ड्राइंगरूम या स्वागतकक्ष--ईशान कोण व पूर्व दिशा के मध्य में (१६) पशुशाला व धान्य कक्ष -- वायव्य कोण में (१७) शस्त्रागार- नैत्रत्त्य कोण में (१८) गैराज--वायव्य या आग्नेयकोण में (१९) कुआँ, पानी के टैंक आदि पूरब, पश्चिम, उत्तर या ईशान कोण में शुभ माने जाते है (२०) तलघर, ब्रह्मस्थान अर्थात् आँगन, मुख्यप्रवेश द्वार, भवन के आस-पास पेड़-पौधे, आंतरिक साज-सज्जा आदि का भी वास्तुशास्त्र में अपना-अपना महत्व व प्रभाव है। इसके अतिरिक्त बिजली के उपकरण, हीटर, स्विचबोर्ड, टेलीविजन,रेडियो, टेलीफोन, फ्रीज, कूलर आदि यंत्र-उपकरणों को आग्नेयकोण तथा दक्षिण में लगाने कि अप्निऊ वास्तुशास्त्रीय मर्यादा है।

उपयुक्त पंक्तियों में भवन के जिन प्रमुख कक्षों की-आवश्यक अंगों की दिशास्थिति का उल्लेख किया गया है, वास्तुविद्याविशारदों ने अपने कृतियों में इस सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। इनमें से (१) पूजाकक्ष या देवालय की स्थिति के बारे में अखंड ज्योति के अगस्त अंक में विस्तारपूर्वक बताया जा चूका है। इससे आगे के कक्षों अर्थात् कमरों की स्थिति वास्तुविद्या के अनुसार कहाँ और कैसी होनी चाहिए, यह इस प्रकार से है --

(२) स्नानगृह- स्नान का दैनिक जीवन में अपना महत्व है। प्रायः सभी जीवधारी स्नान करते है। परिंदों से लेकर हाथी तक को छोटे-मोटे जलस्रोतों से लाकर बड़े-बड़े जलाशयों, नदी-तालाबों में डुबकी लगते हुए देखा जाता है। नहाने का मजा जो ले जलाशयों में आता है, वह छोटे-बड़े घरों के एक कोने में बने छोटे-से बाथरूम-स्नानगृह में कहाँ मिल सकता है? स्नान करने से न केवल शरीर की सफाई हो जाती है, वरन् शारीरिक, मानसिक मानसिक थकान व तनाव होकर एक नवीन जीवनशक्ति का, स्फूर्ति का संचार होता है और व्यक्ति तरोताज़ा हो उठता है। बढ़ती आबादी, सूखते व प्रदूषित होते जलस्रोत तथा आपाधापी भरी व्यस्त जिंदगी में आज किसको इतनी फुर्सत है कि वह नहाने के लिए प्राकृतिक जलस्रोतों- नदी, तालाब,झरने आदि को तलाशता फिरे। ऐसी स्थिति में गृह में बने बाथरूम अर्थात् स्नानगृह से ही काम चलाना पड़ता है।

भारतीय वास्तुशास्त्रीय परम्परा के अनुसार किसी भी भवन में बाथरूम यानी स्नानकक्ष पूरब दिशा में सबसे अधिक उपयुक्त व स्वास्थ्यकर माना जाता है इसका प्रमुख वैज्ञानिक कारण यह है कि प्रातः काल जब सूर्य पूरब से उदित होता है, तो उसकी किरणों का सीधा प्रवेश स्नानघर में होता है इन किरणों के प्रभाव से नहाने वाले में नवीन ऊर्जा का संचार होता है और वह दिनभर स्फूर्तिवान बना रहता है। परन्तु आज तो स्नानगृह भी भी प्रदर्शन कि वस्तु बन गया है। आवश्यकता को नहीं, रुची को प्रधानता दी गयी है। स्नानगृह में सौंदर्य प्रसाधन की सुविधाओं की भरमार होने लगी है। इसके लिए बाथटब, वाशबेसिन, गीजर, पंखा,दर्पण आदि की व्यवस्था की जाती है। कुछ व्यक्ति स्नानघर की व्यवस्था घर के बाहर करते है तो कुछ घर के भीतर। परन्तु अब इससे भी आगे यह बढ़ गया है कि प्रायः बैडरूम-शयनकक्ष के साथ ही श् अटैज्ड बाथरूम का प्रचलन हो गया है।

सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप भवननिर्माण व्यवस्था बदल जाने तथा पाश्चात्य भवननिर्माण तकनीक का अनुसरण करने के कारण भी आज शयनकक्ष, अध्ययनकक्ष आदि कि दिशाएँ बदल गयी है, जिनके कारण स्नानगृह व शौचालय का स्थान भी परिवर्तित हो गया है। साथ ही भवनों का स्वरूप बहुमंजिला हो जाने के कारण भी स्नानगृह में परिवर्तन आया है। ऐसी स्थिति में दिशाचयन की समस्या और भी पेचीदा हो जाती है।

इस संदर्भ में ध्यान रखने योग्य प्रमुख बात यह है कि नैत्रत्यकोण तथा ईशान कोण में कभी भी स्नानगृह नहीं बनाया जाना चाहिए। इसी तरह सीढ़ियों के नीचे भी स्नानगृह व शौचालय नहीं बनवाना चाहिए अन्यथा इससे बीमारियाँ पैदा होती है। आग और पानी दोनों विपरीत गुण वाले तत्व है, अतः स्नानगृह व रसोईगृह आमने-सामने नहीं होना चाहिए, अन्यथा गृहकलह बनी रहेगी। डाइनिंग हॉल- भोजनकक्ष भी स्नानगृह के सामने भी नहीं पड़ना चाहिए। स्नानगृह कि खिड़की पूरब की ओर होना चाहिए। स्नानगृह की स्थिति पूरब की ओर होने से नहाते समय स्वाभाविक ही मुँह पूरब की ओर हो जाता है, जो की स्नान की सर्वोत्तम स्थिति है।

पूरब दिशा में स्नानगृह व शौचालय साथ-साथ कभी नहीं बनाना चाहिए। यदि अटैज्ड बाथरूम बनाना ही हो तो दक्षिण-पश्चिम भाग में ( नैत्रत्य कोण के अतिरिक्त ) या वायव्य कोण में बनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त यह इस बात पर निर्भर है कि भवन का मुख्य द्वार किस दिशा में है। उसी के अनुरूप स्नानगृह में फेरबदल किया जा जा सकता है। स्नानगृह में एक ही द्वार रखना चाहिए खिड़की पूरब कि ओर खुलती हो तो अच्छा है। नहाने के कमरे में यदि एडजस्ट-फैन लगाना हो तो उत्तर या पूरब कि दीवार में लगाया जा सकता है। गीजर आदि विद्युत चालित मशीनें आग्नेयकोण में लगनी चाहिए, क्योंकि इनका सम्बन्ध अग्नि तत्वों से है। स्नानगृह में नहाने वाले नल पूरब दिशा में लगा होना चाहिए, जिससे नहाते समय व्यक्ति का मुँह पूरब की ओर रहे। पूर्व की ओर मुँह करके नहाना स्वास्थ्यकर होता है। वास्तुशास्त्र का सिद्धाँत भी यही है कि प्राकृतिक शक्तियों;यथा- पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु, आकाश आदि के अनुसार ही गृह के कक्षों -कमरों का निर्माण करना चाहिए। इससे नैसर्गिक शक्तियों का अनुकूल प्रभाव भवननिर्माता को उसमें रहने वाले को सहज ही मिलता रहता है


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118