भक्ति की साधना

October 1999

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सतत् समर्पण ही भक्ति है। आत्मा का परमात्मा के प्रति, व्यक्ति का समाज के प्रति, शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण में भक्ति की यथार्थता और सार्थकता है। निष्काम और निस्स्वार्थ भक्ति ही फलती है। तभी भक्त भगवान का साक्षात्कार प्राप्त करता है, तभी व्यक्ति जनचेतना अथवा राष्ट्रभावना का पर्याप्त बना जाता है और तभी शिष्य में गुरुत्व कृतार्थ हो उठता हैं भक्ति कभी अकारथ होती ही नहीं, जितना निष्फल अंश में भी स्वार्थ, आकाँक्षा, लिप्सा का भाव शेष रहता है, वही भाव उतने ही अंशों में भक्ति को निष्फल करता है।

साधक और सिद्धि की एकरूपता ही भक्ति है। इस सायुज्य में दो एक हो जाते है-शरीर, मन, प्राण और आत्मा से। जो तू है वह मैं हूँ, जो मैँ हूँ वह तू है। तेरे-मेरे का भेद जहाँ जितने अंशों में समाप्त होता है, भक्ति की सिद्धि उतनी ही निकट आती है। यह सिद्धि भक्त को प्रभुदर्शन के रूप में मिलती है। भक्ति अपने भगवान् से तदाकार हो जाता है। भक्ति। भक्ति है। वह आध्यात्मिक हो सकती है और उसका रंग सामाजिक, राजनैतिक और पारिवारिक भी। प्रभुभक्त, जनभक्त, समाजभक्त, राष्ट्रभक्त के साथ पितृभक्त, मातृभक्त, आदर्श पति-पत्नी, सद्गृहस्थ आदि बहुत से प्रचलित शब्द इसके संकेत है। भक्ति एक योग है। हाँ, इसका क्रमिक विकास अवश्य है। इसका प्रारंभिक रूप जहाँ मातृ-पितृभक्ति है, तो यही अपने विकसित रूप समाजभक्ति, राष्ट्रभक्ति और अंततः प्रभुभक्ति के रूप में स्वयं को प्रकट करती है।

मार्ग अनेक है। मंजिल एक है। भक्त न उलझता है, न चिंतित होता है। वह सहज रूप में अनेक और अनंत को भी अपना एक बना लेता है और वह एक कपड़ा बुनते हुए कबीर को, कपड़ा सिलते हुए नामदेव को, जूते गाँठते हुए रैदास को, हजामत बनाते हुए सेना नाई को भी मिल जाता है। उसे एक को प्राप्त करने वाला व्यक्ति न मोची है, न जुलाहा, व न राजा है न रंक। वह तो सहजता, सच्चाई, प्रेम, विश्वास अपनाने वाला भक्त होता है।

भक्त के लिए तो जीवन का हर कर्म पूजा होती है, सृष्टि का हर प्राणी भगवान् होता है, धरती का कण-कण मंदिर होता है। मंदिर में भगवान् की पूजा करते हुए जितने शुद्ध भाव अनिवार्य होते है, उतने ही शुद्ध भाव जीवन में हर कर्म करते हुए रहें, यही भक्ति की साधना है।


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