ये प्रतिमाएँ बोलती हैं

October 1999

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दुनिया में कितनी ही मनुष्यकृत रचनाएँ हैं वे सबकी-सब सरल, सहज, और बुद्धिगम्य हैं, सो बात नहीं। उनमें से आज भी दुर्बोध बनी हुई हैं और अधुनातन मानव के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर रही है। इन्हीं में से एक है- थीब्स के विशाल पाषाण विग्रह मेमनन के नाम से विख्यात यह भीमकाय मूर्तियाँ मिस्र में नील नदी के किनारे पर थीब्स के भग्नावशेषों के मध्य लम्बे काल से खड़ी हैं। कहा जाता है कि यह मूर्तियाँ वास्तव में मेमनन कि नहीं, वरन् अमेन्होटेप की हैं, परन्तु चिर काल से यह मेमनन के नाम से ही प्रसिद्ध है। अगल-बगल बनी इन प्रतिमाओं में से प्रत्येक की ऊँचाई ५० फुट है और दोनों के बीच की दूरी भी इतनी ही है।

इन विग्रहों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि समय-समय पर ये चित्र-विचित्र आवाजें निकलते रहते हैं; लम्बे काल से अब यह मौन हैं। निर्माण के पश्चात् भी बहुत समय तक यह निस्तब्ध बने रहे थे। उपलब्ध प्रमाण बताते हैं कि बीच का २०० वर्षों का कालखंड ऐसा रहा है, जिसमें यह मूर्तियाँ मुखर हुई थीं।

इनकी रचना ईसापूर्व १५०० में हुई बताई जाती है। तब से अब तक काल के थपेड़े को झेलते हुए यह निर्माण अपनी उपस्थित को बनाए हुए हैं, किन्तु अंग-भंग और विकृत अवस्था में। पूर्वी छोर की मूर्ति को इसकी अधिक मर झेलनी पड़ी है पीठिका से लेकर कमर तक यह एक ही प्रस्तर खंड से बनी है और जगह-जगह दरार युक्त है कमर से ऊपर तक यह पाँच तल में विभक्त है और अपेक्षाकृत छोटे शैलखण्डों से विनिर्मित है, जबकि पश्चिमी किनारे की प्रतिमा एक ही चट्टान से बनी है।

यों तो सीना, हाथ और पैर इसके भी क्षतिग्रस्त हैं; लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से यह अधिक सुरक्षित मन जा सकता है।

इन दोनों संरचनाओं में केवल पूर्वी छोर वाली मूर्ति की आवाज़ेने अब तक सुनी गयी हैं, जबकि दूसरी प्रतिमा अपने निर्माण काल से ही चुप हैं। ऐसा मन जाता है कि सर्वप्रथम ईसापूर्व में मेमनन की मूर्ति से ध्वनि निस्सृत हुई थी। उस समय से सन ६ तक बीच-बीच में लम्बे-छोटे अंतराल पर उसकी आवाजें सुनी गईं, तदुपराँत उसके सुने जाने का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। ईसापूर्व में पहली बार किसी प्रमाणिक व्यक्ति ने इस बात की पुष्टि की कि मेमनन की प्रतिमा सचमुच बोलती है। यह थे तत्कालीन प्रसिद्ध इतिहासकार स्ट्रैबो। अपने यात्रा वृत्तांत में इस बात का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं कि उससे निकलने वाली ध्वनि हलके प्रहार जैसी थी एक अन्य यात्री पउसैनियाज वह वीणा के तर टूटने जैसी थी। उल्लेखनीय है की पउसैनियाज ने थीब्स की यात्रा १३० में सम्राट हैड्र यिन के साथ की थी इन भिन्नताओं के आधार पर ध्वनि की तान के बारे में किसी एक निश्चय पर पहुँच पाना संभव नहीं; पर इसके समय के संबंध में सभी एकमत थे। सभी ने मेमनन की आवाज़ का समय सूर्योदय के करीब बताया है। मूर्ति पर अंकित यात्रियों के विवरण से ज्ञान होता है कि दो बार प्रतिमा की ध्वनि सूर्योदय से पूर्व निकली थी। १८ बार यह सूर्योदय के बाद सुनी गयी। ८ बार सूर्योदय के बाद के प्रथम घंटे में, ६ बार सूर्योदय सूर्योदय के एक घंटे बाद, २ बार सूर्योदय के दूसरे घंटे में तथा ३ बार सूर्योदय के दो घंटे पश्चात्। इस प्रकार कुल ३९ पर्यटकों द्वारा अपने भ्रमणकाल में कर की गई ध्वनि का समय विग्रह पर उल्लिखित है उक्त उल्लेख से ऐसा विदित होता है कि इनमें से अधिकाँश ध्वनियाँ फरवरी और मार्च के महीने में सुनी गईं। ऐसा भी नहीं कि हर प्रातः ये निकलती हों; पर वर्ष में कई-कई बार यह अवश्य निस्सृत होती थीं। कितने ही लोगों को इसे एक से अधिक बार सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जबकि ऐसे भी अनेक यात्री थे, जिनको अपनी दूसरी-तीसरी यात्रा तक इसके लिए इंतजार करना पड़ा।

ऐसा कहा जाता है कि सन २०० से मेमनन का विग्रह मौन है; लेकिन इ. स्मिथ नामक एक अंग्रेज पर्यटक ने इसे मार्च १८२१ में सुनने का दावा किया है। यों तो किसी उन्नीसवीं सदीं में किसी अंग्रेज घुमंतू के मिस्र पहुँचने थीब्स जाने का कोई प्रमाणिक सुबूत नहीं मिलाता, फिर भी इस बात को तात्कालिक ग्रंथों में ढूंढ़ा जा सकता है कि उस दौरान भी लोग वहाँ आते-जाते रहे। रिव्यू इन्साईक्लोंपीडिक ही एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें ए. स्मिथ की मिस्रयात्रा की चर्चा है इसलिए विशेषज्ञ इस बारे में संदेहशील है कि निकट भूत में मेमनन की मूर्ति मुखर हुई थी।

ध्वनि उत्पत्ति स्थान के संबंध में भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं कुछ लोग इसे पीठिका से उत्पन्न बताते हैं, जिनमें स्ट्रैबो भी एक हैं, जबकि अनेक इसका स्थल प्रतिमा देह को मानते है कईयों का कहना है कि इसका स्रोत मूर्ति-मुख है गवेषकों की विस्तृत खोज भी अब तक इस बात का सही-सही निर्धारण नहीं कर सकी है कि आवाज़ का वास्तविक केंद्र विग्रह में कहाँ हैं।

ध्वनि कि प्रकृति के बारे में भी एक-सी धारणाएँ नहीं है। कुछ अनुसंधानकर्ताओं ने तो इसकी वास्तविकता पर उंगली उठायी है और कहा है कि यह किंवदंती के अतिरिक्त कुछ नहीं है। विलकिंसन जैसे शोधकर्ताओं ने इसमें अभियाँत्रिकी के प्रयोग की बात कही है। दुर्भाग्यवश उनका यह अनुमान गलत साबित हुआ, क्योंकि कर्जन आदि शोधकर्मियों की सूक्ष्म पड़ताल के बाद भी मूर्ति के उदार में ऐसी किसी युक्ति का पता नहीं चल सका। अधिकाँश लोक इसकी प्रकृति को अलौकिक मानते और इसे चमत्कार की संज्ञा देते हैं; किन्तु ऐसे लोगों की भी कमी नहीं, जो इसे प्रकृति के मर से उत्पन्न हुई, विग्रहविकृति का परिणाम मानते हैं। सच्चाई क्या है? अभी तक अविज्ञात है। इसके दैवी शक्तियुक्त होने की बात स्वीकारने वालों के कुछ ठोस तर्क हैं। वे कहते हैं कि यदि आवाज़ किसी याँत्रिक युक्ति का परिणाम होती, तो वह हमेशा उत्पन्न होनी चाहिए थी। यहाँ इस संभावना पर भी गहरे से विचार किया गया है कि कदाचित याँत्रिकी और प्रकृति दोनों का संयुक्त नतीजा हो अर्थात् कुछ ऐसे यन्त्र मौसम और परिस्थिति के तालमेल से बिठाए गए हों कि उस मौसम विशेष में ही वह उपकरण सक्रिय होते हों और ध्वनि निकलती हो गहन जाँच-पड़ताल में यह संभव्यता निरस्त ही जाती है। यदि सचमुच ऐसा होता, तो वर्ष के निर्धारित समय में सदा ही मूर्ति के बोल निकलने चाहिए थे, पर ऐसा नहीं होता। उस दौरान कुछ ही बार ध्वनि प्रस्फुटित होती है। यह उसके अलौकिक उद्गम कि ओर संकेत करता है। यदि सूर्य प्रकाश से यन्त्र का कोई सीधा सम्बन्ध मन लें, तो हर सूर्योदय के प्रति उसकी प्रतिक्रिया सामने आनी चाहिए थी, कम-से-कम फरवरी-मार्च के नियमित महीने में तो अवश्य ही; लेकिन ऐसा नहीं होता देखा जाता। यह भी याँत्रिक अथवा प्राकृतिक निमित्त को अमान्य करता है। ऐसी स्थिति में उसके दैवीय होने की पुष्टि होती है।

दूसरी ओर इस बात के भी पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि प्रतिमा आरम्भ

काल से ही मौन थी। प्रख्यात फ्राँसीसी पुराविद एवं इतिहासकार जे.ए. लेट्रोंन अपने ग्रन्थ श्ला स्टैच्यू वोकल डी मेमनन में लिखते हैं कि यदि विग्रह शुरू से ही उक्त गुणसम्पन्न होता, तो इसका उल्लेख कहीं-न-कहीं अवश्य होता। इस बात की भी चर्चा नहीं मिलती कि ये तत्कालीन लोगों के श्रद्धा के केंद्रबिंदु थे। उनका मानना है कि इतनी चमत्कारिक घटना का वर्णन कहीं न हो, यह अपने आपमें आश्चर्यजनक है। प्रायः ऐसा होता नहीं, अतएव वे मानते उन्हें महिमामंडित करने वाले शायद ग्रीक यात्री हों। जब मिस्र पर रोमानो का आधिपत्य हुआ, तो मेमनन मूर्ति की स्थापन के पंद्रह शताब्दी बाद कदाचित यह अवधारणा स्थापित हुई हो और तभी से अपरिवर्तित चली आ रही हो। तत्कालीन मिस्रवासियों के लिए यह मूर्ति सम्माननीय तो थी,; पर पूजनीय नहीं। उनके लिए वे सिर्फ एमेनहोटेप कि प्रतिमाएँ थीं। इससे उनके दैवीय होने का खंडन होता है।

संप्रति यह गहन शोध का विषय है। किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व तत्संबंधी वस्तु के विभिन्न पहलुओं पर सूक्ष्मतापूर्वक विचार करना पड़ता है। इतने पर भी संसार में कितने ऐसे रहस्य हैं, जिनका ठीक-ठीक उत्तर नहीं ढूंढ़ा जा सकता हैं। अनुमान और आकलन द्वारा उनकी मनगढ़ंत व्याख्या कर देना एक बात है और यथार्थ का अनावरण करना सर्वथा दूसरी। आशा करनी चाहिए की आगामी समय में विज्ञानं इन रहस्यों पर से पर्दा हटा सकेगा और उनका युक्तियुक्त जवाब देने में सफल होगा।


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