महापराक्रमी और पुण्यात्मा विद्रुध समयानुसार दिगंत हुए और अपने सत्कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग में सुखोपभोग करने लगे। वहाँ सुख-साधन बहुत और परमार्थ का अवसर तनिक भी नहीं ऐसे स्वर्ग में उनका डीएम घुटने लगा। निरंतर खिन्न रहने लगे।
देवराज इंद्र ने एक दिन उनके खिन्नता का कारण पूछा, तो उन्होंने अपने मन की व्यथा सुनाई उन्हें सुख नहीं शाँति चाहिए। वे विलास में नहीं, परमार्थ में संतोष अनुभव करेंगे। उन्हें धरती पर जाकर व्याप्त दुष्प्रवृत्तियों के निवारण में बहुत शाँति मिलेगी-उसमें जो आनंद है, वह स्वर्ग में नहीं।
सुरगुरु बृहस्पति जी ने विद्रुध को देवसभा में बहुत सराहा और कहा -सुख -सुविधा से भरे हुए स्वर्ग की अपेक्षा तपस्वियों का तपः लोक अधिक श्रेष्ठ है, ऐसे व्यक्ति ही वरिष्ठ देवमानव कहे जाने चाहिए। इन्हें सेवा-साधना के बिना चैन नहीं मिलता।
रामकृष्ण परमहंस से नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद ) ने पूछा - भगवान! मनुष्य विचारशील और श्रेष्ठतम प्राणी जाना जाता है, फिर भी इसमें दो विभिन्नताएं पी जाती है। यह एक विरोधाभास ही है की एक श्रेणी निकृष्टता को ही पसंद करती है, तो दूसरी उत्कृष्टता को, परमार्थ परायणता को; ऐसा क्यों? परमहंस ने उदाहरण द्वारा समझाते हुए कहा - तराजू का जिधर का पल्ला भरी होता है, उधर को झुक जाता है, जिधर हल्का होता है उधर उठ जाता है मनुष्य का मन भी तराजू की भाँति है। उसके एक ओर संसार है, दूसरी ओर भगवान। जिसके मन में संसार,सुखोपभोग,मान-सम्मान का भर अधिक होता है, उसका मन भगवान की ओर उठकर संसार की ओर झुक जाता है। जिसके मन में वैराग्य, विवेक और आत्मज्ञान की प्रबल उत्कंठा का भर हो उसी का मन संसार की ओर उठकर भगवान् की ओर झुक जाता है