युगगीता- 6 - योगस्थ हो युगधर्म का निर्वाह करें

October 1999

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श्रीमद्भगवद्गीता के साँख्ययोग (द्वितीय अध्याय) की युगानुकूल विवेचना-गताँक से जारी

गत अंक में योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा जिज्ञासु अर्जुन को “देहातीत आत्मा के भान” संबंधी विवेचना का हमने विस्तार से जाना। सद्गुरु-पारदर्शी-अंतर्यामी भगवान् बताते हैं कि पंडितजनों को जो प्राण छोड़कर चले गए हैं या जीवित हैं, के लिए किसी भी प्रकार शोक नहीं करना चाहिए। वे विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से अपने शिष्य को आसक्ति के बंधनों मुक्त करना चाहते हैं। हमने युगगीता के इस खंड में पाठकों को बताया था कि सद्गुरु के रूप में हमारी गुरुसत्ता ने भी किस तरह हमारी आसक्ति के बंधनों पर चोट मारते हुए हमें गढ़ने प्रयास किया। नाशरहित, नित्यस्वरूप जीवात्मा का एवं उसे धारण किए नाशवान् शरीर का स्वरूप समझते हुए भगवान् गीता में अर्जुन को बारबार युद्ध करने की याद दिलाते हैं। जो अपनी देह के लिए-देह से जुड़े संबंध के लिए व्यथित होते रहते हैं, उनके लिए भगवान् का द्वितीय अध्याय के पूर्वार्द्ध में संदेश है कि हमें अपने शाश्वत संबंधों को पहचानने का प्रयास करना चाहिए आत्मा-परमात्मा, शिष्य-गुरु, जीव-ब्रह्म का संबन्ध हो, इसकी प्रारंभिक मीमाँसा विगत अंक में की गई थी एवं 32, 33, 34 वें श्लोकों के माध्यम से यह समझाया गया था कि उसे इस धर्मयुद्ध में अवश्य ही लड़ना चाहिए, नहीं तो वह स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप का प्राप्त होगा। देह से स्वधर्म आचरण की उसी व्याख्या का इस अंक में आगे बढ़ाते हैं।

युगधर्म की व्याख्या करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को बार-बार यह तथ्य समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि यदि वह संग्राम नहीं करेगा, तो धर्म से च्युत हो पाप को प्राप्त होगा। वे एक मार्के की बात कहते हुए निम्नलिखित श्लोकों के माध्यम से एक संदेश देते हैं।

भयाद्रणादुपरत। मंस्यन्ते त्वाँ महारथाः। येषा च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्॥

“जिनकी दृष्टि में पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुख और या होगा?”

हतो वा प्राप्स्यसि र्स्वगं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्॥

“तेरे बैरी लोग तेरी सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत-से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे; उससे अधिक दुख और क्या होगा?”

ळतो वा प्राप्स्यसि र्स्वगं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धायाँ कृतनिष्चयः॥

“या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा। इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।”

सुखदुखे समे कृत्वा लालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धा युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥

“जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख समान समझकर इसके बाद युद्ध करने से त पाप को प्राप्त होगा।”

उपर्युक्त चार श्लोकों के माध्यम से तीन मुख बातें सामने आती हैं। पहला-”तेरा ममत्व-मोह-असमंजस तुझे पाप की ओर ले जा रहा है। यह पलायनवाद एक महापाप है।” दूसरा “कर्त्तव्यपालन करते हुए मरना ही श्रेष्ठ है। मरकर स्वर्ग प्राप्त करना एवं संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगना-यही एक योद्धा का लक्ष्य होना चाहिए। इसीलिए तू कृत-निश्चय हो युद्ध के लिए खड़ा हो जा।” तीसरा हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुख के बारे में मत सोच। इनके द्वंद्व में फँसेगा, तो गिरेगा, तिरस्कृत होगा, निकृष्ट योनि को प्राप्त होगा। क्योंकि यह युद्ध तू पापकर्म के निमित्त नहीं-कर्त्तव्यकर्म के निमित्त कर रहा है, तू दृढ़ निश्चय होकर युद्ध के लिए तैयार हो जा।

अकारण परिजनों से मोह-कर्त्तव्य से दूर भागना- नैष्कर्म्य से जन्मा पलायनवाद, आलस्य-प्रमाद ये सभी वृत्तियाँ हमें पाप की ओर ले जाती है। हमें अपने लिए निर्धारित कर्म को देख देह से स्वधर्म आचरण में ही प्रवृत्त होना चाहिए। यह शिक्षण भगवान् के अड़तीसवें श्लोक तक दिए प्रतिपादन के माध्यम से हमारे समक्ष आता है। एक बात बड़ी स्पष्ट कही है योगेश्वर कृष्ण ने। अपने स्वधर्म से विमुख होना महापाप है। यदि हम सभी गायत्री परिजन इस बात को गाँठ बाँध यही सोच लें कि सन् 2000 की समाप्ति तक-इक्कीसवीं सदी का नवप्रभात आने तक, हमें अपने शरीर-मन की सभी तकलीफों को भूलकर गुरुकार्यों में तत्पर बने रहना है। जरा भी आलस्य-प्रमाद आड़े नहीं आने देना है, किसी भी कालनेमि की माया में न फँसकर मात्र अपने कर्त्तव्य को करते चले जाना है, तो न केवल इस देह से स्वधर्म आचरण संभव हो जाएगा-प्रतिकूल अवधि भी निकल जाएगी एवं हम ऐसे जमाने में पहुँच जाएँगे जहाँ तनिक-सा पुरुषार्थ भी हमें यश व कीर्ति के चरम शिखर तक पहुँचा देगा। इन दिनों महापूर्णाहुति का कार्य हमारे सिर पर है। सारे राष्ट्र में नीतिमत्ता-राष्ट्रीयता के जागरण का अलख जगाना है। यह युगधर्म किया ही जाना है। उससे विमुख होना महापाप है। यदि यही हमें संदेश मिल जाए तो बहुत बड़ी बात है।

भगवान् कहते हैं कि यही काम करते-करते यदि तुम अंतिम गति को प्राप्त भी हो जाओ तो कोई हर्ज नहीं, तुम्हें स्वर्ग मिलेगा। यदि जीवित रहे तो यश की पराकाष्ठा पर पहुँचोगे। यही बात तो हमें अपने सद्गुरुदेव भी समझा गए, तो फिर किस बात का असमंजस? परमपूज्य गुरुदेव ने सितंबर 1978 की अखण्ड ज्योति में लिखा है- “रिजर्वफोर्स के सैनिक बहुत दिन सो लिए, आलस्य कर चुके। कर्त्तव्य से विमुख होंगे तो उसका कल्याण न आज है, न कल।” यह वाक्य अपने आप में न केवल गुरुसत्ता की टीस बताता है, हमें अपना कर्त्तव्यकर्म भी समझाता है।

इसके पश्चात् के श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को कर्मयोग के परिप्रेक्ष्य में उसे किस बुद्धि को अपनाना चाहिए, यह समझाते हैं। वे कहते भी हैं कि अभी तक तो आत्मा-परमात्मा की, युगधर्म की ज्ञानयोगपरक बातें सुन रहा था, लेकिन अब इस प्रतिपादन को “कर्मयोग के विषय में सुन-जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू कर्मों के बंधन को भलीभाँति त्याग देगा अर्थात् सब प्रकार से नष्ट कर देगा (एवं फिर युगधर्म में प्रवृत्त हो जाएगा)।” (श्लोक-39 “बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि”)। इसी बात को आगे अच्छी प्रकार से समझाते हुए कहते हैं कि “इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात् बीज का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है। बल्कि इस कर्मयोगरूपी धर्म का थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्यु रूपी महान् भय से रक्षा कर लेता है।” (श्लोक 40)

आर्यधर्म-क्षत्रियधर्म की व्याख्या के तुरंत बाद वासुदेव ने अपने उपदेश की शैली बदली है। वे अर्जुन की कठिनाइयों-ऊहापोहों का पहला उत्तर संक्षेप में दे चुके हैं। अब वे दूसरे उत्तर की ओर मुड़ते हैं और उनके मुँह से जो शब्द निकलते हैं वे हम सबको साँख्य और योग में एक भेद बताते है-उस बुद्धि से योग में स्थित होकर कर्म किया जाता है, तो अर्जुन अपने कर्मबंधन को छुड़ा सकता है, यह उन्होंने उपर्युक्त 39वें श्लोक में समझाया।

यहाँ श्री अरविंद के ‘गीता प्रबंध’ के परिप्रेक्ष्य में इस जटिल पहली को थोड़ा समझ लें। “गीता मूलतः वेदाँत ग्रंथ है। वेदाँत के तीन सर्वमान्य प्रमाण ग्रंथों में एक गीता है। इसका इतना अधिक आदर है कि यह श्रुति न होते हुए भी लगभग तेरहवीं उपनिषद् के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके वेदांतिक विचारों के कारण इसके दर्शन पर एक विलक्षण समन्वय साँख्य व योग की छाप आ गई है। यह सिद्धाँत व व्यवहार का अद्भुत सम्मिश्रण है। गीता का यह ज्ञान कर्म को ज्ञान और भक्ति की नींव पर खड़ा करता है। गीता का साँख्ययोग एक स्वाभाविक आत्मविकास की प्रक्रिया पर आधारित है। गीता चाहती है कि कर्म के कुछ सिद्धाँतों का अवलंबन पर जीव अपना उद्धार करें। निम्न प्रकृति से दिव्यप्रकृति में आरोहण करें।” व्यावहारिक अध्यात्म के रूप में यही दिव्यज्ञान परमपूज्य गुरुदेव ने हमें दिया एवं दी जीवन जीने की कला-नरमानव से देवमानव बनने की दिशाधारा व सूत्र। इन्हीं सबको तो भगवान् ने इस श्लोकों में समझाने का प्रयास किया है।

भगवान् अर्जुन के मन का असमंजस क्रमशः धीरे-धीरे मिटा रहे हैं। जैसे कोई सर्जरी सोची-समझी नीति के अंतर्गत की जा रही हो। अर्जुन को पाप का डर है-दुख का डर है-नरक और दंड पाने का ईश्वर का डर है। परंतु इस महाभय से मुक्ति उसे तार सकती है, यदि वह भगवान् कृष्ण की बात को समझ लें, उन पर विश्वास कर ले। इसीलिए वे कहते हैं- “इस कर्मयोगरूपी महान् भय से तेरी रक्षा करेगा। स्वल्प साधन भी तुझे मुक्ति दिला देगा।” एक बार भी तूने इस मार्ग पर चलने का प्रयास किया जो देखेगा कि कोई भी कदम व्यर्थ नहीं गया। एक भी ऐसी बाधा नहीं मिलेगी जो तेरी प्रगति को अटका सके। कितनी निर्भीक प्रतिज्ञा है योगेश्वर श्रीकृष्ण की, जो बार-बार भयभीत-शंकित मन वाले अर्जुन को आश्वस्ति दिलाती है। गीता के इस प्रारंभिक उद्घोष के साथ यदि हम गुरुसत्ता के 1940 से अब तक चले आ रहे मार्गदर्शन को जोड़ लें तो लगेगा कि इस युग का महानायक युगकृष्ण हमें यही तो बताता आया है। गायत्री मंत्र रूपी साधना में स्वयं को प्रवृत्त कर उसका थोड़ा-सा भी साधन जीवन का कल्याण सुनिश्चित है। इसमें कहीं भी बीज का नाश नहीं, न उलटा फलरूप दोष ही है। यह भी बारंबार सबको समझाकर गुरुसत्ता ने करोड़ों व्यक्तियों की जीवन की दिशाधारा बदल दी। बुद्धि के सद्बुद्धि में बदलने की इस छोटी-सी चिनगारी ने एक महादावानल खड़ा कर क्राँति कर दिखाई है, इसे सहज ही समझा जा सकता है।

भगवान् यहाँ कहते हैं कि मानवी बुद्धि दो प्रकार की होती है (41 से 44वाँ श्लोक)। पहली बुद्धि की विशिष्टता है एकत्व, एकाग्र स्थिरता, केवल परम तत्त्व को समर्पित। दूसरी बुद्धि में कोई संकल्प नहीं, कोई एक निश्चय नहीं, वह जीवन और परिस्थिति से उठने वाली इच्छाओं के पीछे इधर उधर भटका करती है। गीता में बुद्धि शब्द आया है-मन की विवेक और निश्चय करने वाली समस्त क्रिया के परिप्रेक्ष्य में। इस प्रकार भगवान् व्यावसायिक और अव्यावसायिक दो प्रकार की बुद्धि के रूप में विश्लेषण करते हैं। बहुशाखा वाली, बहुधंधी, बहुत से व्यापारों में लगी बुद्धि अपने कर्त्तव्यकर्म की उपेक्षा करती है, यह भवान् यहाँ समझाने का प्रयास कर रहे हैं। बुद्धि को ऊर्ध्वमुखी और अंतर्मुखी करना ही हमारा कर्त्तव्य होना चाहिए-इस बात को समझाने के लिए भगवान् को इतना बड़ा स्पष्टीकरण अर्जुन को देना पड़ रहा है।

41वें श्लोक में भगवान् कहते हैं-

व्यवसायित्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन। ब्हुषाखा ह्नानन्ताष्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥

अर्थात् हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि तो एक ही होती है, किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती हैं।

हमें इसमें दो-तीन शब्दों को समझना चाहिए।-अस्थिर विचार वाले, विवेकहीन, सकाम, बहुत भेदों वाली व अनंत बुद्धि। पहले तीन शब्द उन मनुष्यों के लिए प्रयुक्त किए गए हैं, जो धर्म को कर्त्तव्यकर्म नहीं व्यापार मानते हैं। भगवान् से भी सकाम भक्ति करते हैं। कामना की पूर्ति हो तो भगवान हैं, नहीं तो नहीं हैं। ऐसे लोगों को विवेकहीन कहकर भगवान् ने उनकी बुद्धि अनंत अर्थात् बहुदिशा वाली, भटकने वाली, अस्थिर बताई है। आगे वे कहते हैं-

“हे अर्जुन! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परमप्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं, ऐसा कहने वाले हैं, वे अविवेकीजन इस प्रकार की जिस पुष्पित अर्थात् दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं, जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए नानाप्रकार की क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग तथा ऐश्वर्य में अत्यंत आसक्त है, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती।” (42 से 44 श्लोक)

एक प्रकार से उन्होंने आज के युग की समीक्षा ही कर डाली है। भोगवाद में लिप्त-देखने में बड़ी सुँदर शोभायुक्त वाणी कहने वाले किंतु ऐश्वर्य की कामना मन में रखे बैठे ऐसे व्यक्ति जिनका चित्त सदैव भौतिकवाद में ही लिप्त है-आत्मकल्याण की बात कैसे सोच सकते हैं। आज का बहुसंख्यक वर्ग चाहे वह तथाकथित धर्मपरायण भी माना जाता हो-इसी श्रेणी में आता है।

व्यवसायात्मिका बुद्धि को भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे- पटवारी बुद्धि जोड़-गाँठ न करके संपूर्ण कामनाओं का त्याग जो करे उसकी बुद्धि सही है। इसीलिए भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि “तू आसक्तिहीन होकर योगक्षेम को न चाहने वाला व स्वाधीन अंतःकरण वाला बन।” (45वाँ श्लोक) अप्राप्त की प्राप्ति का नाम है-’योग’ एवं प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम है ‘क्षेम’। इसी के लिए वे कह रहे हैं कि इसको न चाहकर स्वाधीन अंतःकरण वाला बन-व्यावसायिक बुद्धि को छोड़ सद्बुद्धि को ग्रहण कर एवं द्वंद्वों से रहित होकर अपने कर्त्तव्यकर्म में लग जा, साथ ही कर्मों के फल की कामना भी मत कर।

अब यहाँ हम गीता के के सर्वाधिक महत्वपूर्ण श्लोक पर आ जाते हैं जिसका गान युगों-युगों से किया जाता रहा है। कर्मयोग प्रधान-सांख्ययोग प्रधान कर्म लिए यह श्लोक हजारों वर्षों से जनचेतना का प्रेरणा स्रोत रहा है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सड्.ोऽस्त्वकर्मणि॥

अर्थात्- “तेरा कर्म करने में ही अधिकार है। उसके फलों में कभी नहीं। इसीलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।”

यहाँ से लेकर 53वें श्लोक तक जो विवेचना आई है, वह गीता का मर्म है, वास्तविक सार है, योग की सही अर्थों में व्याख्या है। भगवान् कह रहे हैं कि तुझे कर्म करने का अधिकार प्राप्त है, उनके फल मिले कि नहीं-नहीं मिले तो क्यों नहीं मिले-यह सोचने का जरा भी अधिकार नहीं। कई व्यक्ति गीता के इस वाक्य का महावाक्य भी कहते हैं। परंतु गीता का समझना हो तो उसके आदि से अंत तक विकासात्मक क्रम से उसे समझने का प्रयास करना चाहिए। गीताकार यहाँ कह रहा है कि मनुष्य कर्म का कर्त्ता नहीं है, त्रैगुण्यमयीशक्ति ही उससे कर्म कराती है और शिष्य को यह साफ-साफ देख लेना व शिक्षण ग्रहण कर लेना होगा कि कर्म का कर्त्ता वह नहीं है। जैसे ही हमें अपनी चेतना में यह अनुभूति होने लगती है कि हम अपने कर्मों के कर्त्ता नहीं हैं त्यों ही कर्म फलाधिकार के समान ही कर्माधिकार भी मन-बुद्धि से तिरोहित हो जाता है। तब कम्विषयक सारे अहंकार भी समाप्त हो जाते हैं। अगले अध्यायों में हम देखेंगे कि भगवान् अर्जुन को समझा रहे हैं कि साधक को त्रिगुणातीत हो अपने कर्म उस परमपुरुष की सत्ता में समर्पित करने होंगे, जिन्हें हम परमेश्वर कहते हैं। उनके संकल्प के साथ अपने संकल्प का तादात्म्य हो जाना होगा, उनकी चेतना से सचेतन होना होगा, उन्हीं को कर्म का निर्णय और आरंभ करने देना होगा। यह समर्पण की मनुष्य के लिए निर्धारित योग है-उसे नर से नारायण बनाने वाला, जीव से ब्रह्म के साथ एकाकार करने वाला महापुरुषार्थ है। उसकी शुरुआत यहाँ से होनी है, जिसे 47वें व फिर 48वें श्लोक में बताया है।

48वें श्लोक में भगवान् कहते हैं-हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्त्तव्य कर्मों को कर। समत्व ही योग कहलाता है।” -योगस्थः कुरु कर्माणि” -योग में स्थित होकर कमकर सड्.त्यकत्वा- आसक्ति को छोड़कर तथा “समत्वं योग उच्यते” जो कुछ भी कर्म किया जाए उसके पूर्ण होने और न होने तथा इसके फल मं समभाव रहने का नाम समत्व है एवं इसी को योग कहा गया है-यह तीन महत्वपूर्ण व्याख्याएं इस श्लोक में आई हैं एवं साँख्ययोग के मूल मर्म तक हमें ले जाती है। यदि हमें जीवन की किसी भी जटिलता का समाधान चाहिए, तो हमें ‘योगस्थ’ होकर कर्म करने की शैली सीखनी होगी। यही हमें श्रेष्ठ जीवन जीने वाला कलाकार, श्रेष्ठ व्यवस्थापक, श्रेष्ठ परिवार का अधिष्ठाता बना सकती है। लोकसेवी बनकर युगसाधना करना परमपूज्य गुरुदेव ने हमें सिखाया तो बार-बार कहा- योग में स्थित होकर अपने कर्म करो-भवबंधनों से आसक्ति को छोड़ो एवं समत्व का भाव मन में ले आओ। यदि हम घर पर रहकर परिवार चलाते हुए भी जीवन जीना चाहते हैं, तो यही सूत्र हमारे जीवन का मार्गदर्शक बन जाता है।

एक बड़ी विशेष बात श्लोक में आई- “सड्.त्यक्त्वा धनंन्ज्य” - हे धनंजय! तू आसक्ति छोड़कर कर्म कर। धनंजय अर्जुन का बड़ा प्रख्यात नाम है। पर यही पर भगवान ने उसे इस नाम से संबोधित क्यों किया? इसका प्रत्युत्तर बड़ा रोचक है। धनंजय का अर्थ है-धन का खजाना जीतकर अपने वाला विजय पुरुष। श्रीकृष्ण यहाँ पार्थ भी कह सकते थे। अर्जुन भी कह सकते थे, लेकिन जहाँ साधनों के प्रति आसक्ति छोड़ योग में स्थित होने की बात जा रही है, वहाँ कह रहे हैं धनंजय! तू खजाना जीतकर लाया था-तुझे सिद्धि प्राप्त है, वैभवशाली है-वीर है, पर इन सब भावों के प्रति आसक्ति छोड़कर कर्म कर। तू ‘समत्व’ को धारण कर। संतुलन-कर्म के पूर्ण होने व उसके फल में समभाव बनाए रखने में विश्वास रख। क्योंकि यही वास्तविक योग है। समत्व यानि संतुलन। अर्जुन बहुत ज्यादा ज्ञानी बनता है, पर ज्ञानियों जैसा आचरण नहीं है। अतिवादी न बनकर बीच के भाव में चलना ही श्रेष्ठ है एवं वह आसक्ति के भाव को छोड़े बिना आ नहीं सकता।

आगे भगवान् कहते हैं- “इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ़। जो फल के हेतु बनते है, वे अत्यंत दीन होते हैं।” (श्लोक 49/2) इस श्लोक में समबुद्धि शब्द बड़ा विशिष्ट प्रयुक्त हुआ है। बुद्धि में समत्व भाव लाना कोई खेल नहीं है। जो ऐसा कर लेता है वह युक्तपुरुष-स्थितप्रज्ञ बन जाता है, जिसकी व्याख्या साँख्ययोग के उत्तरार्द्ध के 18 श्लोकों में की गई है। भगवान् कहते हैं कि योगस्थ होकर किया जाने वाला कर्म न केवल उच्चतम होता है वरन् अत्यंत समझदारी से भरा, सांसारिक विषयों का प्रसंग आने पर भी अतिशक्तिशाली व अमोघ होता है कारण यह है कि इसमें सब कर्मों के स्वामी भगवान् का ज्ञान और संकल्प भरा होता है। इसीलिए भगवान् आगे कहते हैं-

तस्मा।ोगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्। -50/2

तू समत्व रूपी योग में ही लग। यह योग ही कर्मों में कुशलता का पर्याय है अर्थात् कर्म बंधन से छूटने का उपाय है। भगवान् कहते हैं कि ऐसी योगी जन्म बंधन से मुक्त हो परमपद को प्राप्त होते हैं (51/2)। इसके लिए वे अर्जुन को मोहरूपी दलदल से उबरकर आने के लिए नहीं कहते, लोक व परलोक संबंधी भोगों से वैराग्यप्राप्ति का आश्वासन भी उसे देते हैं (52/2)। यह योग प्राप्त कैसे हो, इसके लिए वे 53वें श्लोक में कहते हैं “भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त होगा अर्थात् तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा।” कितना सुँदर उत्तर अर्जुन की समस्त जिज्ञासाओं का है। कई उतार-चढ़ाव के बाद ममत्व भरी लताड़ के बाद योगेश्वर श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को ऐसी स्थिति में ले आए है। कि न केवल उसका शोक दूर होता चला जा रहा है, वह ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त योगी भी बनने की दिशा में अग्रसर हो रहा है। पर उसके प्रश्न अब जाग उठे हैं। वह जानना चाहता है कि ब्रह्म में दृढ़ प्रतिष्ठा योगी वह कैसे बने? इस प्रश्न व उसके उत्तर के साथ ही साँख्ययोग का तीसरा व अंतिम अति महत्वपूर्ण प्रसंग चालू होता है-स्थितप्रज्ञ के लक्षण, वह कैसा होता है, कैसे बोलता, कैसे चलता है, कैसा उसका आचरण होता है इत्यादि। ‘निश्चला’ बुद्धि की बात कह भगवान् ने उसकी जिज्ञासा जगा दी है। स्थितप्रज्ञ योगी के संबंध में विशद् व्याख्या व विवेचना इसके बाद आती है। देह से स्वधर्म आचरण से लेकर समत्व बुद्धि योग कर्म कौशल वाला योग की व्याख्या जब तक इस लेख में हुई है। इससे आगे हम अब नवंबर, अंक में पढ़ेंगे।


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