नवसृजन का आलोक (Kahani)

October 1999

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अपनी कूटनीति से महाभारत युद्ध में दुर्योधन ने शल्य को कर्ण का सारथी बनने के लिए सहमत कर लिया। कर्ण ने कहा था--यदि मुझे शल्य जैसा सारथी मिल जाये, तो एक अर्जुन तो क्या सैकड़ों अर्जुन जैसे वीरो को मर दूँगा।

पांडवों को मालूम हुआ कि मामा शल्य ने कर्ण का सारथी बनना स्वीकार कर लिया है। शल्य का सारथी बनना सचमुच ही पांडवों के लिए खतरे से खली न था बात कृष्ण को मालूम हुई। नीतिनिपुण कृष्ण ने शल्य से निवेदन किया- कर्ण का सारथी बनने के लिए आप वचनबद्ध है। युद्ध में कौरवों का साथ दीजिये, पर धर्मयुद्ध के लिए मात्र आप कर्ण को हतोत्साहित करते रहिये। शल्य ने कृष्ण का निवेदन स्वीकार कर लिया। इतिहासप्रसिद्ध है कि शल्य के हतोत्साहित करते रहने के फलस्वरूप ही कर्ण का मनोबल टूटता रहा, फलतः वह हरा और मारा गया।

आत्मविश्वासियों को ही ईश्वर का अनुग्रह मिलता है, पर वह प्राप्त होता है- एक ही कीमत पर। अपनी प्रमाणिकता सिद्ध करने पर प्रमाणिकता का अर्थ है- प्रभु का अनुशासन मानना-उनकी व्यवस्था में विश्वास रखना- जो भी कहे उसे बिना तर्क-वितर्क के मानना।

शरीर तथा आत्मा में परस्पर संवाद चल रहा था। शरीर ने कहा-मई कितना सुँदर हूँ, आकर्षक व बलवान हूँ। आत्मा बोली- तुम अपनी अपेक्षा मुझे अधिक सुँदर, आकर्षक व बलवान बना दो, तुम्हारी ये विशेषताएं मेरे सुँदर हुए बिना क्षणिक ही है। मुझे सुँदर बनाकर तुम भी शाश्वत सौंदर्य से युक्त हो जाओगे। किन्तु शरीर की समझ में कुछ न आया वह आकर्षणों में उलझा- जीवन समाप्त करता रहा। शरीर से आत्मा के विच्छेद का समय आ पहुँचा, अब शरीर को ज्ञात हुआ कि यदि आत्मा को भी उसने सुँदर बनाया होता, शक्ति दी होती तो उसका स्वरूप निखर गया होता- मरने के बाद भी उसे याद किया जाता। चलते समय आत्मा बोली- मई तो जाती हूँ। यदि तुम पहले से चेते होते, प्राप्त अधिकार का सदुपयोग कर अपने अंत को सुन्दर बनाते तो अमर हो जाते- महामानव कहलाते। शरीर सर धुनता रहा विदा हो गई आत्मा नया शरीर पाने को।

एक बार नारद को कामवासना पर विजय पाने का अहंकार हो गया था। उन्होंने उसे भगवान विष्णु के समक्ष भी अभिमान सहित प्रकट कर दिया। भगवान ने सोचा की भक्त के मन में मोह-अहंकार नहीं रहने देना चाहिए उन्होंने अपनी माया का प्रपंच रचा- सौ योजन विस्तार वाले अति सुरम्य नगर में शीलनिधि नामक राजा रहता था उसकी पुत्री परमसुन्दरी विश्वमोहिनी का स्वयंवर हो रहा था। उसे देखकर नारद के मन में मोहवासना जाग्रत हो गई। वे सोचने लगे की नृपकन्या किसी विधि उनका वरण कर ले। भगवान को अपना हितैषी जानकर नारद ने प्रार्थना की। भगवान प्रकट हो गये और उनके हितसाधन का आश्वासन देकर चले गये। मोहवश नारद भगवान की गूढ़ बात को समझ नहीं सके। वे आतुरतापूर्वक स्वयंवर भूमि में पहुँचे। नृपबाला ने नारद का बन्दर का-सा मुँह देखकर उधर से बिलकुल मुँह फेर लिया। नारद बार-बार उचकते-कूदते रहे। भगवान् विष्णु नरवेश में आये। नृपसुता ने उनके गले में जयमाला दल दी वे उसे ब्याह कर चल दिए। अपनी इच्छा पूरी न होने पर नारद जी को गुस्सा आ गया और मार्ग में नृपकन्या के साथ जाते हुए विष्णु भगवान को श्राप दे डाला भगवान ने मुस्कुराकर अपनी माया समेट ली। अब वे अकेले खड़े थे। नारद जी की आंखें खुली-की-खुली रह गई। उन्होंने बार-बार क्षमायाचना की। कहा- भगवान मेरी कोई व्यक्तिगत इच्छा न रहे, आपकी इच्छा ही मेरी अभिलाषा हो, लोकमंगल की कामना ही मेरे मन में रहे।

नारद भगवान से निर्देश-सन्देश लेकर जन-जन तक उसे पहुंचाने के लिए उल्लास के साथ धरती पर आये एवं व्यक्त के रूप एक नहीं अपितु समष्टि में संव्याप्त चेतनाप्रवाह के रूप में व्यापक बने। आज ध्वंस की तमिस्रा के मध्य जो नवसृजन का आलोक बिखरा दिखाई पद रहा है, वह इसका प्रतिफल है


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