अगर किसी को स्वर्ग की तलाश हो, तो वह इसे अपने पारिवारिक जीवन की खुशियों में पा सकता है। परिवार मनुष्य को सामाजिकता से जोड़ने वाली महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील कड़ी है। यही मनुष्य को त्याग और सहजीवन का पहला पाठ सीखने को मिलता है। पारिवारिक भावना ही मनुष्य को दूसरे की भावना का सम्मान करना व अपने मत के प्रति दुराग्रही न होने की शिक्षा देती है। यही अन्य जीव-जंतुओं से अलग मनुष्य की श्रेष्ठ भी सिद्ध करती है। परिवार में ही हर किसी को एक संरक्षण, भावनात्मक सुरक्षा व रागात्मक अपमान मिलता है अपने परिवार में मनुष्य का स्वयं को सुरक्षित महसूस करना इतना विशिष्ट है की परिवारविहीन मानव समाज की कल्पना ही स्वयं में प्रकृति विरुद्ध लगती है। इसमें बच्चे बूढ़े सभी एक-दूसरे सभी एक दूसरे के चुरक बनते हुए परिवार को लघु समाज का रूप देते हैं। अपने मन से भरे−पूरे इस माहौल में प्रेम, त्याग, सहयोग, आज्ञापालन, अनुशासन जैसे गुणों का अभ्यास एक सुगढ़ व्यक्तित्व का निर्माण करता है। यहाँ बच्चो को अपने आप उत्तम संस्कार मिल जाते हैं। अपनी क्षमता के अनुरूप काम करते उपनग एवं अल्पबुद्धि भी प्यार के हकदार बनते हैं। दुख कष्ट व् आपत्तियों से भरे समय को एक-दूसरे के सहारे बड़ी आसानी से पार कर लिया जाता है। पारस्परिक। सहयोग से कठिन-से कठिन- काम भी सहज हो जाता है। समाजशास्त्रियों के अनुसार पारिवारिक जीवन से बढ़कर मनुष्य को भावनात्मक संतुष्टि, संतृप्ति कहीं और मिलना संभव नहीं। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हर किसी को खुशियों का बराबर हक़ देने वाली परिवार संस्था आज स्वयं दुख्बरे दौर से गुजर रही है। पश्चिमी जगत में तो इसका दुःख-दुर्भाग्य चरम सीमा पर जा पहुँचा है। वहां के पारिवारिक विघटन की झलक हम बढ़ाते हुए तलाकों की संख्या से पा सकते है। यूरोपियन यूनियन स्टैतीस्टिकल ऑफिस द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार यूरोप में विवाह कम व तलाक अधिक हो रहे है। ब्रिटेन में विवाह करने वालों की संख्या में १६ प्रतिशत कमी आई है। यहाँ हर दो विवाह में एक पति-पत्नी तलाक ले लेते है। तलाक में एक-चौथाई शादी के ५ से ९ वर्षों के अन्दर व २० प्रतिशत बीस सालों के अंतराल में हो जाते है। तलाक के कारण अपने शिशुओं का एकाकी पालन करने वाली माताओं की संख्या १३ लाख तक पहुँच गयी है। ४० प्रतिशत कामकाजी महिलाओं को इसी वजह से अपने शिशुओं को मित्रों, रिश्तेदारों या बच्चाघरों में छोड़कर जाना पड़ता है। ऐसे अकेले माता-पिता जो अपने शिशुओं को पाल रहे है, ब्रिटेन में गत चार वर्षों में २ प्रतिशत तक पहुँच गए है। गत दो दशकों में इनकी संख्या दो गुनी बढ़ी है। पश्चिमी दुनिया के उन्नत देशों में ऐसे परिवार निरंतर कम होते जा रहे है, जहाँ एक ही छत के नीचे दादा-दादी से लेकर नाती-पोते तक सभी एक साथ रहते हो। १९९१ तक ब्रिटेन में दो व्यक्ति वाले परिवार सबसे अधिक प्रतिशत थे, जबकि से अधिक ३४ सदस्यों वाले परिवार मात्र २ प्रतिशत एवं या ४ व्यक्ति वाले परिवार १६ प्रतिशत व ५ सदस्य वाले परिवार कुल ५ प्रतिशत ही थे। हाल ही में आबादी गणना और सर्वेक्षण विभाग द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार कुटुँब सिकुड़ते जा रहे है व कम -से कम सदस्यों वाले परिवार बढ़ते जा रहे हैं।
पश्चिमी समाज में पारिवारिक मूल्यों के कारण सर्वाधिक परेशानी वहाँ के बुजुर्गों को हो रही है। अधिकांश वृद्ध स्त्री -पुरुष विशेष तौर पर बनाये गए ओल्डएजहोम में रहने के लिए मजबूर है। इतना ही नहीं वहाँ किशोरों की हिंसक कारगुजारियों व बच्चो के साथ अभिभावकों व रिश्तेदारों द्वारा किये जाने वाले यौन शोषण ने परिवार संस्था की यौन शुचिता व पवित्रता को तहस नहस कर दिया है।
बिना विवाह किये एक ही छत के नीचे रहने का चलन लम्बी दूरी तय कर चुका है। इन सारे प्रचालनों के साथ यौन संबंधों की उच्चश्रृंखला व सारी मर्यादाओं को पार करने वाली स्वच्छंदता ने पश्चिम के पारिवारिक मूल्यों को मृतप्राय सा बना दिया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार ब्रिटेन में प्रत्येक पांच जोड़ो में से एक जोड़ा बिना सादी में एक ही छत के नीचे जीवन व्यतीत कर रहा है।
पश्चिम में संतानोत्पत्ति में संदर्भ में भी अविवेकपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा ही। ज्यादातर बच्चे विवाहहीन युगलों द्वारा पैदा किये जा रहे है। ऐसे बच्चे अपने विकास में साथ जो मानसिक एवं भावनात्मक संत्रास भोगते है, वह मनोवैज्ञानिकों, एवं मनोचिकित्सकों की शोध का विषय बन चूका है। समाज विज्ञानियों के अनुसार परिवारों के बिखरने की सबसे बड़ी वजह जीवन विलासी बनते जले जाना है। वहाँ के समाजशास्त्रियों के लिए पारिवारिक मूल्यों की पुनः स्थापना अब एक मात्र विकल्प बचा है। जो मानवीय कुँठा,हिंसा,अवसाद व विलगाव से राहत दिला सकता है। ब्रिटेन के राजनेता इसलिए श्बैक टु द बेसिक श् का नारा बुलंद कर रहे है, जिसका निहितार्थ पारिवारिक मूल्यों की पुनः स्थापना से है।
अमेरिका में भी वहाँ का सबसे बड़ा मुद्दा यही बन चूका है। वहाँ पिता और पुत्र बतौर एक अमेरिकन बग्र कि जानते है। न पिता अपने बेकार बेटे का ख्याल करता है, न बेटा अपने बूढ़े माँ बाप की चिंता करता है वहाँ की सरकार को ही वे सब काम करने पड़ते हैं, जो हिन्दुस्तान में समाज स्वतः जी परिवार के माध्यम से करता है। छोटी बहन की शादी के लिए त्याग तपस्या करता है विधवा -वृद्ध आदि के पोषण की व्यवस्था घरवाले ही करते हैं। यदि यहाँ की स्थित अमेरिका जैसी हो जाये, भारत सरकार की पूरी सामर्थ्य भी इन लोगों को दो वक्त की रोटी उपलब्ध कराने में कम पड़ जाए। परिवार द्वारा मिलने वाली सामाजिक एवं भावनात्मक सुरक्षा की तो सरकारी सुरक्षा से तुलना भी नहीं की जा सकती।
आर्थिक क्षेत्र में अमेरिका को भी पछाड़ने वाले विश्व के धनाढ्य देशों में एक जापान में भी परिवार व्यवस्था संकट में है। वहाँ तलाक की परवर्ती बढ़ रही है। जापान के स्वास्थ्य एवं कल्याण मंत्रालय के अनुसार गत वर्ष वहाँ लगभग दो लाख छाये हजार तलाक हुए, जो की अब तक का एक रिकार्ड है यह १९९४ की अपेक्षा ७९५० अधिक है। मंत्रालय के अनुसार १९९९ से ही तलाक में बढ़ोत्तरी जरी है। भौतिकता की अतिशय वृद्धि के कारण परिवार की अपेक्षा व अवमानना का दुष्परिणाम यह है कि आज वहाँ स्कूली छात्रायें शौकिया वैश्या व्रती करने लगी है जापान के शिक्षा मंत्रालय ने औद्योगिक घरानों का आवाहन करते हुए कहा है कि कार्यरत कर्मचारियों को जल्दी घर जाने व अधिक अवकाश कि सुविधा की जाए, ताकि वे घर का अधिक ध्यान रख सके। शिक्षा विशेषज्ञों ने घर पर अभिभावकों कि उपस्थिति, उनके मार्गदर्शन व सान्निध्य को बच्चों के लिए अपरिहार्य बताया। उन्होंने घर को अभिभावकों व बच्चों के परस्पर मिलन, वार्ता, व सहयोग का केंद्र बनाने पर जोर दिया है।
विकसित देशों में परिवार में टूटन व -दरकन -विघटन का दौर वहाँ कि भौतिक प्रगति से उपजी भोगवादी संस्कृति से सुरू हुआ, वहाँ पिछली आधी शताब्दी में दौरान जो व्यापक भौतिक विकास हुआ, उसी के साथ वहाँ पर भौतिकता से प्रेरित जीवनदृष्टि व जीवनशैली भी विकसित हुई। इसमें व्यक्तिगत संस्था कि खुली वकालत कि गई है। परिवार संस्था को व्यक्ति कि स्वतंत्रता को छिनने वाला एक उपक्रम सिद्ध करने वाले कई सिद्धांत गढ़े गए। परिवार कि विलक्षणता व मानवसभ्यता के विकास कि इसकी भूमिका समझे बिना इसके महत्त्व को खत्म करने का उन्माद शुरू हुआ,। व्यक्तिगत स्वतंत्रता उन्मुक्तता व श्रृंखला के चलते परिवार संस्था कि अंतहीन टूटन का सिलसिला चल पड़ा। शुरुआती दौर में कुछ लोग ऐसी जगह आ गए, जहाँ सिंगल पेरेंट फैमली श्को भी बड़ी मुश्किल से मान्य किया जा सका। यह उन्माद यहाँ तक पहुंचा कि अब तो वहाँ सेम सेक्स फैमली अर्थात् समलैंगिक परिवार भो होने लगे है। भौतिक प्रगति, वैज्ञानिक प्रगति के साथ साथ पनपा यह पारिवारिक एवं भौतिक पतन अमेरिका का जापान जैसे देशों के बाद अब विश्व के दूसरे देशों पर भी सर चढ़कर बोल रहा है।
साम्यवादी देशों ने तो पहले ही परिवार को कृत्रिम व्यवस्था करार दे दिया था। इसकी अवहेलना, उपेक्षा करके वहाँ कम्युनो कि स्थापना कि गई। वहाँ पश्चिम कि तरह पारिवारिक बिखराव कठोर नियमों व कई तरह के प्रतिबंधों के चलते शुरुआत में समझा नहीं जा सका। लेकिन आज जब सोवियत संघ का पतन हो चुका है, इसकी स्थित भीतर से बुरी तरह टूट चुकी है। वहाँ के सामाजिक बिखराव कि भयावहता को देख -समझकर स्थित का आँकलन किया जा सकता है। एक सर्वेक्षण के अनुसार रूस में तलाकों कि संख्या शादियों कि संख्या से एक तिहाई बढ़ गई है १० लाख बच्चे ऐसे परिवार में रहते है, जहाँ या तो सिर्फ माँ है या तो सिर्फ पिता। ५ लाख से ज्यादा बच्चे अविवाहित माता पिता कि संतान है
चीन में भी परिवार व्यवस्था कि हालत ठीक नहीं है। यहाँ जनसँख्या नियंत्रण के लिए एक संतान के सिद्धांत को कठोरता से लागू किया गया है, किन्तु इस नियम के पचास वर्षों बाद इसके सामाजिक दुष्परिणाम दिखाई देने सुरू हो गए है। आज चीनी समाजशास्त्री
इसके लिये बेहद चिंतित है एक संतान के नियम से वहाँ की परिवार व्यवस्था काफी ध्वस्त हो चली है और ऊपर से पश्चिम प्रभाव ने इस प्रक्रिया की तीव्रता कर परिवारसंस्था को दयनीय स्थिति तक पहुंचा दिया है।
पश्चिमी जीवन शैली के विश्व -व्यापी प्रभाव के चलते पारिवारिक विघटन के दौर से भारत भी अछूता नहीं रह पाया है। भारत में संयुक्त परिवार जिस तेजी से बिखर रहे हैं, उससे यह शंका पैदा हो रही है कि हमारा हश्र भी पश्चिम जैसा ही न हो जाए। पिछले दिनों श्युनेतेड न्यूज ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत में तलाक के मामले तेजी से बढ़ रहे है, जो परिवारों के बिखराव का सूचक है। महानगरों यह स्थिति बद्तर है जो की परिवारों के बिखराव का सूचक है। जो की भोगवादी जीवनशैली के अन्धानुकरण में सबसे आगे है। दिल्ली के न्यायालय में १९६० के दशक में दाम्पत्य सम्बन्ध विवाद के प्रायः १.२ मामले आ रहे है गत वर्ष दिल्ली में ऐसे लगभग ८५०० मामले आए थे, जोकि गत दशक के मुकाबले दो गुना से भी अधिक है। गत दस वर्षों में पंजाब व हरियाणा में तलाक सम्बन्धी मामलों में १५ प्रतिशत वृद्धि हुई है। केरल जैसे सार्थक व शिक्षित प्रान्त में यह वृद्धि दर गत वर्षों में ३५ प्रतिशत है।
परिवार संगठन में परम्पराओं का महत्व कितना है इसका प्रमाण चेन्नई व कलकत्ता के उच्च न्यायालय की रिपोर्ट में देखा जा सकता है। वहाँ गत वर्ष दस वर्षों में तलाक सम्बन्धी मामलों में क्रमशः केवल १० से १५ प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ज्ञात ही की तमिलनाडु एवं पश्चिम बंगाल परंपराओं के गढ़ माने जाते है पारिवारिक झगड़े निपटने के लिए परिवार न्यायालय, मैरेज ब्यूरो परिवार सलाह केन्द्रों की संख्या बताती है की भारत में पारिवारिक संकट के बदल मंडराने लगे हैं।
आधुनिक, उपभोक्तावाद और स्वच्छंदता के चलते अपने देश में परिवार टूटने का कर्म तेजी से बढ़ रहा है। हमारे महानगरों अमेरिका, जापान व यूरोप की खानी दुहरा रहे है। उदारीकरण के बाद तो भारत में यौन सम्बन्ध उच्छृंखलता के दायरे में प्रवेश कर रहे है। अकेले दिल्ली में १५०० किशोरियों के गर्भपात करवाने की जानकारी मिली है। इनमें प्रायः सब की सब अविवाहित थी। यौनसंबंधों की यह उच्छृंखलता सीधे-सीधे पारिवारिक मूल्यों की मृत्यु का शोकसंदेश देती है, क्योंकि स्वच्छंद यौनाचार के नियंत्रण के लिए ही प्रधानतया विवाहसंस्था का निर्माण किया गया था।
टूटने की यह प्रक्रिया महानगरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि छोटे नगरों, कस्बों यहाँ तक की गांवों तक इसकी गूँज सुनाई देने लगी है। व्यक्ति अधिक आत्मकेंद्रित व सुविधाभोगी होता जा रहा है। भौतिक के नशे में वह मदमस्त है भोगवाद की आँधी हमारी संस्कृति व संस्कार को ध्वस्त करने पर तुली है। हमारे आदर्श एवं जीवन मूल्य बिखर रहे है। परिवार संस्कार आरोपण की पाठशाला थी, लेकिन स्वच्छंदतावादी व्यक्ति के लिए तो यह उसकी आजादी में बाधक ही है।
युवा पीढ़ी पारिवारिक भावनाओं के अभाव में लगातार भटकाव की ओर बढ़ चली है। परिवारों के टूटन पर समाज की प्रथम इकाई है। इकाई के टूटने पर समाज रूपी ढांचे का बना रहना कैसे संभव है? समाज की स्थिरता व प्रगतिशीलता तो परिवार पर ही टिकी है। इससे भी महत्वपूर्ण भूमिका है, व्यक्ति को शिक्षा एवं संस्कार देकर उसे नररत्न का रूप देने में। इसलिए जरूरी यही है की बिना देर लगे पारिवारिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की दिशा में ठोस कदम उठाए जाए। ध्यान रहे -नव युग निर्माण का अनिवार्य कार्यक्रम पारिवारिक जीवन में भौतिक सुधार करके, संवेदना एवं संस्कारों को बढ़ावा देकर हम एक सामयिक व सार्थक कदम बढ़ा सकते है।