पिरामिड शवगाह नहीं, साधनास्थली थे

October 1999

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पिरामिड वस्तुतः क्या थे और क्यों बनाये गये? इस सम्बन्ध में विवाद का अंत नहीं; पर यदि उक्त शब्द की व्युत्पत्ति की ओर ध्यान दे, तो काफी कुछ संकेत इसके मूल उद्देश्य के सम्बन्ध में मिल जाता है। यह ग्रीक भाषा के श्पायराश् अर्थात् अग्नि तथा मिड अर्थात् मध्य के मेल से बना है। इस प्रकार पिरामिड का अर्थ हुआ- अग्नि ऊर्जा मध्य। यह वास्तव में इसी ऊर्जादोहन के माध्यम थे, इसलिए उन्हें काफी वैज्ञानिक ढंग से बनाया और खड़ा किया गया था।

ये पुरानिर्माण कितनी सटीक वैज्ञानिक गणनाओं पर आधारित थे, इसका अनुमान उनके ज्यामितीय अध्ययनों से सहज ही लग जाता है। वैज्ञानिकों ने जब मिस्र में स्थित गीजा के श् ग्रेट पिरामिड श् का अध्ययन किया, तो उससे कई आश्चर्यजनक वैज्ञानिक तथ्य प्राप्त हुए, जो इस बात को प्रमाणित करते है कि तब के लोगों का ज्ञान साधारण नहीं था। उसके आधार का क्षेत्रफल निकलकर ऊंचाई के बारह गुना संख्या से भाग देने पर जो योगफल प्राप्त होता है, वह गणितीय स्थिराँक श् पाई श् के मान ( ३ण्१४३ )के बराबर पाया गया यह केवल संयोग नहीं हो सकता। इसी प्रकार उसकी ऊंचाई को लाख गुना करने पर पृथ्वी से सूर्य कि दूरी ९ करोड़ ३० लाख मील प्राप्त होती है। स्पष्ट है सूर्य कि ऊर्जा कुल दूरी के लाखवें हिस्से अधिक सकेंद्रित होती है। पिरामिड के मध्य का उत्तर-दक्षिण अक्ष सम्पूर्ण पृथ्वी को बिलकुल दो भागो में बाँटता है, साथ ही पृथ्वी के जल और स्थल दोनों को ही ठीक आधा क्र देता है। इसका मतलब यह हुआ कि इसके निर्माताओं को पृथ्वी का गोलाकार होना सुनिश्चित रूप से ज्ञात था, तभी तो अचूक गणितीय गणनाओं से पिरामिडों का निर्माण संभव हुआ। इस निर्माण में एक आश्चर्यजनक बात यह भी है कि पिरामिड गुरुत्वाकर्षण केंद्र के ठीक ऊपर स्थित है। गीजा के ग्रेट पिरामिड का पदाधार ६३५६०० मीटर है, जो पृथ्वी के अर्धव्यास का ठीक दसवाँ भाग है। आधुनिक मीटर इसका चालीसवाँ हिस्सा है। नौवीं-दसवीं शताब्दी तक नापप्रणाली में पुरातमीटर ही प्रचलन में था। इससे उनकी उच्चस्तरीय नापपद्धति का पता चलता है। वर्ष में ३६५ दिन होते है इसका सौ गुना कर उसमें एक दिन के चौबीस घंटे जोड़ गति के अंत में सूर्य जिस बिंदु तक पहुँच वापस लौटता है, उसको श् वसंत संपात श् कहते है। सूर्य २१ जून को इस संपात बिंदु पर पहुँचता है। प्रत्येक पिरामिड का दरवाजा इसी बिंदु की ओर होना निश्चय ही किसी विशिष्ट उद्देश्य की ओर इंगित करता है।

इन सब तथ्यों के आधार पर यह कहना गलत न होगा की यह ने पर योग ३६५२४ प्राप्त होता है। यह ( मीटर में ) पिरामिड के आधार की परिधि है। पिरामिडों के दरवाजे सर्वत्र पूर्वाभिमुख है। इसे अकारण नहीं कहा जा सकता। संरचनाएँ गृह-नक्षत्रों की स्थिति का गणितीय ज्ञान ध्यान में रखकर निर्मित की गयी होंगी। प्राचीन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि तत्कालीन मिस्त्री गणितज्ञ ड्रमहाटेप ने ईसा पूर्व ४२२९ वर्ष का विस्तृत पंचाँग तैयार कर उसमें ३६५ दिनों कि गणना की थी। इतना अचूक गणित उसने कैसे किया होगा? यह अब भी रहस्यमय है, कारण कि इस प्रकार कि गणनाएं आकाश में ग्रह-नक्षत्रों को देखकर ही प्रायः कि जाती है। काहिरा ( मिस्र ) के आकाश में मात्र श् व्याधि नक्षत्र श् ही दिखलाई पड़ता है, वह भी इतना सुस्पष्ट नहीं, जितना कि अन्यत्र खी से दिखाई पड़ता हो। ऐसे में उस अस्पष्टता के बावजूद इतना त्रुटिहीन पंचाँग तैयार कर लेना आसान है। यह भी विदित तथ्य है कि इमहाटेप के पश्चात् इतने सुविकसित पिरामिड कभी नहीं बने।

कुछ अध्येताओं ने पिरामिडों की व्याख्या मिस्त्री वेधशालाओं के रूप में की है। अरबों की भी ऐसी ही मान्यता थी, किन्तु उनके इस मत को महत्व नहीं मील पाया। बाद में ब्रिटिश ज्योतिर्विज्ञानी रिचर्ड एंथोनी प्राक्टर ने एक पुस्तक लिखी, नाम था- श् दी ग्रेट पिरामिड-आर्ब्जवेटरी, टाम्ब एंड टेम्पल श्। अपनी उक्त पुस्तक में विद्वान लेखक ने पिरामिड के ज्योतिर्विज्ञान से सम्बंधित कितने ही रहस्यमय पक्षों को उजागर किया है उनका कहना है कि पिरामिडों का निर्माण ठीक भूमध्य रेखा पर उत्तरी-दक्षिणी भू-अक्ष पर हुआ है, जहाँ से उत्तरी ध्रुव की ओर के ग्रह-नक्षत्रों एवं तारों की दूरी, स्थिति एवं गति की गणना तत्कालीन ज्योतिर्विद् करते होंगे। अंदर की गहरी सुरंगें ठीक ध्रुव तारे के सीध में है, ताकि किरणों के व्यतिपात कोण को नापा जा सके। वास्तव में यह सुरंगें प्रकाश के परवर्ती कोण ( २६ डिग्री १७ मिनट ) के अनुरूप धरातल से नीचे खोदी गयी थी। आरोही और अवरोही सुरंगों की संरचना आपाती और परवर्ती कोणों के अनुसार की गई है। धरती के नीचे पिरामिडमध्य २०० फुट गहरे सुरंगनुमा यह अंधकूप निर्माताओं के खगोलीय ज्ञान की ओर संकेत करते है। यह भी एक रहस्यमय तथ्य है कि पिरामिड भूतल के ऊपर अपनी सम्पूर्ण ऊंचाई जितनी ही भूगर्भ में भी स्थित होते है अर्थात् धरातल के ऊपर उसकी जितनी ऊंचाई होती है, भूमि के अंदर के निर्माण कि गहराई भी उतनी ही होती है। अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि पिरामिड कि रचना में गणितीय स्थिराँक श् फाई श् के मान का भी प्रयोग हुआ है। इसके द्वारा पिरामिड कि भुजाओं का अनुपात होता है। यह १.६१८ के बराबर है।

यह तो पिरामिड कि निर्माण सम्बन्धी विशेषताएं हुई। अनुसंधानकर्ताओं ने जब उसके भीतर के वातावरण का अध्ययन-विश्लेषण करना शुरू किया, तो उन्हें यह जानकर घोर आश्चर्य हुआ कि वहाँ कोई अद्भुत किस्म कि ऊर्जा विद्यमान है। सन १९७८ में नोबेल पुरस्कार विजेता लुई अल्वारेज ने कास्मिक काउंटर मशीन से इस ऊर्जा को नापने का प्रयास किया था, पर वे सफल नहीं हो सके। उनका उक्त यन्त्र वहाँ आते ही निष्प्रभावी हो गया। बाहर निकलते ही वह उपकरण पुनः क्रियाशील हो उठता था, किन्तु पिरामिड परिसर एवं उसके अंदर वह न जाने क्यों निष्क्रिय हो जाता था। मूर्द्धन्य भौतिकीविद् डॉ. अमर गोहेड ने इस बात कि पुष्टि की है कि पिरामिड में पदार्थविज्ञान के नियम कारगर नहीं होते। कनाडा, आन्टेरियो के शोधकर्मी डॉ. मार्शल मकलुहाल ने भी पिरामिड ने भी पिरामिड सम्बन्धी अपने शोधनिष्कर्ष में यही कहा है कि पिरामिड में ज्ञात इलेक्ट्रोमैग्नेटिक शक्ति से भिन्न कोई अन्य शक्ति कार्यरत है।

पिरामिड के इन वैज्ञानिक पहलुओं को देखते हुए शोधकर्मी वैज्ञानिकों का मानना है कि विज्ञान के अगणित तथ्यों पर आधारित यह संरचनाएं शवगाह नहीं हो सकती। उनके पीछे का प्रयोजन निश्चित रूप से कहीं अधिक श्रेष्ठ और उच्चस्तरीय रहा होगा। उनकी मान्यता है कि यह या तो उपासनागृह रहे होंगे या फिर वेधशाला जैसे उद्देश्य कि पूर्ती कि जाती रही होंगी अथवा एक साथ दोनों कार्य पूरे होते होंगे। वे मानते है कि उनके अंदर जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा व्याप्त है, वह साधारण नहीं है। उसमें दिव्य रूपांतरण कि क्षमता विद्यमान है।

इसी मत का समर्थन करते हुए मैनमे पामर हाल ने अपनी रचना श्दी सीक्रेट टीचिंग्स ऑफ एजेज श् में लिखा है कि पिरामिड में सामान्य व्यक्ति प्रवेश करता था; किन्तु वहाँ थोड़े दिन रहकर जब उससे बाहर निकलता था, तो वह ऐसी आध्यात्मिक चेतना से ओत−प्रोत और अनुप्राणित होता था, जिसे उत्कृष्ट और उदात्त कहना चाहिए। वे यह मानते है कि ये समग्र व्यक्तित्व को रूपांतरित करने वाले आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्र के रूप में प्रयुक्त होते होंगे।

इसके अतिरिक्त इनके रचनाकाल से भी इस धारणा को बल मिलता है कि यह मिस्र के फ़राओ शासकों के कब्रगाह नहीं थे और न वे निर्माता ही थे। सन १९६४ में प्रकाशित अपने शोधप्रबंध श् दि पिरामिड ऑफ इजिप्ट श् में शोधकर्ता आई, ई. इस. एडवर्ड्स ने ३१०० ईसापूर्व से ३३२ ईसापूर्व के ऐतिहासिक कालखंड की देन है, जबकि वैज्ञानिक विधियों से जब इनका कालनिर्धारण किया गया, तो यह उससे कहीं अधिक प्राचीन पाए गये। ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता वाल्टर एमरी ने स्पेक्ट्रोग्राफ यंत्र से गीजा के ग्रेट पिरामिड के पत्थरों का परीक्षण कर उन्हें ग्यारह से पंद्रह हजार वर्ष पुराना बताया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के बोडलेइन ग्रंथागार में एक अति प्राचीन मिस्त्री ग्रन्थ है, जो भोजपत्रों में लिखा गया है। इसके लेखक अबू अल मसूदी ने लिखा है कि पिरामिडों का निर्माण जलप्रलय से पूर्व हुआ है। इतिहासवेत्ता जलप्रलय को लगभग १५ हजार वर्ष पुराणी घटना मानते है। इससे भी विदित होता है कि इनके वास्तविक निर्माता फ़राओ सम्राट नहीं है।

अरबी विज्ञानवेत्ता अबू जेद अल बल्खी ने कार्बन-१४ विधि का इस्तेमाल कर पिरामिडों कि आयु लगभग ६३ हजार वर्ष बताई है। यहाँ डेनिस स्टेनफोर्ड और प्रो. टाम ड़ीलेहे का महाभिनिष्क्रमण सम्बन्धी नवीन मत ध्यान देने योग्य है। उन्होंने पूरा आवासीय धन्चो, अस्थि-पिंजरों, भाषाई इतिहास और अनुवांशिकीय साक्ष्यो के आधार पर उस प्रचलित धारणा का खंडन किया है की एशियाई लोग बोरिंग की खाड़ी होते हुए अब से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व अमेरिका आकर बसे। केंटुकी विश्वविद्यालय के पुरातत्ववेत्ता प्रो. टाम ड़ीलेहे कहते है कि चिली में ३३ हजार साल पहले भी लोग रहते थे, बल्कि उनका तो यहाँ तक कहना है कि इससे भी बहुत पूर्व एशियाई लोगों का महाभिनिष्क्रण अमेरिका कि ओर आरंभ हो चुका था। वे इसे भी निर्द्वंद होकर स्वीकारते है कि ९ हजार वर्षों के से अवरुद्ध बोरिंग जलडमरूमध्य में विशाल हिमखंडों से आच्छादित अवरोध भी इस महानिर्गमन को बंद नहीं कर सका। स्थिमसोनियन इंस्टीट्यूट के पुराविद डेनिस स्टेनफोर्ड इस निर्गमन को तीन-चार चरणों में घटित हुआ मानते है यहाँ अबू जेद अल बाल्खी और टाम ड़ीलेहे के निष्कर्षों में काफी समानता है। यह भी इसी बात कि ओर संकेत करते है कि पिरामिडों के सृजेता प्राचीन मिस्त्री नहीं, कोई और थे यह कोई और कौन हो सकते है? इस सम्बन्ध में बिल शूल और एड पेटिट का कथन उल्लेखनीय है। वे अपने ग्रन्थ श् सीक्रेट पावर्स ऑफ पिरामिड श् में लिखते है कि इस धरती पर गणितविद्या के जनक के रूप में यूनानियों कि ख्याति सिर्फ इसलिए है कि उन्होंने अनजानी अति प्राचीन सभ्यता के विज्ञान से कुछ क्षुद्राँश पा लिया और आधुनिक दुनिया के वैज्ञानिक मसीहा बन बैठे। शास्त्रीय सिकंदरी यूनान को वे कुछ ज्ञानबूँदें ही मिली, जो मिस्र में न जाने कहाँ से आयें मुट्ठी भर ज्ञानियों कि पोटलियों से रिस गई। त्रिकोणमिति और ज्यामितिक वास्तुविद्या के आधार पर प्राचीन मंदिर और पिरामिड बनाने वाले अनजाने प्रवासी यही लोग थे।

लेखकद्वय के इस कथन द्वारा प्रकाराँतर से टाम ड़ीलेहे कि मान्यता को ही समर्थन मिलता है। स्पष्ट है, यह अनजाने प्रवासी और कोई नहीं, विश्व भर में ज्ञान का अलोक भैलाने वाले भारतीय ऋषि ही थे, जिनके पास दिव्य अतीन्द्रिय क्षमताओं के साथ-साथ उच्चस्तरीय पदार्थज्ञान भी था। वे अध्यात्मविद्या के भी निष्णात थे और पदार्थविद्या वास्तुविद्या में भी प्रवीण-पारंगत। मत्स्यपुराण के २५२वे अध्याय में इसका स्पष्ट उल्लेख है-

भृगुरत्रिर्वसीष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरंदरः॥

ब्रह्मकुमारो नंदिशः शौनको गर्ग एव च। वसुदेवोअनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पति॥

अष्टादशैते विख्याता वास्तु शास्त्रों पदेशकाः। संक्षेपेणोपदिष्टं यन्मनवे मत्स्यरुपिणा॥

तब वास्तुशास्त्र के यह अट्ठारह उपदेष्टा आचार्य थे; किन्तु इनमें शिरोमणि दो ही थे- विश्वकर्मा और मय। विश्वकर्मा देवशिल्पी थे, जबकि दानवों के वास्तुशास्त्री मय थे। इन दोनों ने कितने विलक्षण यंत्र-उपकरणों और अद्भुत भवनों का निर्माण किया था, इसका उल्लेख विगत अंक में हो चुका है। अतः उनके लिए पिरामिड सरीख संरचनाएं गढ़ना कोई कठिन कार्य नहीं था। उनमें प्रयुक्त टनों वजनी शिलाखंडों को उठाना, चिनना और उन्हें सुदूर पर्वतों से वायुमार्ग द्वारा निर्माणस्थल तक लाना उनके लिए अत्यंत सरल था। यह भी प्रमाणित हो चुका है कि मैक्सिको की मय सभ्यता और भारतीय मय सभ्यता एक ही परंपरा की अंग है। इक्वाडोर से लेकर पेरु तक इसी की शाखा श् इन्का श् सभ्यता के रूप में फैली हुई थी। यह सब साक्ष्य टाम ड़ीलेहे के दावे की ही पुष्टि करते है। अतएव यह मानने में हर्ज नहीं की पिरामिड भारतीय वास्तु-शास्त्र का अंग है एवं इनके रचनाकार विशुद्ध भारतीय थे। शुल्ब्सूत्र तथा ब्रह्मसूत्र का रचनाकाल भी इतिहासवेत्ता इसी के आसपास मानते है। ज्ञातव्य है कि यह वास्तुरचना विज्ञान के आधारस्तंभ है। इनसे भी पिरामिडों के भारतीय निर्माण होने का संकेत मिलता है।

इतना स्थापित होने के बाद अब यह प्रश्न उठता है कि आखिर इनके निर्माण कि आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या ये शवगाह थे? अब तक के अध्ययन-अनुसन्धान से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यह मृतशरीर को सुरक्षित और संरक्षित करने वाली संरचनायें नहीं थी। कदाचित इनका प्रयोजन अधिक उच्चस्तरीय था। यह क्या हो सकता है? काफी माथापच्ची करने के बाद शोधकर्मी वैज्ञानिक इस निश्चय पर पहुँचे है कि पूर्व पुरुषों ने ये उपासनास्थल के रूप में बनवाए थे, जहाँ सुरक्षित ध्यान-साधना एवं पूजा करते हुए ब्रह्माँडीय ऊर्जा और चेतना से सम्बन्ध साधा जा सके। कालान्तर में इन्हें कभी शव सुरक्षित और संरक्षित रखने का सर्वोत्तम स्थल समझकर शायद ऐसा किया जाने लगा हो, लेकिन केवल शवसंरक्षण के लिए इतनी विशाल, श्रम, समय एवं व्ययसाध्य संरचनाएं खड़ी करने की बात गले नहीं उतरती। शव सिद्धाँत को तब गहरा आघात लगा, जब अन्वेषकों को पिरामिडों का महीनों खाक छानने के बाद भी उसमें न कोई ममी मिली, न उनकी शवपेटिकाएं, न धन-दौलत ही।

ऐसे ही एक पिरामिड के शिलाखंडों को खलीफा हारुन अल रशीद के दुस्साहसी बेटे अब्दुल्ला अल मैमून ने सं ८२० में कुछ साहसी लोगों के साथ छेनी-हथौड़ों के द्वारा हटाने का जीतोड़ कोशिश की, लेकिन उसका वज्र-संकल्प उन प्राचीन शिल्पियों की कुशलता के आगे परास्त हो गया। अंततः एक स्थान पर तेजाब से पत्थर को गलाकर एक छोटा मार्ग बनाया गया। उसके द्वारा सब अंदर गये, पर महीनों भीतर की भूल-भुलैयों में चक्कर काटने के बाद भी कुछ हाथ न लगा- न शव, न संपत्ति। सब उलटे पैर निराश वापस लौटे।

तो फिर इस अवधारणा का कारण क्या है? विशेषज्ञों का अभिमत है कि कदाचित फराओ शासकों को महिमा-मंडित करने के लिए यह बात बनाई गई हो, अन्यथा प्राचीन मिस्त्रियों और उनके शरीर संरक्षण सिद्धाँत को इससे जोड़ने का कोई निमित्त नजर नहीं आता। इस प्रकार घूम-फिरकर बात वहीँ आ जाती है कि यह ब्रह्मचेतना से तादात्म्य स्थापित करने के दिव्यस्थल रहे होंगे। ऐसा मानने का कारण भी है। वैज्ञानिक बताते है कि उसके अंदर जो ऊर्जा संघनित और संकेंद्रित होती है, वह सामान्य इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्तर की नहीं है और न वह वैसा व्यवहार करती है। पल ब्रंटन ने गीजा के महँ पिरामिड में बिताई रात्रि के अनुभव की चर्चा करते हुए अपनी पुस्तक श् ए सर्च इन सीक्रेट इजिप्ट श् में लिखा है कि वहाँ किसी दिव्यचेतना कि उपस्थिति का स्पष्ट आभास मिलता है। इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक प्रयोग-परीक्षणों से भी यह बात सिद्ध होती है कि वहाँ कि ऊर्जा असाधारण स्तर की है। आस्ट्रियन वैज्ञानिक वर्न कैमरान का स्नानागार में तरबूज पर प्रयोग बहुत चर्चित रहा है। इसमें आश्चर्यजनक बात बात यह देखी गई कि स्नानघर कि सघन नमी भी तरबूज को पिरामिड के अंदर सूखने से नहीं रोक सकी। वह सिकुड़कर जरदालू के आकार जितना छोटा हो गया, पर स्वाद अद्भुत था। इस परिवर्तन का कारण जानने के लिए उन्होंने एक अभामापी उपकरण बनाया। इसके द्वारा जब पिरामिड अनुकृति के प्रभामंडल का अध्ययन किया गया, तो वे यह देखकर दंग रह गये कि उसके ऊपर उलटे पिरामिड आकार का आभामंडल था, जिससे बलधाराएँ निकलकर पिरामिड के आधारतल तक आती थी। इस दौरान उन्होंने यह भी नोट किया कि पिरामिड को उसके स्थान से हटा लेने के उपराँत भी कई दिनों तक ऊर्जा आवेश वहाँ यथावत बना रहता है।

पिछले दिनों रूसी वैज्ञानिकों ने भी पिरामिड के अंदर की ऊर्जा-प्रतिक्रिया को दर्शाने वाला एक प्रयोग किया। उन्होंने एक छह इंच लम्बी और दो-तीन पत्तियों वाली पौध को काँच के एक पिरामिड में गमले सहित रखा और उसकी प्रतिक्रिया को एक टाइमलैस कैमरे द्वारा वीडियो फिल्म बनाकर प्रदर्शित किया। देखा गया की पौधा पहले पूरब से पश्चिम की ओर घुमा, वैसे ही जैसे कोई नर्तक वाद्ययन्त्र की स्वर-लहरियों पर लहराता है। सर्वप्रथम वह धरती की ओर प्रणत हुआ, फिर दायें से अर्द्ध गोलाकार मुद्रा, पुनः पश्चिम की ओर मुड़कर सीधा हो गया और डोलने लगा। यह क्रिया हर दो घंटे पर देखी गयी, जबकि पिरामिड के बाहर के पौधों में इस प्रकार की कोई हलचल नहीं थी। जब गमले की पौध के निकट धरती पर एक स्वर्णखंड रखा गया, तो मनुष्य की भाँति उसकी स्वर्णलोलुपता स्पष्ट दिखलाई पड़ी। उसकी ओर झुककर उसने इसे प्रकट किया।

निर्माता ऋषियों को पिरामिड के अंदर की इस विलक्षण ऊर्जा का पहले से ज्ञान था। वे आत्मोत्थान के क्षेत्र में इससे दूसरों को लाभान्वित करना चाहते थे, इसलिए इन संरचनाओं को खड़ा किया। यह न तो शवगाह थे, न मिस्त्री निर्माण। इसकी तुलना में इन्हें ज्ञानप्रचारक भारतीयों की उपासनास्थली कहना ज्यादा तर्क और तथ्यसंगत होगा।


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