हमारी रात्रिचर्या कैसी हो

October 1999

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आयुर्वेद के अंतर्गत दिनचर्या के महत्वपूर्ण पक्षों के अंतर्गत कई प्रसंगों कि चर्चा पूर्व के अंकों में की जा चुकी है। आहारपक्ष पर विगत तीन अंकों में विस्तार से पाठकों ने जाना है। इससे आगे अब रात्रिचर्या कैसी हो संध्याकाल से प्रातः तक के नियमों-उपनियमों कैसे हो उस पर विवेचन इस अंक में। संध्याकालोचित आचरण से लेकर रात्रिकाल में करणीय सर्वकर्म यथा रात्रिभोजन, शयन, निद्रा अवम स्वपन, गर्भाधान, रजस्व्लाचार्य तथा ब्रह्मचर्यादि का पालन- ये सभी स्वस्थ वृत्त सम्बन्धी रात्रिचर्या के अंग है। इनका संक्षिप्त शास्त्रोक्त विवेचन इस प्रकार है -

एतानि प´्चकर्माणि संध्यायाँ वज्रयेद बुध॥ आहारं मैथुनं निद्राँ सम्पाठं गतिम्ध्वनि।

भोजनाज्जयते व्यधिर्मै थुनार्द्रभ्वैक्रितिः। निद्राया निःस्वता पठादा यु हनिर्गमातेर्भायम॥ प्रदोष पश्चिमौ यामौ वेदाभ्यासेन तौनयेत।

प्रहरद्वयं शयानो ब्रह्मभूयाय कल्पते। रात्रौ च भोजनं कुर्यत्प्रथमप्रहरंतारे॥

किंचीदुनं समशनीयाद दुर्जर तत्र वर्जयेत।

अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति साँयकाल भोजन, नींद, पढ़ना, और मार्गगमन इन पाँच कार्यों को त्याग दे, क्योंकि इस समय भोजन से व्याधि, मैथुन से गर्भ में विकार, नींद से दरिद्रता, पढ़ने से आयु की हानि अवम मार्गगमन से भय होता है। रात्रि के पूर्व और अंतिम प्रहरों को वेदाभ्यास में नियोजित करे। शेष दो प्रहरों में छह घंटे सोने वाला ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति करता है रात्रि के प्रथम प्रहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। भोजन दिन की अपेक्षा कुछ कम खाना चाहिए। देर से न पचने वाले गरिष्ठ पदार्थ न खाए जाए, तो स्वास्थ्य के लिए ठीक है।

उपयुक्त श्लोक किसी अतिरिक्त व्याख्या का मोहताज नहीं है। ऋषिगण बड़ा स्पष्ट कह गए है कि रात्रि के प्रारंभिक क्षणों में संभव हो तो सूर्यास्त से पूर्व या पश्चात प्रथम प्रहर में ही भोजन कर ले। यह विज्ञानसम्मत भी है। भोजन नलिका को पचाने हेतु पर्याप्त समय भी मिल जाता है। आज जीवन शैली आमूलचूल विकृत हो चुकी है। लोग प्रातः देर से उठकर ब्रेकफास्ट लेते एवं दोपहर का भोजन प्रायः दो-तीन बजे करते है। इसी कारण एवं आज इलेक्ट्रॉनिक युग में देर तक टीवी देखते हुए १-१२ बजे भोजन करने के कारण सारी शारीरिक मशीन ही गड़बड़ा गई है। जैनधर्म में सूर्यास्त के पूर्व भोजन लेने का प्रावधान है, ताकि संधिकाल के समय उत्पात मचाने वाले जीवाणु, कीटक भोजन के साथ अन्दर न चले जाए। कितना सटीक विवेचन रहा है ऋषिगणों का कि संधिकाल का तो विशुद्धतः साधनात्मक उपचारों में नियोजित कर ले, हो सके तो उसके पूर्व या बाद भोजन ले लें। छह घंटे कि गाढ़ी योगनिद्रा पर्याप्त है, यदि दिनभर का क्रम श्रम से भरा-द्वंद्वों से मुक्त है। अभ्यास किया जाए, तो संधिकाल में थोड़ा प्राणायाम-ध्यान का क्रम ठीक से बैठ जाने से इस निद्रा को रोज का एक क्रम बनाया जा सकता है। आज हिंसा व अश्लीलता से भरे टेलीविजन नेटवर्क जो हमारे अंतर्कक्षों तक पहुंचा गया है, से दो-दो हाथ होने के बाद किसी को योगनिद्रा तो क्या आएगी, भोगनिद्रा ही आएगी। सप्ताह में एक दिन मनोरंजन का रखा जा सकता है, किन्तु अभ्यास रात्रिचर्या का इसी क्रम से किये जाना चाहिए, जैसा की ऋषिगणों का निर्देश है।

हमारे आयुर्वेद के विद्वान् यह भी कहते है कि भोजन करने व सोने के मध्य दो-तीन का अंतर होना चाहिए। भोजन के पश्चात व सोने से पूर्व एक-एक घंटे के अंतर से कम-से-कम दो या तीन बार जल लेना चाहिए। इससे भोजन को पचाने में मदद मिलती है। रात्रि में अपच होने कि सम्भावना भी नहीं रहती, निद्रा भी ठीक आती है एवं प्रातः शौच भी साफ हो जाता है। सोने से पूर्व उष्ण पेय चाय या काफी भी नहीं लेना चाहिए। इससे निंद्रा प्रभावित होती है। अच्छी नींद न आने से प्रातः उठने पर शरीर में थकावट रहती है। स्नान तथा व्यायाम आदि करने का मन भी नहीं होता। ऋषिगण यह भी कहते है कि रात्रि में सोने से पूर्व पैरों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए। शीतऋतु में उष्ण जल से ग्रीष्म ऋतु में शीतल जल से। यदि नींद आने में थोड़ी कठिनाई हो तो सोने से पूर्व पैरों के तलवों में गौघृत या सरसों के तेल कि मालिश भी कि जा सकती है। इससे नींद ठीक आती है। किसी भी प्रकार के जुकाम-खाँसी आदि कि संभावना नहीं रहती।

महाभारत में वेदव्यास कहते है -

नक्तंचर्यांदिवास्वप्नमलास्यमपैशुनन्मदम। अतियोगमयोगमचश्रेयासोअथ्रीपरित्यजेत॥

अर्थात्-अपने हित की इच्छा रखने वाले को रात में जागरण, दिन में निद्रा, आलस्य, चुगलखोरी, नशा करना तथा आहार-विहार-निद्रा इत्यादि विहित कर्मों का अतियोग तथा आयोग-इनका वर्जन करना चाहिए।

इसे बात को अष्टाँग हृदय में इस तरह कहा गया है-

अतियोगमयोगम च अनुपायात प्रतिपदम सर्वधर्मेशु मध्यमाम॥ष्

निद्रा की परिभाषा क्या है? योगसूत्र बड़ी सुन्दर व्याख्या करता है। ष् अभाव-प्रत्ययावलम्बना वृतिनिद्रा। अर्थात् पदार्थ मात्र के अभाव का अनुभव जिसका आधार है, ऐसी जो चित्त की वृति है वही निद्रा है।ष् चरक के अनुसार निद्रा भौतिक शरीर के तीन उपस्तंभों में से एक है- त्रय उपस्तम्भा इत्याहारः स्वप्नौ ब्रह्मचर्यमिति। ष् आज न आहार पर किसी का ध्यान है, न निद्रा पर एवं न ही ब्रह्मचर्य पर, तो निश्चित ही रोगियों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक है इस पर इस सदी का अंत आते-आते अनिद्रा ( इनसोमिनिया ) के रोगी तो करोड़ों में है, जो नित्य नींद की गोली का प्रयोग करते है, जो कभी गाढ़ी निद्रा नहीं लाती, आलस्य व अस्वास्थ्य को और शरीर में ला विराजती है। काव्यमीमाँसा में कवि इसलिए कहते है- अच्छी गाढ़ी नींद शरीर के लिए परम आरोग्यप्रद होती है। ष् ( सम्यकस्वापों वपुषः परमारोग्याय ) सम्यक स्वापः यानी उचित काल पर उचित काल तक की निरस्वपन गाढ़ी नींद। श् परमारोग्या अर्थात् रोग में आरोग्य देने वाली एवं निरोग स्थिति में आरोग्यरक्षक।

इसी तथ्य को कवि इस प्रकार भी कहता है -

अर्धरोगहरी निद्रा अर्थात् निद्रा रोग हरण करने का आधा कम करती है।

चंडकौशिक के अनुसार -

चित्तं प्रसादयति लाघवमाददाति प्रत्यंगमुज्ज्वल्यती प्रतिभाविशेषम। दोषानुदस्यति करोति च धातु साम्य मानन्दमर्पयति योगविशेषगम्यम॥

अर्थात् ष् निद्रा चित्त में प्रसन्नता, शरीर में लाघव ( हल्कापन ) अंग-प्रत्यंगों में उमंग, बुद्धि में विशेष प्रकार की प्रतिभा उत्पन्न करती है। दोषों का नाश करती है। धातुसाम्य( निरोगता ) स्थापित करती है और योग विशेष से प्राप्त होने वाले आनंद भी प्राप्त करती है परन्तु ऐसा कौन-सा व्यक्ति होता है। अर्थात् ष् निद्रा चित्त में प्रसन्नता, शरीर में लाघव ( हल्कापन ) अंग-प्रत्यंगों में उमंग, बुद्धि में विशेष प्रकार की प्रतिभा उत्पन्न करती है। दोषों का नाश करती है। धातुसाम्य( निरोगता ) स्थापित करती है और योग विशेष से प्राप्त होने वाले आनंद भी प्राप्त करती है परन्तु ऐसा कौन-सा व्यक्ति होता है जिसे ऐसी निद्रा सुलभ हो सकती है उत्तर हमें चरक से मिलता है -

ब्रह्मचर्यरतेग्रा म्यसुखनिस्पृहचेतसः। निंद्रासंतोषतृप्तस्य स्वं कालं नातीव त्तते॥

अर्थात् ष् विद्याध्ययन में रत, विषयोपभोग से निस्पृह तथा संतोष तृप्त मनुष्य की निंद्रा अपने उचितकाल का अतिक्रमण नहीं करती है।ष् पद्मपुराण कहता है कि जितेन्द्रिय मनुष्य समय पर सोता है, सुख से सोता है और समय पर जागता है।

निद्राप्रसंग के अंतर्गत आयुर्वेद में रात्रि से सम्बन्धी कुछ नियम और बताए गए है- आयुर्वेद में सोने से पूर्व नेत्रों में अंजन का बड़ा महत्त्व बताया गया है।

चरक के अनुसार--

सौवीरमंजन नित्यं हितमक्षणोंः प्रयोजयेत। चक्षुस्तेज़ोम्यम तस्य विशेषाच्छालेष्मतों भयं॥ ततः शलेषमहरं कर्म हितं द्दषटेः प्रसादनम॥

समीक्षा- चूँकि नेत्र तेजस्वरूप है, अतः उन्हें श्लेष्मा ( जल ) से विशिष्ट भय रहता है, इसलिए कफनाशक कर्म नेत्र का प्रसादन करने में ( स्वस्थ बनाने में ) हितकर होते है। अतः नेत्ररोगों में कफदोष से अधिक रोगी होने का वर्णन है।

अंजन का ही एक दूसरा स्वरूप सुरमा है, जी यूनानी प्रभाव से भारत में आया है। यह कफनाशक होता है। गुलाबजल आँखों में डालकर सोने से निद्रा भी ठीक आती है व नेत्र भी स्वस्थ रहते है। शुद्ध मधु लगाने में कुछ जलन होती है, किन्तु यदि यह सहन किया जा सके तो मोतियाबिंद से काफी हद तक बचा जा सकता है। हमारी संस्कृति में कई प्रकार के काजल लगाने का प्रावधान है। काजल बनाने की आयुर्वेद सम्मत विधि यह है कि शुद्ध अरंडी के तेल में भिगोकर रुई कि बत्ती को जलती लौ के ऊपर काँसे का बर्तन लगा दिया जाए व उसकी कालिख इकट्ठी कर गोघृत तथा थोड़े से भीमसेनी कपूर में मिलाकर अच्छी तरह घुटाई की जाए। इसे काँच की शीशी में रखें एवं रात्रि को सोने से पहले बच्चे-बड़े सभी लगाएँ। इससे नेत्रों की सौंदर्य बढ़ता है। नेत्ररोग नहीं सताते तथा नींद अच्छी आती है। आजकल बने-बनाए काजल आते है। इनकी शुद्धि व औषधीय क्षमता संदिग्ध रहती है, अतः इन्हें न लगाया जाए व एक ही उंगली से सभी बच्चों को न लगाया जाए, नहीं तो संक्रमण सभी को फिल्ट चला जाएगा।

रात्रि में सोने से पूर्व दाँतों को साफ कर लेना चाहिए। पश्चिम में भी प्रायः सभी इस नियम का पालन करते है। इससे मुँह में ताजगी रहती है, नींद ठीक से आती है।

( सुभाष बोस बच्चे ही थे। माँ के बगल से उठकर जमीन पर जा सोए। माँ के पूछने पर उन्होंने बताया- आज अध्यापक कह रहे थे कि हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि थे जमीन पर सोते और कठोर जीवन जीते थे। मैं भी ऋषि बनूँगा, सो कठोर जीवन का अभ्यास कर रहा हूँ। पिताजी जग गए। उन्होंने कहा- जमीन पर सोना ही पर्याप्त नहीं है। ज्ञानसंचय और सेवासंलग्न होना भी आवश्यक है अभी तुम माँ के पास सो जाओ, बड़े होने पर तीनों काम करना।सुभाष ने अध्यापक की ही नहीं पिताजी की बात भी गिरह बाँध ली। आई सी. इस पास करके जब अफसर बनने की बात सामने आई तो उन्होंने कहा- मैं जीवन का लक्ष्य निश्चित कर चुका हूँ। मातृभूमि की सेवा करूंगा और महान बनूँगा बचपन का निश्चय उन्होंने मरणपर्यंत निबाहा। ऐसे होते है महामानव।


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