प्रेतों से भयभीत या सनकी

October 1999

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जीवन में थोड़ी बहुत सनक प्रायः प्रत्येक में देखी जाती है पर वह अस्थायी होती और जल्दी ही समाप्त हो जाती है,किन्तु कुछ ऐसे होते है,जिनका सम्पूर्ण जीवन ही अजीबोगरीब गतिविधियों में संलग्न होता और एक प्रकार से स्वेच्छाचार पैदा करता है। अस्त्यस्त चिंतन और उपयुक्त कार्य वाले ऐसे ही व्यक्ति वास्तविक सनकी है। समय-समय पर इस तरह के प्रसंग प्रकाश में आते रहते हैं।

ऐसी ही एक महिला सारा विनचेस्टर थी। वह कैलीफोर्निया की रहने वाली थी। पति का देहाँत हो जाने के बाद अपने ससुर के साथ रह रही थी। डेविड क्रोपे नामक यह व्यक्ति बहुत ही क्रूर किस्म का था। उसने अगणित हत्याएं की थी और लूट में माल से अपने को धनकुबेर बना लिया था। जब वह मरा तो उसके पास कई करोड़ की संपत्ति थी। अब उसकी स्वामिनी सारा बन गई ही इस अपार संपदा को पाकर वह खुश तो थी परन्तु उसे एक भय भी सता रहा था वह यह सोचकर परेशान थी जिन जिन व्यक्तियों से धन छीना गया है उनकी आत्माएं कही उसे तंग न करे। वह इनसे बचने के उपाय ढूंढ़ने में निमग्न रहती।

एक बार सारा मृतात्मा और परलोक विद्या से सम्बंधित एक पुस्तक पढ़ रही थी। उसमें आत्माओं से संपर्क करने उन्हें सहयोगी बनाने और उनके संत्रास से बचने के कुछ उपाय बताये गए थे। सारा महीनों तक उन कर्मकाँडी को करती रही; पर न तो मृतात्माओं से संसर्ग करने में सफल हो सकी,। हाँ उनके आतंक से वह अवश्य अब तक बची हुई थी। उपर्युक्त तरीके निष्फल हो जाने से वह कुछ परेशान - सी थी; पर इससे उसके चिंतन को एक आधार मिल गया था। अब वह बराबर उसी दिशा में सोचती रहती। एक दिन अचानक उसके मन में विचार आया की यदि प्रेतात्माओं के लिए उनके सुविधा जनक महल बना दिया जाए, तो शायद वह उनके कोप से बच सकती है बस फिर क्या था। उसने अपने विचार को क्रियान्वित कर डाला। दूसरे दिन कैलीफोर्निया पहुंची और कूपर टिनो में निकट १८ कमरों का एक मकान खरीद लिया। उसमें और कमरे बन्ने लगे और प्रत्येक में आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाने लगी। निर्माण कार्य चल ही रहा था की उसे ऐसा प्रतीत हुआ की जैसे कुछ भूल हो रही हो। अब उसने प्रश्नों का जबाब पाने के लिए एक विलक्षण तरीका ढूँढ़ लिया था। उसे जब भी किसी सवाल का प्रश्न पाना होता, वह किसी शाँत -एकाँत कमरे में चली जाती और स्थिर चित्त होकर बैठ जाती। इस समय उसके मन में जो प्रथम विचार आता उसे वह उसका उत्तर मान लेती और हर हालत में उसको पूरा करती।

जब वह त्रुटि जानने के लिए एकाग्रता में आ गई तो उसे ऐसा लगा की निर्माण कार्य के दौरान यहाँ औजारों और उपकरणों की आवाज दिन-रात गूँजती चाहिए। इससे कदाचित प्रेताभय भयवश यहाँ नहीं आए और यदि किसी प्रकार आ भी गई तो कमरों में उपलब्ध अत्याधुनिक सुविधाएं को भोगने के चक्कर में पड़कर वही उलझकर रह जाए। इस विचार को तत्काल क्रियान्वित कर दिया गया। सन १८८४ से लेकर सितम्बर १९२२ तक वहाँ अहिर्निश कार्य चलता रहा लगभग दो दर्जन कारीगर अनवरत रूप से उसमें लगे रहे। ५ सितम्बर १९२२ को जब सारा की म्रातिव हुई तभी इसमें विराम लगा, लेकिन तब कमरों का मकान १६० कमरों जितना विस्तार कर अट्टालिका का रूप ले चूका था।

आधे अधूरे १८ कमरों के पूर्व ही जाने के वाद उसने अगल बगल की कुछ और जमीं खरीद ली और निर्माण कार्य अब उसमें होने लगा। अहाते की पुराणी दीवार तोड़ दी गई और विस्तृत क्षेत्र में नए सिरे से नै देवर कड़ी की गई इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति उसके जीवनकाल में अनेक बार हुई। हर बार संरचना -शैली में कुछ नवीनता जुड़ी होती, यही कारण है कि आज उस भव्य भवन के प्रथक प्रथक हिस्सों को निहारने से उसमें अलग अलग प्रकार के वास्तुशिल्प कि छवि झलकती झांकती है।

उस इमारत के कमरे कई कई बार तोड़े और बनाये गए। जब कभी दीवारों में उकेरी गई नकाकाशी अथवा कमरे कि आँतरिक बनावट पसंद नहीं आती उसे अंशतः या पूर्णतः तोड़ दिया जाता है तथा नए ढंग से नए रूप में उसका पुनर्निर्माण होता। उसमें प्रेतों के लिए एक सभागार भी बनाया गया, पर उसे सिर्फ इसलिए तोद्दिया गया था, कारण कि सारा को उस सम्बन्ध में कोई प्रेरणा नहीं मिली थी कुछ समय बाद ध्यान करते समय ये प्रश्न उठा प्रेतों के लिए विचार -विनिमय हेतु कोई सभामंडप होना आवश्यक है अतएव कारीगरों को उसने पुनः एक नायाँभिरम कक्ष के निर्माण का आदेश दिया। जब वह बनकर तैयार हुआ, तो उसमें उसी प्रकार का एक विशाल मंच था जैसा, ऑडिटोरियम में हुआ करता है। इसके अतिरिक्त सैकड़ों आरामदेह कुर्सियां रखी गई, ताकि प्रेतों को कोई तकलीफ न हो। उस सभाभवन कि साज -सज्जा भी अद्भुत थी उसमें कीमती साउंड सिस्टम लगा हुआ था,। दरवाजे और खिड़कियों पर सुनहरे रेशमी परदे लटक रहे थे। चारों कोनों पर चार छोटे छोटे एवं सभाकक्ष के मध्य में एक बड़ा समुदाय छत से झूल रहा था। सभी रत्न जड़ित थे। फर्श में इरान निर्मित एक कीमती कालीन बिछा हुआ, था जिसमें रंगों का संयोजन अत्यंत मनोहारी था। कुल मिलाकर वह कक्ष बहुत ही आकर्षक और आरामदायक था।

इमारत के एक कोने में सारा का एक सुन्दर-सा ध्यानकक्ष था। निर्माण सम्बन्धी अथवा प्रेतों कि आवश्यकता के विषय में कोई जानकारी प्राप्त करनी होती, तो वह उसी कक्ष में शाँत वातावरण में आकर देर बैठी रहती इस बीच यदि कोई तत्संबंधी विचार आता तो उसको वह तत्काल लिपोवाद्ध कर लेती। बाद में उसी के अनुसार व्यवस्था बनाई जाती।

इस कक्ष में जाने का मार्ग अत्यंत गोपनीय था उसकी सीढ़ियां इतनी खतरनाक थी कि तनिक -सी भी असावधानी से व्यक्ति गिरकर अपना अंग लेती। बाद में उसी के अनुसार व्यवस्था बनाई जाती।

इस कक्ष में जाने का मार्ग अत्यंत गोपनीय था उसकी सीढ़ियां इतनी खतरनाक थी कि तनिक -सी भी असावधानी से व्यक्ति गिरकर अपना अंग भंग कर लेना। स्वयं सारा ही इस पर से दो बार गिर चुकी थी। तब से वह यहाँ आते समय अत्यधिक सतर्क रहती। इस प्रकार कि घातक सीढ़ियां बनवाने के पीछे उसका हास्यास्पद तर्क यह था कि इससे बुरी आत्माएं उस तक नहीं पहुँच सकेंगी।

इसीसे जुड़ा हुआ,उसका शयन -कक्ष था। रात्रि में वह यहाँ अकेली सोती कोई सहायक या, सेविका अपने पास नहीं रखती। सोने जाने से पूर्व अपने ध्यानकक्ष में लोबान, गुग्गुल सरीखे सुगन्धित द्रव्य जला देती, ताकि प्रेत आत्माएं वहाँ से दूर रहे, उस ओर न आए। उसकी ऐसी मान्यता थी कि खुशबूदार स्थानों से प्रेत परे रहते है। इसके अतिरिक्त कमरे में स्थान -स्थान पर उसने ऐसे कांच लगा रखे थे, जिसमें चेहरा बहुत भिभातस ओर डरावना लगता था। उसका विश्वास था कि मृतात्मा इनके सम्मुख आने से डरेंगे।

सहयोगी के नाम पर उसके पास सिर्फ दो लोग थे -एक उसकी सेक्रेटरी जो उसकी अपनी ही भाजी थी ओर दूसरा उसका नौकर, जो भोजन पकाने के साथ साथ निर्माण कार्य के लिए आवश्यक था, जबकि सेक्रेटरी सुझाव परामर्श में अतिरिक्त निर्माण कार्य देखती थी।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक में सारा कि जब मौत हुई, तो करोड़ों के फर्नीचर एवं दूसरे साज-सामान उस भवन में आ चुके थे। इसके अतिरिक्त इमारत बनवाने में काफी संपत्ति खर्च हुई। फिर भी उसके पास दौलत का एक बड़ा हिस्सा बचा हुआ था जिसकी भाँजी के नाम वसीयत कर दी आज भी वो अट्टालिका कैलीफोर्निया के कूपर्तिनो नामक स्थान में वीरान पड़ी हुई है।

ऐसे निर्माणों को देखकर बार-बार मस्तिष्क में यह विचार उठता है कि अगोचर सत्ता के प्रति जो इतना सतर्क, सावधान ओर संवेदनशील हो सकता है, उसका ध्यान समाज के गोचर इकाइयों कि दयनीय अवस्था कि और क्यों नहीं जाता? यह जानते हुए भी कि सूक्ष्मसत्ताओं को स्थूल पदार्थों की जरूरत नहीं होती, उनके लिए यदि कोई महँगे सुविधा-साधन इकट्ठे करता है, तो उसे क्या कहेंगे- सनकी? पागल? या समाज की कृतज्ञता को भूल जाने वाला कृतघ्न? निश्चित ही उसे समाज के उपकार को विस्मृत कर देने वाका घोर स्वार्थी ओर सनकी ही कहा जाएगा। हमें ऐसे सनकियों के प्रति सावधान रहना चाहिए, जो समाज के धन को निजी उपार्जन समझकर स्वेच्छाचारी ढंग से बर्बाद करते है।


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