परिवार के साथ सभ्यता-संस्कृति भी दाँव पर

October 1999

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सभ्यता और संस्कृत के विकास का आरम्भ परिवारसंस्था के साथ जोड़ा जा सकता है। पौराणिक और अध्यात्मिक दृष्टि से इसके उद्भव की जो भी कथाएं हैं, समाज-शास्त्रीय दृष्टि से मनुष्य के भीतर जन्मे सहयोग और अनुराग को परिवार का आधार कहा जाता है। सहयोग-सद्भाव का जन्म न होता तो न स्त्री-पुरुष साथ रहते, न संतानों का जिम्मेदारी से पालन होता और न ही इस तरह बने कुटुँब के निर्वाह के लिए विशिष्ट उद्यम करते बनता। बच्चों को जन्म और प्राणी भी देते हैं। एक अवस्था तक वे साथ रहते है और अपना आहार खुद लेने लायक स्थिति में पहुँचने पर अपने आप अलग हो जाते हैं, उन्हें जन्म देने वाले युगल को भी उनकी कोई चिंता नहीं रहती। मनुष्य ने साथ रहना शुरू किया और उस कारण दायित्व बढ़े तो उन्हें पूरा करने के लिए नए साधनों की खोज भी करनी पड़ी। इस खोज में ही विज्ञान, शिक्षा, प्रौद्योगिकी, संस्कार, समूह, ग्राम, नगर, राज्य, समाज, देश, आदि आयाम प्रकट होने लगे। मनुष्य अपनी यात्रा पर तेजी से बढ़ने लगा लगा और कुछ ही समय में वह अपने आपको सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाने की स्थिति में पहुँच गया।

विकास की इस यात्रा के पीछे कहीं-न-कहीं।परिवारसंस्था ही विद्यमान है यदि यह संस्था नहीं होती तो सीधे प्रकृति से आहार लेने और अपने शरीर का रक्षण करने के सिवा कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं थी। मनुष्य सभ्यता का इतिहास परिवार बसाने की और उसकी आवश्यकता पूरी करने, उसके सदस्यों के विकास की चिंता करने के बिंदु से आरंभ होता है। एक-दूसरे के लिए त्याग, बलिदान, उदारता, सहिष्णुता, सेवा और उपकार जैसे मानवीय अध्यात्मिक मूल्यों की प्रयोगशाला भी परिवार का परिकर ही है।

समाजशास्त्री मानते हैं कि समाज, देश, विश्वमानवता जैसी धारणाएं भी परिवार का ही विकसित रूप है। पति-पत्नी और उनकी संतान से बनी इकाई में जब संतानों के पत्नी-बच्चे भी आ जुड़ें तो संयुक्त परिवार का उदय होता है। संयुक्त परिवार ने बस्ती, ग्राम और नगर के रूप में विकास किया। विरत रूप लेते गए इस स्वरूप के साथ सामूहिकता, व्यापकहितों की भावना और उनके लिए मर मिटने का उत्सर्ग अथवा पूरा जीवन खपा देने वाला समर्पण भाव जन्मा। उनकी व्यवस्था के लिए विधिविधान बने, नागरिक और प्रशासनिक संगठनों का ढाँचा तैयार हुआ विज्ञानं के सहयोग से उत्पादन, संरक्षण और विकास के विभिन्न आयाम खुले। इस सारणी को आगे बढ़ते जाएँ, तो सभ्यता-संस्कृति के विकास की हर कड़ी परिवारसंस्था के आरंभ से जुड़ती चली जाती है।

परिवारसंस्था संबंध में यह पृष्ठभूमि चित्रित करने का उद्देश्य? अध्यात्मविद्या मानते है कि मनुष्य की चेतना अभी कुटुंब-परिवार की सीमा लाँघकर आगे नहीं बढ़ी है नगर, ग्राम, देश, समाज उसके अगले विस्तार जरूर हैं लेकिन मानवीय चेतना ने उसमें अभी रंग नहीं भरा है। अपने आप को उससे पूरी तरह नहीं जोड़ा है। देश, समाज उसकी विकासयात्रा के अगले पड़ाव हैं, लेकिन वे बहुत दूर हैं। उन्हें लक्ष्य कहा जा सकता है, खाका बताया जा सकता है, रूपरेखा समझा जा सकता है, जिन्हें अभी ठोस आकर लेना है। अध्यात्मविद् यह भी मानते हैं कि इन रेखाओं में रंग भरने से पहले ही एक दुर्घटना घट गयी है। उस दुर्दशा के कारण परिवारसंस्था सुदृढ़ होने के स्थान पर जर्जर होने लगी अब उसके टूटने के लक्षण दिखाई देने लगे हैं। समाजशास्त्री कहते हैं कि उस दुर्घटना के कारण परिवार के सदस्य एक-दूसरे के प्रति सेवा और उत्सर्ग का भाव रखने के स्थान पर स्वार्थी-संकीर्ण होने लगे हैं। अपने सुख और भोग के लिए अत्यंत आत्मीय स्वजन की बलि चढ़ाने में अब हिचक भी मिटती जा रही है अ

परिवार के विकास का एक प्रयोग इस सदी के आरम्भ में श्कम्यून लार्जर फैमिलीश् के रूप में किया गया था। साम्यवादी व्यवस्था के शुरुआती दिनों में प्रयोग चले भी। जहाँ साम्यवादी व्यवस्था नहीं थी, वहाँ सहकारी प्रयोगों में उसका प्रभाव दिखाई दिया। आठवाँ दशक पूरा होने तक साम्यवादी व्यवस्था दम तोड़ने लगी। उसके साथ कम्यून और सहकारी जीवन के प्रयोग भी लड़खड़ा गए। परिवारसंस्था का आधार खिसकने लगने का यह उपलक्ष्य मात्र है, मुख्य समस्या इसके अस्तित्व पर मंडराने लगे संकट और उसके गहराते जाने कि है।

संकट का स्वरूप कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं इस शताब्दी का उत्तरार्द्ध शुरू होने तक भारत में संयुक्त परिवारों का चलन लोकप्रिय था। माता-पिता अपने बच्चों और उनकी संतानों के साथ मजे से रहते थे। तीन और उससे ज्यादा पीढ़ियाँ भी एक ही परिसर में रहतीं, एक ही चौके में बना भोजन करतीं और सुख-दुःख को हार्दिक स्वीकृत से निभाती चलती थीं। छठें-सातवें दशक में संयुक्त परिवार बिखरने लगे। ये अपवाद पहले भी थे, जिनमें पति-पत्नी और उनके बच्चे माँ-बाप से अलग बस जाते थे, लेकिन उनका अनुपात बीस-पच्चीस प्रतिशत ही था। गाँव, समाज और रिश्तेदारी में उन्हें निन्दित भाव से देखा जाता था। सातवें दशक में संयुक्त परिवार की टूट को सहज भाव से देखा जाने लगा, क्योंकि वह यात्रा-तत्र बहुतायत घटने लगी थी।

टूट के कारण रोजगार के अवसर और स्वरूप में बदलाव के साथ सुविधा-साधनों के प्रति बढ़ती हुई ललक बताई गई। कहा गया में संयुक्त परिवार की टूट को सहज भाव से देखा जाने लगा, क्योंकि वह यात्रा-तत्र बहुतायत घटने लगी थी।

टूट के कारण रोजगार के अवसर और स्वरूप में बदलाव के साथ सुविधा-साधनों के प्रति बढ़ती हुई ललक बताई गई। कहा गया कारण हैं, जैसे कहीं सम्मिलित खेती है या साझा व्यवसाय है अथवा अनबटी पैत्रिक संपत्ति है। जले हुए कपड़ों की भस्मीभूत धागों की तरह वे दिखाई भले ही न देते हों, वस्तुस्थिति वैसी नहीं है। हवा का एक हल्का-सा झोंका भी उन्हें बिखेर देने के लिए पर्याप्त है।

बीस-पच्चीस वर्षों में संयुक्त परिवारों का कम तमाम हो गया। अब बारी एकल परिवारों की है। जिन्हें वास्तविक और मूल जैसे विश्लेषणों से संबंधित किया जाता है। पति-पत्नी पहले भी कामों में हाथ बँटाते और एक-दूसरे के दायित्वों को संभालते हुए स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाये रखते थे अब स्वतंत्र व्यक्तित्व का आग्रह अलग रूप लेने लगा है। उसके अनुसार, प्रत्येक का अपना अलग व्यवसाय है। निजी और सामाजिक जीवन है, दायित्व है, इच्छाएँ-आकांक्षाएं हैं और हित या स्वार्थ है। क्षुद्र अहं से प्रेरित स्वतंत्र व्यक्तित्व का आग्रह इतना हठीला और क्रूर है कि दूसरे का सहयोग-हस्तक्षेप तो दूर ताँक–झाँक तक बर्दाश्त नहीं है। पति-पत्नी के निजी एकान्तिक संसार की तरह बच्चों में भी अपनी निजता या प्राइवेसी का आग्रह बढ़ने लगा है। कथित वास्तविक परिवार में पड़ रही इस दरार को महानगरों की जीवनशैली पर आँख गड़ाए रहने वाली संस्थाओं ने रेखांकित किया है। नीराजनश् नामक स्वयंसेवी संस्था द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली, बंबई, कलकत्ता और चेन्नई के कामकाजी परिवारों में २० प्रतिशत अपने बच्चों और साझा जरूरतों को लेकर ही एक दूसरे में रुचि लेते है, इन विषयों पर विचार करते है और उतनी ही जिम्मेदारी समझते है। शेष उनका अपना जीवन है, जिससे जीवनसाथी को कोई मतलब नहीं होना चाहिए।

महानगरों में बिना विवाह के साथ रहने और संतान को जन्म देने की प्रवृत्ति भी जड़े जमाने लगीं हैं। इस तरह का सहजीवन जब तक मन करे साथ रहने और बाद में अलग हो जाने की छूट देता है। उस स्थिति में किसी का भी किसी के प्रति वैधानिक दायित्व नहीं बनता। न आपस में और न बच्चों के प्रति एन प्रवृत्तियाँ परिवारसंस्था पर मंडराते जा रहे संकट की।ोतक हैं। दूर की सोचने वाले मनीषी चिंतित हैं कि दिशाधारा यही रही, तो सभ्यता और संस्कृति भी क्या सिकुड़-सिमट जाएगी? जिस आत्मीयता. स्नेह और उत्सर्ग की भावना ने उसका आधार रचा, वही लुप्त हो गया तो संकट की विभीषिका का सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। उज्ज्वल भविष्य की की आशा रखने वाले आस्तिकजन निराश नहीं हैं। उनकी आशा है कि जगतनियंता हस्तक्षेप जरूर करेंगे और अपनी रचना को निश्चित ही सुरक्षित निकाल लेंगे।


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