क्वांटम सिद्धाँत सिद्ध करता है अध्यात्म को सर्वोपरि विज्ञान

October 1999

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अध्यात्म एक समग्र विज्ञान है। आधुनिक विज्ञान के नवीनतम अनुसंधानों में भी यही सत्य प्रमाणित हुआ है। विज्ञान के इन निष्कर्षों में वही सत्य ध्वनित होता है, जिसे आर्यावर्त के महर्षियों ने अपनी अध्यात्मचेतना से पाया था और उपनिषदों में संकलित किया था। इस सत्य को मोटेतौर पर यों भी कहा जा सकता है कि सृष्टि चेतना का भाँडागार है, इसके कण-कण में अनंत ऊर्जा भरी पड़ी है। अध्यात्म की इस स्वीकारोक्ति को विज्ञान भी स्वीकारने लगा है। जैसे-जैसे विज्ञान आने नए अनुसंधान करता जा रहा है, उसकी गति स्थूल से सूक्ष्म की ओर हो चली हैं इसी के साथ ऋषिप्रणीत सारे सूत्रों से निहित वैज्ञानिकता भी उजागर होने लगी है।

हालाँकि विज्ञान की अपनी सीमाएँ है। उसके सारे अनुसंधान एवं संपूर्ण अध्यावसाय पदार्थ पर केंद्रित हैं परन्तु पदार्थ के पार प्राप्त सूक्ष्म एवं अनंत ऊर्जास्रोत, जिसे क्वांटम कण व तरंग सिद्धान्त के नाम से प्रतिपादित किया गया है, ने वैज्ञानिकों को हतप्रभ व आश्चर्यचकित कर रखा है। सुविख्यात वैज्ञानिक एवं मनीषी माइकेल टालबोट ने अपने शोध अध्ययन ‘मिस्टिसिज्म एण्ड द न्यू फिजिक्स’ में भारतीय तंत्र एवं योगविद्या की वैज्ञानिकता प्रमाणित की है। उनके अनुसार इसकी महत्ता एवं विशेषता आज भी ही नवीन और प्रासंगिक है। एसलीन इंस्टीट्यूट के मनोविज्ञानी लॉरेंसलीसेन ने महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों पर कई सफल वैज्ञानिक प्रयोग सम्पन्न किए है। विज्ञानवेत्ता हर्मन निकोबस्की की स्पेसटाइम की व्याख्या में प्रकाराँतर से कार्यकारण के सिद्धान्त का ही प्रतिपादन हुआ है, जिसके अनुसार सृष्टि का हर कार्य किसी एक कारण विशेष द्वारा ही होता है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण सन्निहित होता है, बिना कारण कुछ भी संभव नहीं है।

क्वाँटम कण और तरंग सिद्धान्त में ब्रह्मांड को ऊर्जातरंगों का संघनित रूप माना गया है। इसके अनुसार समस्त सृष्टि का कण-कण तरंगों से विनिर्मित है। इसकी वैज्ञानिक व्याख्या श्रोड्रिगर के कैट मत एवं जॉन ए डीलर कीक सुपर स्पैस कीक परिकल्पना में हुई है। इस व्याख्या में यही है कि संसार के सभी क्रिया–कलापों के मूल में एक ही शक्ति क्रियाशील है, जो विभिन्न रूपों में दृश्यमान होती है। स्वामी विवेकानन्द ने भारतीय दर्शन का हवाला देते हुए उल्लेख किया है कि प्रकृति में दो सत्ताएँ है-एक आकाश कहलाती है, वह पदार्थ है, अत्यन्त सूक्ष्म है और दूसरी प्राण कहलाती है, वह शक्ति है। आकाश एक सर्वव्यापी-सर्वानुस्यूत सत्ता है। ठोस, तरल और वाष्पीय सब प्रकार के पदार्थ, सभी प्रकार के शरीर, पृथ्वी, सूर्य, चंद्र और तारे सब इसी आकाश से विनिर्मित है। यह आकाश प्राण क्रिया से परिवर्तित होकर सूक्ष्म-से-सूक्ष्मतर या स्थूल-से-स्थूलतर बनता है। जिस तरह आकाश इस जगत् का कारण स्वरूप अनंत एवं सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है, प्राण भी उसी तरह जगत् की उत्पत्ति का कारण अनंत सर्वव्यापी विशेषकारी शक्ति है। कल्प के आदि और अंत में संपूर्ण सृष्टि आकाश रूप में परिणत होती है और जगत् की सभी शक्तियाँ प्राण में लीन हो जाती है।

यही प्राण गतिरूप में अभिव्यक्त हुआ है कि गुरुत्वाकर्षण विद्युत चुम्बकीय, बीक एवं स्ट्राँगफोर्स के रूप में स्वयं को प्रकट करता है। वैज्ञानिक हन्ही चार को ब्रह्माण्ड की संचालन शक्तियाँ मानते है। यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह, विचारशक्ति एवं दैहिक क्रिया के रूप में भी व्यक्त होता है। बाह्य एवं अंतर्जगत् की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती है, तब उसी को प्राण कहते है। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में जर्मन भौतिकशास्त्री मैक्स प्लैक ने पहली बार बताया कि प्रकाश एक तरंग नहीं वरन् क्वाँटा नामक ऊर्जा इकाई से बना है। क्वाँटम मैकेनिक की नींव यहीं से पड़ी, जो उसी प्राणतत्त्व की ओर संकेत करता है। भले ही इसकी अपनी अलग भाषा ही, पर यह उसी का अलग ढंग से किया गया विश्लेषण मात्र है।

जैकसेरफानी ने अपने सुविख्यात ग्रंथ ‘स्पेस टाइम एण्ड बियोंड’ में ह्नीलर की क्वाँटम व्याख्या पर आधारित मिनी ब्लैक होल और मिनी ह्नाइट होल की बात कही है। उनके अनुसार इनका व्यास 10-33 सेमी व भार 10-5 ग्राम होता है। इनकी यह सूक्ष्म संरचना अति विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण होती है। जब ग्रह-नक्षत्र टूट जाते है, तो वे ब्लैक होल व परिवर्तित हो जाते है। सेरफानी के अनुसार, आकर्षण का स्वकेंद्रित प्रकाश है।

अंतरिक्षवेत्ता कार्लसागा ने ‘द काँस्मिक कनेक्षन’ में वार्महोल और ब्लैक होले को विश्व का रहस्य बताया है। इस युग के बौद्धिक चमत्कार समझे जाने वाले स्टीफेन हाफिंका ने स्पष्ट किया है कि ब्लैक होल में स्पेसटाइम समाप्त हो जाता है। इसका गुरुत्वबल असाधारण व आश्चर्यजनक रूप में बढ़ जाता है। यह त्रिआयामी होता है। और इसकी पूँछ में फोटान कण घूमते रहते है। विज्ञानी माइकेल टालबोट ने इसकी समानता कुँडलिनी शक्ति से स्थापित करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार कुंडलिनी भी ब्लैक होल के समान सोई पड़ी रहती है। परन्तु जब जाग्रत् होती है, तो प्रचण्ड बलयाकृत तरंगों के सदृश ऊपर उठती है। ब्लैक होल व कुँडलिनी दोनों ही अपरिमित एवं अनन्त शक्ति के भंडार होते हैं दोनों की ही गति की चलायाकृति माना गया है। ब्लैक होल का फोटान इसी तरह गति करता है।

जॉन ए. ह्नीलर ने अपनी शोध ‘द सुपरनेचर एण्ड द नेचर ऑफ क्वाँटम जिओ मेट्रोडायनेमिक्स’ में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि अंतरिक्ष में वार्महोल बिखरे पड़े हैं। ये आपस में संबंधित होते है। यह संबंध कुछ इस तरह का होता है कि जॉन ह्नीलर ने इस अंतरिम का नर्वस सिटम भी कहा है। इसी के माध्यम से अंतरिम में विद्युत् धाराओं का प्रवाह सुनिश्चित क्रम में होता रहता है। इनकी दिशाएं बड़ी स्पष्ट एवं अलग होती है, अतएव कभी भी ये आपस में नहीं टकराते। ये वस्त्रों की तरह धागों से बुनी होती है, तभी ह्नीलर ने इसे आकाशीय धागों से बुना जियो मेट्रोडायनेमिकल परिधान कहा हैं ये विद्युतधाराएं वार्महोल से होकर गुजरती हैं माइकेल टालबोट ने इसे शिव की जटा के समान बताया है। जैसे शिव की जटा को खोला और समेटा जा सकता है, इसी तरह इन धाराओं व वार्महोल में संकुचन व प्रसार संभव है। अध्यात्मवेत्ताओं की भी यही मान्यता है कि कल्प के आदि में आकाश का प्रसार एवं अंत में संकुचन होता है।

आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं का यह भी मानना है कि अध्यात्मविद्या में वर्णित नाद और बिंदु के सिद्धान्त को भी क्वाँटम के तरंग और कण के माध्यम से जाना जा सकता है। नाद का अर्थ है-तरंग और बिन्दु का अर्थ है-उसका कण। ब्रह्माण्ड के निर्माण के साथ ही चेतना का प्रवाह तरंग या नाद के रूप में हुआ। मनुष्य के व्यक्तिगत महत् या चित्त में विचार भी तरंगों के रूप में उठा करते है, जो बाद में स्थूल रूप में क्रियान्वित होते है। बृहत् ब्रह्माण्ड में ब्रह्म हिरण्य गर्भ या समष्टि महत् ने पहले अपने को नाम के और फिर बाद में रूप अर्थात् दृश्यमान जगत् के आकार में अभिव्यक्त किया। यही वजह है कि अध्यात्मविद् समस्त जगत् की अभिव्यक्ति का कारण शब्द या नादब्रह्म को मानने है। वैज्ञानिकों का भी यही मानना है। कि प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया−कलाप चलता है। यह ध्वनि ही ॐ का नाद है। दूसरा है बिन्दु, जिसका अर्थ है-सूक्ष्म-से-सूक्ष्म जो कण है, वहाँ तक अपनी गति हो जाने पर ही ब्रह्म की समीपता तक पहुँचा जा सकता है।

विज्ञानी जॉन ए. ह्नीलर के कण तरंग, एंडीवेडक्स द्वारा उल्लेखित सिंगल प्वाइंट और अध्यात्मविदों द्वारा

स्वामी रामतीर्थ हमारे देश के एक प्रतिष्ठित विद्वान् संत हो गए है। उनकी विद्याध्ययन की रुचि और तेजस्वी बुद्धि से प्रभावित होकर लाहौर कॉलेज के प्रिंसिपल ने उनका नाम विविलसर्विस की परीक्षा के लिए देने का निर्णय किया।

इस बात की सूचना जैसे ही उन्हें मिली, वे तुरन्त ही प्रिंसिपल महोदय के पास पहुँचे और उनसे नम्रतापूर्वक बोले-मैंने अपनी फसल से लाभ उठाने के लिए, उसे बेचकर टके गिनने के लिए मेहनत नहीं की है। मैंने तो वह बाँटकर खाने के लिए तैयार की है। मैं कोई बड़ा अधिकारी नहीं बनना चाहता। मैं तो सेवक हूँ, अतः सेवा करना चाहता हूँ। इसलिए मैं अफसर बनने की बजाय अध्यापक बनना ही पसन्द करूंगा।

प्रिंसिपल के समझाने पर भी वे अपने निर्णय पर दृढ़ ही रहे। ज्ञान व कर्म को जो भक्ति से मिला देता है-वह स्वामी रामतीर्थ की तरह फसल बोकर अनेक गुना होते उसे पाता है। अपने संबंध में यह आत्मबोध जिस-जिसको हुआ है, वह महामानव-यशस्वी बना है।

बताए गए नाद एवं बिन्दु से एक ही सत्य का प्रतिपादन होता है। स्वामी प्रत्यागतानंद ने अपने सुविख्यात ग्रंथ ‘द मेटाफिजिक्स ऑफ फिजिक्स’ में इसका रोचक ढंग से वर्णन किया है। उनके अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड नाद और बिन्दु की ही परिणति का परिणाम है। तंत्र विशेषज्ञ सर जान वुडरफ ने तंत्रविद्या को एक परिशुद्ध वैज्ञानिक प्रक्रिया बताया है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘द सरपेंट पॉवर’ में पदार्थजगत के नियंत्रण के नियंत्रण को प्राणशक्ति द्वारा प्रदर्शित किया है, जिसे पदार्थजगत का निर्माण होता है। उनके अनुसार पदार्थ कुछ नहीं शक्ति का स्थूल रूप है।

इसी प्रकार वेदाँत ने सृष्टि की माया कहा है। वेदाँत दर्शन के अप्रतिम व्याख्याकार आचार्य शंकर ने कहा है ब्रह्माण्ड की रचना एक आभास मात्र है। ठीक इसी तरह क्वाँटम सिद्धान्त के जानकार संसार को स्वप्निल संसार बताते है। उनके अनुसार संसार के सुन्दर दृश्यों, पहाड़ों, पर्वतों, नदियों, वृक्ष-वनस्पतियों, प्राणियों में एक ही चेतना का क्रीड़ा-कल्लोल है। विज्ञानवेत्ता सरफानी ने इस चेतना की व्याख्या अपने ढंग से की है। इनके अनुसार ग्रेविटेशन बल पदार्थ पर क्रिया करता है। उन्होंने प्राणियों और जीव-जन्तुओं पर क्रियाशील इस बल को बायोग्रेविटेशन नाम दिया है। इस प्रकार माइंड एवं मैटर का स्रोत एक ही चेतना हैं आधुनिक भौतिकी के मतानुसार पदार्थजगत का कोई अस्तित्व है ही नहीं सर्वत्र एक ही चेतनसत्ता विद्यमान हैं इसी के प्रभाव से मारा संसार गतिशील है। सत्प्रेम ने ‘द एडवेंचर ऑफ कान्शसनेस’ में इसे बड़े ही मोहक ढंग से विश्लेषित किया है। उनके अनुसार चेतना का विस्तार पदार्थजगत की बहुआयामी सृष्टि करता है और इसका ऊर्ध्वगमन प्राण-मन एवं अतिमन के उच्चस्तरीय आयामों की रचना करता है। यह वही ऊर्जा है, जो जड़ एवं चेतन सभी को बाँधे रखती है, इसे ही कानषस फोर्स या चित्तारिन कहा गया है।

श्री अरविंद ने अपने ग्रंथ ‘सिंथेसिस ऑफ योग’ में इस शक्ति को ब्रह्मांडीय चेतना नाम दिया है। उनका कहना है कि सर्वत्र एक ही शक्ति प्रवाहित एवं परिचालित है। वृक्ष-वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं, कीड़े-मकोड़ों से मानवमन तक एवं ध्यान से समाधि की गहराई तक एक इसी चेतना का विस्तार दिखाई देता हैं सृष्टि का एक कण भी इसके बाहर नहीं हो सकता। सर्वत्र ही एक ही शक्ति है दो नहीं, अतः एक छोटे-छोटे से कण के शक्तिहीन हो जाने से तो समूचा ब्रह्माण्ड ही शक्तिहीन हो जाता है। अलबर्ट आइंस्टीन के सूत्र श्व = रुष्ट2 में इसी तथ्य का प्रकटीकरण हुआ है। सर्वव्यापी चेतना ही पदार्थ है, म है एवं सारी सृष्टि है। मुँडकोपनिषद् में भी यही सत्य उद्घाटित हुआ है। इसके ऋषि का प्रतिपादन है कि ऊर्जा ने ही कालाँतर में जड़जगत का निर्माण किया है।

विज्ञानवेत्ताओं के अनुसार क्वाँटम यूनिवर्स में प्रत्येक कण अनन्त ऊर्जा का स्रोत है। सुपर होजोग्राम ही ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’ का उद्घोष करता है। महर्षि अरविन्द ने अपने महाकाव्य सावित्री में उल्लेख किया है कि प्रकृति के हर कण में अनन्त ब्रह्माण्डीय ऊर्जा संव्याप्त है। अपनी एक अन्य कृति ‘द आवर ऑफ गॉड’ में इसी सत्य का विश्लेषण करते हुए वह कहते है कि एक कण में समस्त सृष्टि की शक्ति बीज रूप में सन्निहित हे। वैज्ञानिक इवान हेरिस वाकर ने भी अपने प्रयोगों से यही तो निष्कर्ष निकाला था-सूक्ष्म कण कान्षस फोर्स का यूनिट है।

इन कणों का संसार कैसा होगा? इसे रॉबर्ट ए. मोनरो ने अपने ग्रंथ ‘जर्नीस आउट ऑफ द बॉडी’ में स्पष्ट करेन की कोशिश की है। उनके अनुसार दृश्य जगत् में चेतना का रूपांतरण संभव है, जिसे हमारी आँखें देख पाती है। परंतु इससे भी परे एक ऐसी अद्वितीय और अद्भुत सृष्टि भी है, जहाँ न तो स्पेस है और न ही टाइम और न दृश्यप्रकृति का कोई नियम लागू होता है। रॉबर्टमोनरो ने इसे लोकल स्पेस के रूप में अभिव्यक्ति दी है। भारतीय शास्त्रों में यह तथ्य लोक-लोकान्तर के रूप में वर्णित में वर्णित है। जॉन सी. लीली अपने ग्रंथ ‘द ह्मूमेन कम्प्यूटर’ में मानवमन को शक्तिशाली तरंग के रूप में निरूपित किया है। उनके अनुसार मन का सूक्ष्म रूप ही उसे ब्रह्माण्ड की झाँकी दे सकता है।

डॉन जुआन ने भी आचार्य शंकर की तरह इस विश्व ीि आभासी माना है। उनके मत से यह चेतना की स्थूल अवस्था है। इसमें पदार्थ, स्पेस एवं टाइम का अनुभव होता है। वैज्ञानिक लारेंस लिषेन ने अपनी रचना ‘द मीडियम द मिस्टिक एण्ड द फिजिसिस्ट’ में दो जगत् के बारे में उल्लेख किया है। इनमें से एक आभासी है, तो दूसरा वास्तविक। उन्होंने इस दृश्यजगत को आभासी एवं इससे परे जगत् की यथार्थ व वास्तविक निरूपित किया हैं पहले जगत् में स्पेसटाइम के अनुरूप संरचनात्मक अस्तित्व होता है और दूसरे में क्रियाशील होता है, जो प्रकाश की गति से भी तीव्रतम होता है। बुद्ध के निर्वाण की व्याख्या करते हुए विज्ञानी माइकेल टालबोट ने कहा है कि आम जब प्राकृतिक नियमों से पार जाकर मूलतत्त्व परमात्मा से मिल जाती है, तो उस परम अवस्था को प्राप्त करती है। इनके मतानुसार आज का विज्ञान अगर पदार्थ जगत् के कणरूपी परिकल्पना से कुछ और आगे बढ़ सके, तो संभवतः उस अदृश्य कहे जाने जगत् की झलक-झाँकी पा सके।

अब तो विज्ञानवेत्ता भी स्वीकार करने लगे है कि क्वाँटम सिद्धान्त में कण एवं तरंग निश्चित रूप से उसी परम ऊर्जा की झलक देते है, जिसे आध्यात्मिक मनीषियों ने ब्राह्मीचेतना कहा है। अब यह बात पारदर्शी हो चली है कि प्राचीनकाल के आध्यात्मिक निष्कर्ष आधुनिक विज्ञान के प्रयोगों की कसौटी पर भी सर्वथा खरे साबित होते है। आध्यात्मिक सत्य जब पूर्णरूपेण वैज्ञानिक तथ्य भी है, तो यह भी मानना पड़ेगा कि अध्यात्म एक सर्वांगीण विज्ञान है, हाँ यह आज के विज्ञान से निस्संदेह उच्चस्तरीय एवं उन्नत तो है ही। इसका सार्थक प्रतिपादन एवं अनुशीलन निश्चित रूप से अपने भारत देश को फिर से भावी नवयुग में जगद्गुरु के गरिमापूर्ण आसन पर बिठाने वाला होगा।

एक गोताखोर बहुत दिन से असफल रह रहा था। घोर परिश्रम करने पर भी कुछ हाथ न लगा। पेट भरने के लाले पड़ गए। कोई रास्ता सूझता न थाँ सो एक दिन उसने किनारे पर बैठकर देवता की बहुत प्रार्थना की-”आप सहारा न देंगे, तो मैं जीवित कैसे रहूँगा?” देवता पसीजे। इस बात डुबकी में उसे एक पोटली हाथ लगी। खोलकर देखा, उसमें छोटे-छोटे पत्थर भर बँधे थे। दुर्भाग्य को उसने कोसा। देवता को निष्ठुर बताया और पत्थर के टुकड़ों को पानी में फेंकना आरम्भ किया। सोचने लगा- अब वह गोताखोर का धंधा छोड़ेगा। कल से मछली पकड़ेगा, उसमें हाथों-हाथ लाभ भी है और जोखिम भी नहीं। इन्हीं विचारों के बीच एक-एक करके पत्थर के टुकड़ों को भी फेंकता चला गया। अंतिम टुकड़े को ध्यान से देखा, तो वह बहुमूल्य नीलम था। देवता के अनुग्रह से मिली इतनी राशि उसने अपने हाथों गँवाई, इस पर भारी रोष प्रकट कर रहा था। देवता प्रकट हुए ओर बोले-”अकेले तुम्हीं इस दुनिया में प्रमादी नहीं हो अन्य लोग भी रत्नराशि से बढ़कर जीवनसम्पदा को इसी प्रकार बरबाद करते है। जाओ जो बचा है, उसे बेचकर आज का काम चलाओ। समझ बढ़ाओं, ताकि धन पाने का ही नहीं, उसके उपयोग का भी बोध हो सके।”


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