परमपद की प्राप्ति की ओर (Kahani)

October 1999

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शिष्य लम्बा रास्ता पर करके आया था। उसके पैरों में अनेक काँटे चुभ रहे थे। शिष्य ने कहा दुनिया बड़ी खराब है। इसमें पग-पग पर काँटे बिछे है। गुरु ने कहा पैरों में खड़ाऊं पहन लो दुनिया में काँटे बिनना कठिन है। अपना स्वभाव सज्जनता और सहिष्णुता का बना लेना ही खड़ाऊं पहनना है। यह शिक्षण ही वास्तविक यदि गुरुजनों कि वाणी को, सदुपदेशों को हृदयंगम किया जाएँ, तो प्रतिकूलताएं निरस्त होती चलेंगी।

एक व्यक्ति एक संत के पास आया व उनसे याचना करने लगा कि वह निर्धन है। वे उसे कुछ धन आदि दे दे, ताकि वह जीविका चला सके। संत ने कहा- हमारे पास तो वाष्ट्र के नाम पर यह लंगोटी और उत्तरीय है लंगोटी तो आवश्यक है, पर उत्तरीय तुम ले जा सकते हो। इसके अलावा और कोई ऐसी निधि हमारे पास है नहीं। वह व्यक्ति बार-बार गिड़गिड़ाता रहा, तो वे बोले-अच्छा, झोपड़ी के पीछे एक पत्थर पड़ा होगा। कहते हैं, उससे लोहे को छूकर सोना बनाया सकता है। तुम उसे ले जाओ। प्रसन्नचित वह व्यक्ति भागा व उसे लेकर आया। खुशी से चिल्ला- महात्मन! यह तो पारसमणि है आपने यह ऐसे ही फेंक दी।

संत बोले- हां बेटा! मैं जनता हूं कि यह नरक की खान भी है। मेरे पास प्रभुकृपा से आत्मसंतोष रूपी धन है, जो मुझे निरंतर आत्मज्ञान और अधिक ज्ञान प्राप्त करने को प्रेरित करता है। मेरे लिए इस क्षणिक उपयोग की वास्तु का क्या मूल्य? वह व्यक्ति एकटक देखता रह गया।

फेंक दी उसने भी पारसमणि। बोला-भगवन्! जो आत्मसंतोष आपको है व जो कृपा आप पर बरसी है। उसे मैं इस पत्थर के कारण वंचित नहीं होना चाहता। आप मुझे भी उस दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दे, जो सीधे प्रभुप्राप्ति की ओर ले जाती है संत ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया वे दोनों मोक्षसुख गये।

विवेकवान के समक्ष हर वैभव, हर सम्पदा तुच्छ है। वह सतत् अपने चरमलक्ष्य परमपद की प्राप्ति की ओर बढ़ता रहता है


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