आदर्शवादिता से भरे अन्तःकरण में ईश्वर (Kahani)

October 1999

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जय-विजय अपना विमान लेकर धरती पर आए, विधाता के इस आदेश के साथ कि धरती पर सच्चा स्वर्ग का अधिकारी ढूंढ़कर लाओ। धर्म-कर्म में लगे कई साधक उन्होंने देखे। पूछा आप यह क्यों कर रहें हैं? उत्तर मिलता-यह संसार नश्वर है- हम यह भक्ति इसलिए कर रहे है कि मुक्त हो जाएँ। नित्य कुछ-न-कुछ पापकर्म तो होते ही रहते हैं, उनकी भी शुद्धि इसी से कर लेते हैं। उनका आचरण व वाणी दोनों में कोई सामंजस्य न देख वे आगे बढ़े। एक स्थान पर उत्सुकतावश वे रुक गए। रात्रि हो गयी थी। एक अँधा दीपक जलाए बैठा था आने वालों की पदचाप सुनकर वह उन्हें रास्ता बताता था। कीचड़ में सने व्यक्तियों के हाथ-पैर धुलाकर उन्हें अपने पास विश्राम के लिए बिठाता था व भूखे-प्यासे को यथासंभव खिलाता-पिलाता था। दिन होने पर वह थोड़ी देर विश्राम कर वह बगीचे में काम करने लगा, ताकि कुछ सब्जी बेचकर गुजारे लायक राशि जूता सके। जय- विजय यह दृश्य देखकर उससे पूँछ बैठे- आप ईश्वरोपासना नहीं करते सुबह का समय तो इसीलिए होता है ष् अंधा बोला- ष् मुझे रात्रि में लोगों को राह बताना, उनकी सेवा करना व दिन में श्रम करना ही उपासना का स्वरूप समझ में आया है इससे अधिक मैं नहीं जनता ष् अपना निरीक्षण पूरा कर जय-विजय लौटे।। प्रजापति ने उनके लिखे विवरण पर दृष्टि दौड़ाई। उनकी दृष्टि सब पढ़कर उस अंधे के विवरण पर ही जाकर टिकी वे बोले- तुम्हारा विवरण देखकर मुझे लगता है कि वर्तमान में शेष सभी तो आडम्बर व समयक्षेप में लगे हैं। मात्र यही एक अधिकारी है, जिसे स्वर्ग लाया जाना चाहिए ष् जय-विजय की मानसिक उलझन को पढ़ कर वे आगे बोले- ष् तात! उपासना मात्र जप-तप नहीं है वरन् जनमानस को सही दिशा देना भी उपासना का एक स्वरूप है आदर्शवादिता से भरे अन्तःकरण में ही ईश्वर निवास करते है


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