जप और संकीर्तन इलेक्ट्रॉनिक रुझान

October 1999

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ष् सचमुच हम एक नए अनुभव से गुजरे है ऐसा आनंद पहले कभी नहीं आया सुनकर लगा की यह नाद थमे ही नहीं, चलता ही रहे।ष् पच्चीस साल के युवक अमृतकाँत का कहना था। इतना कहकर अमृत ने फिर कैसेट शुरू कर दिया। उससे गायत्री मंत्र की स्वर-लहरी गूँजने लगी। अपने बारे में अमृत का कहना था की बेहद तनाव रहता था। कहीं पहुँचना हो तो तनाव की देर न हो जाये, रावण होते-होते चिंता की कुछ छूट न जाये। तीन-चार बार पलट-पलट कर देखना पड़ता। एक बार घड़ी देखने पर मन निश्चिन्त नहीं हो पाता। मिनट-आधा मिनट के अंतर से तीन-चार बार देखता तब जी मानता कि वास्तव में इतना ही समय हुआ है। जीवन के दूसरे क्रिया–कलापों में भी यही आदत रहती। किसी ने गायत्रीमन्त्र का कैसेट लाकर दिया। एक बार सुना तो आनंद अनुभव हुआ पहली बार स्पर्श होने वाले स्वाद कि तरह तृप्ति हुई। अगले दिन फिर सुनने कि इच्छा हुई। क्रम आगे बढ़ा। आवर्तिता बढ़ी और अब सुबह-शाम मन्त्र के साथ स्तवन भी सुनने का अभ्यास हो गया है। नहीं सुने तो चैन नहीं आता महीने भर बाद स्वभाव में हड़बड़ी कुछ कम हुई। चित्त थोड़ा स्थिर हुआ कैसेट सुनते हुए चार महीने हो गये है। अब अस्सी प्रतिशत सुधार है। अपनी बात संक्षेप में कहने की कोशिश करते हुए अमृत ने कहा- जिंदगी में जैसे इत्मिनान नाम की कोई चीज आई है। यह विश्वास दृढ़ हुआ की कोई शक्ति है, जो संसार चला रही है, इसकी व्यवस्था संभाल रही है, हम बिना वजह चिंतित और अधीर होते है।

अमृत की तरह अनुभव करने वाले युवकों की संख्या अच्छी-खासी है। सिर्फ गायत्री मंत्र ही नहीं हरे राम संकीर्तन, रामधुन, हरिओम् धुन, नमः शिवाय, प्रणव की धुन आदि मंत्रजप की ऑडियो कैसेट सुनने वालों की भरमार है। सुनने वालों में ज्यादातर नै और युवा उम्र के लोग है। कई युवक छह-सात महीनों से धुन सुन रहे है और अपने आप में खो रहे है।

बाजार में इन दिनों अड़तालीस तरह के ऑडियो कैसेट है, जिनमें संकीर्तन धुन या संगीत है और नए कैसेट भी आ रहे है। साधना-परंपरा के अलावा बाजार में भी लोकप्रिय हो रहे है। म्यूजिक कम्पनियाँ उद्योग की तरह इनका उत्पादन और विज्ञापन कर रही है। टाइम्स म्यूजिक द्वारा तैयार गायत्री मन्त्र के कैसेट को साढ़े तीन लाख प्रतियाँ कुछ ही सप्ताहों में बिक गई। योग वेदाँत सेवा समिति ने हरिओम् धुन के दस लाख से ज्यादा कैसेट बेच लिए। श् म्यूजिक टुडे की मेडीटेशन कैसेट ने भी बिक्री के रिकार्ड तोड़े उसमें नाद ध्वनि और कुछ रागों का सम्मिश्रण है, जो मन को विश्राम देता है।

तेज धुनों वाले संगीत की तुलना में धुन या संकीर्तन वह अध्यात्म की ओर बढ़ती रुचि का परिचायक भी है। लेकिन वहीं संतोष नहीं कर लेना चाहिए। मनसविद् मानते है की एक ही प्रकार की धुन, लय या आवृत्ति एक सीमा तक ही सहायक होती है। गाढ़ी नींद में एक बार जगा देने की तरह ही वह उपयोगी है। उसके बाद जागते रहने का स्वयं ही प्रयास करते रहना होता है। सजगता कायम रखनी पड़ती है। ध्यान और संकीर्तन के ऑडियो कैसेट की भी यही सीमा है। उससे आत्मजागरण को सतत् बनाये न रखा जाये, तो चित्त फिर तन्द्रा में जा सकता है। वह स्थिति निद्रा से भी ज्यादा निचले स्तर की है योग की भाषा में उसे श् क्षिप्त श् कहते है। एक ही अवस्था में ठहर जाने और फिर भी गतिशील रहने का भ्रम क्षिप्त श् अवस्था में बनता है। यह स्थिति अध्यात्मिक प्रगति को अवरुद्ध करती है।

जप की मानसिक आत्मिक प्रक्रिया समझने वाले जानते है कि अपने उच्चतम स्तर पर वह स्थिति अजपा में बदल जाती है। जप के लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। उच्चार, श्रवण और चिंतन कि प्रक्रिया अपने आप चलने लगती है। जप के विभिन्न रूपों में वाचिक जप और मानसिक प्रमुख है। वाचिक जप में मंत्र का उच्चारण किया जाता है। वह उच्चारण होंठ, जीभ, तालू, कंठ आदि के स्पर्श और वायु के संघात से उत्पन्न होता हुआ वैखरी वाणी से भी व्यक्त होता है। उपांशु जप में होंठ हिलते है, कंठ से भी उच्चारण होता सुने नहीं देती। सभी प्रक्रियाएं वाचिक जप कि तरह संपन्न होती है, सिर्फ वाणी ही व्यक्त नहीं होती। मानसिक जप में न होंठ हिलते है और न ध्वनि निकलती है। मन के स्तर पर ही जप चलता है। उसका प्रभाव वाचिक और उपाँशु जप कि तुलना में हजार और सौ गुना ज्यादा होता है। दूसरों के द्वारा सुनकर मन को रमाने वाली प्रक्रिया भी जप के अंतर्गत ही आती है वह सिर्फ श्रवण के स्तर पर होती है। प्रस्थान बिंदु कि तरह उसका उपयोग किया जा सकता है। उसे पकड़कर वही स्थिर नहीं हुआ जा सकता। अक्षर ज्ञान से आरम्भ कर शिक्षा का क्रम आगे चलना चाहिए। नहीं चलता है तो अक्षरज्ञान को प्रगति नहीं श्रद्धा कि श्रेणी में ही रखेंगे।

जप, उपासना,ध्यान-धारणा में यों कर्मकाँड नहीं करने पड़ते। थोड़े-बहुत उपचार होते है। पवित्रीकरण, आचमन, आसनशुद्धि, प्राणायाम आदि उपचारों के साथ वह भावभूमि निर्मित कि जाती है, जिसमें जप-ध्यान में प्रवेश किया जाता है। जप−ध्यान आदि साधन स्वयं ही संपन्न करने होते है वक्ता,उपदेशक, आचार्य उसमें शिक्षक या दिशानिर्देश देने कि स्थिति में ही रहते है। उन्हें देखते-सुनते रहने से साधना में गति नहीं होती तैराकी सीखने के लिए मास्टर के संकेत और क्रिया देखने से काम नहीं चलता। स्वयं ही पानी में उतरना पड़ता है। जप, धुन और ध्यान के निर्देश या संगीत से भी दिशा तो ग्रहण कि जा सकती है, लेकिन वही अटक जाने से बात न उस प्रक्रिया का अभ्यास भी करना चाहिए।

जप-ध्यान कि धुनों कि तरह इन दिनों स्तोत्र, आरती, पुण्यश्लोक और भजन-कीर्तन के ऑडियो-वीडियो कैसेट भी बाजार में विपुल संख्या में आ गया है। दो-एक साल पहले तक पूजा-विधान उपलब्ध, नहीं थे। अब वह भी मिलने लगे है। सप्ताह या नौ दिन तक चलने वाली रामायण-भागवत कथाओं के ऑडियो-वीडियो कैसेट भी लोकप्रिय हुए है, यह स्थिति धर्म-अध्यात्म के प्रति बदला हुआ रुझान सिद्ध करती है। ऑडियो-वीडियो कैसेट पर कथा-सत्संग सुने-देखे या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि यह उपक्रम उत्कर्ष कि दिशा में प्रेरित करता है अथवा नहीं। देखने-सुनने का प्रभाव चित्त और प्राणों में रम जाता हो तो समझना चाहिए प्रारंभिक उपचार का कोई असर हुआ है अन्यथा सुनने-गुनने और झूमने लगने को सामान्य संगीत से ज्यादा महत्व नहीं दिया जा सकता। श् रामा हो रामा हो जैसे गीतों कि धुन पर नाचने और हरे राम भजन कि धुन पर नाचने में तब कोई मूलभूत अंतर नहीं रह जाता। संगीत और अध्यात्म में समान रुचि रखने वाले समीक्षकों कि राय में भक्ति-संगीत मन को संस्कारित भी करता है और निवृत्त भी संगीत और स्वर कितने ही उत्कृष्ट स्तर का हो, यदि प्रस्तुतकर्ता का व्यक्तित्व श्रद्धास्पद नहीं है, तो वह संस्कारित नहीं करता। भजन संध्याओं में बहुत बार गायक मंच से उतरने के बाद अपने अभ्यास व्यसनों में लिप्त हो जाते है। गायत्री के स्तर पर उनकी प्रस्तुति को निम्न शरनी का कटाई नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन प्रस्तुति निष्प्राण लगती है। कारण यही है कि वक्ता कि वाणी सिर्फ उत्सुकता जगती है, उसमें आकर्षण और ऊर्जा का समावेश व्यक्तित्व से आता है। व्यक्तित्व अर्थात् प्रस्तुत करने वालों का तप-तेज़। वह नहीं है, तो प्रस्तुति व्यवसायिक स्तर से रत्ती भर ऊपर नहीं उठती।

जो भी हो, प्रचारतंत्र और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के देन है कि धर्मधारणा के लिए रुझान बढ़ा है। विज्ञान कि इन सुविधाओं को धन्यवाद देना चाहिए। सुविधा अपने भीतर नहीं होती, तो हजारों लोगों को अपने भीतर साधना संस्कार जगाने कि प्रतीक्षा करनी पड़ती। इस अनुदान को यही तक उपयोगी मानकर अगले चरण के लिए सन्नद्ध होना चाहिए।


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