धन का सुनियोजन (Kahani)

October 1999

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एक गीदड़ ने सिंह के बच्चे को नवजात अवस्था में कहीं पड़ा देखा, उठाया और उसे अपने बच्चों के साथ पालने लगा। सिंह शावक गीदड़ों के बच्चों के साथ पलते -पलते, उस परिकर में विकसित होते कभी स्वयं को नहीं पहचान पाया। एक बार यह परिवार शिकार को गया। मरे हाथी पर जैसे ही यह खाने के लिए टूटे वैसे ही स्वयं वनराज सिंह वहाँ आ गए। उन्हें देखते ही गीदड़ परिवार कुछ कर गए पर सिंह कि पकड़ में सिंह शावक आ गया। सिंह ने उससे पूछा- वह कैसे उनके साथ था और भयभीत क्यों होता है? शावक समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या है? उसे भय से काँपते देख वनराज सब समझ गए। उन्होंने उसे पानी ने अपनी परछाई दिखाई व फिर स्वयं अपना चेहरा स्वयं दहाड़े और उसे सायं दहाड़ने को कहा। तब उसे अपने विस्तृत आत्मस्वरूप का ज्ञान हुआ और वह सिंह कि बिरादरी में शामिल हो उन्मुक्त भयमुक्त विचरण करने लगे।

एक बार महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी के पास एक धनी सेठ आए। उनके बारे में यह प्रसिद्धि थी कि वे अपना धन भिखारियों में बाँट सकते हैं, पुण्यार्जन की दृष्टि से चींटियों को दाना खिलाने के लिए कर्मचारियों को ढेरों की संख्या में लगा सकते हैं, पर लोक मंगल के लिए उन्होंने न कभी खर्च किया है, न करेंगे। आए तो थे वे अपनी बच्ची के विवाह हेतु सम्मिलित होने का निमंत्रण देने, परन्तु उलटे मालवीय जी से सशर्त जुड़ कर चले आए। मालवीय जी उन दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का निर्माण करा रहे थे। संयोग से जिस लड़के से उनकी लड़की का विवाह हो रहा था, वह उनका विद्यार्थी भी था। उन्होंने खा आप विवाह में जो राशी खर्च कर रहे है, मैंने सुना है वह लाखों में है। उसके बदले आप लड़के के नाम कुछ राशी जमा कर दे व उसे स्वावलंबी बनने दे। वह मेहनती है, अपना संसार खुद बना लेगा पर जो राशी उस प्रदर्शन में किसी का लाभ न होगा, कन्या के विवाह उपराँत कष्ट का कारण अवश्य बन सकता है। इस राशी को आप हमें दहेज में देदे ताकि उससे हिन्दू विश्वविद्यालय का बाकी काम पूरा हो सके। लड़के का गुरु होने के नाते मैं यह दक्षिणा लोकमंगल के लिए आपसे मग रहा हूँ। उनका कहना भर था और उस कंजूस सेठ को बदलना न केवल आदर्श विवाह उन्होंने किया; कई भवन विश्वविद्यालय के लिए बनवा भी दी। धन का ऐसा सुनियोजन ही श्रद्धा जनसम्मान के रूप में फलित होता है


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