सामयिक संदर्भ - हो ऐसी सरकार जो चल सके

October 1999

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चुनाव संपन्न होने के बाद कौन प्रधानमंत्री बनता है- कहना कठिन है पिछले बावन वर्षों में कितने ही प्रधानमंत्री सत्तारुढ़ हुए काँग्रेस के अतिरिक्त विरोधी दलों को भी सत्ता संभालने के अवसर प्राप्त हुए; पर जिस रूप में भी हम सब मिलकर इस लोकसभा का संचालन कर रहे हैं, उसे सही नहीं कहा जा सकता।

पाँच वर्ष की अवधि के लिए चुनी गई लोकसभा की औसत उम्र का हिसाब निकाले तो वह ढाई वर्ष भी नहीं बैठता। शुरू की तीन लोकसभाओं ने अपना कार्यकाल पूरा किया। चौथी लोकसभा चार वर्ष चली तब तक लोकतंत्र वयस्क हो चुका था। उसके बाद बनी नौ लोकसभाओं में कोई एक साल चली, तो कोई तीन। यानी बाद की सभी प्रतिनिधि- सभाएँ कालकलवित हुईं।

अब नई लोकसभा चुनी जा रही है और नै सरकार कार्यभार सँभालने को है तो लोकतंत्र के स्वास्थ और भविष्य के बारे में विचार किया जाना चाहिए आजादी के शुरुआती दिनों में चार-पाँच प्रमुख पार्टियाँ होतीं थीं। उनमें एक पार्टी जो सत्तारुढ़ रहती, काँग्रेस कही जाती थी १९७७ तक शासन करने वाले दल या समूह का नाम काँग्रेस ही हुआ करता था आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली वाली काँग्रेस में ७७ से पहले भी टूट आई लोगों ने उसे ही असली माना, जो सरकार बनाने और चलने में कामयाब हो सकी। १९५० से तक काँग्रेस के अलावा जनसंघ, कम्युनिस्ट, समाजवादी, स्वतंत्र और हिन्दू महासभा आदि दल भी हुआ करते थे। लेकिन १९७७ की महाक्रान्ति ने उन सबका विलय कर दिया। जनता प्रयोग के बाद काँग्रेस पहली बार सत्ता से बाहर आई। वह टूटी भी सही। लेकिन तीन साल बाद ही इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में वह फिर वापस आ गयी इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद गठित हुई आठवीं लोकसभा ने तो जैसे सभी दलों को ध्वस्त कर दिया। देश में काँग्रेस-ही-काँग्रेस रह गई लेकिन यह दूर देर तक नहीं चला। तीन-चार साल में ही सत्तारुढ़ पार्टी बिखरने लगी। इसमें से निकाले विश्ववनाथ प्रतापसिंह आदि ने दूसरे दलों के साथ मिलकर फिर जनता प्रयोग किया और सरकार बनाई। सरकार में शामिल विभिन्न दलों, विचारों या निहित स्वार्थों की टकराहट ने उस प्रयोग को फिर तोड़ा। इसके बाद का समय काँग्रेस और दूसरे दल तथा भाजपा और दूसरे दल या तीसरी शक्तियों की मिल−जुलकर बनी सरकारों का युग रहा।

चुदाह्विन लोकसभा के चुनाव ने अपने अभियान में यह तथ्य स्पष्ट रेखाँकित किया है कि भारतीय राजनीति में दल और विचार जैसा कोई विभाजन नहीं रह गया है जो लोग पिछले चुनाव या छः महीने पहले तक किसी पार्टी के घोर विरोधी हुआ करते थे, चुनाव आते-आते उनमें से कई उन्हीं दलों में शरणार्थी बन गए। नीतियों और कार्यक्रमों से ज्यादा महत्वपूर्ण चुनाव में निजी संभावनाएं हो गई जीत सुनिश्चित करने के लिए फिर जैसे भी उप्पे किए जाते हैं, वे सभी जानते हैं। हज़ार बार हज़ार अवसरों पर कहा जा चुका है कि अपनी तमाम खामियों के बावजूद लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासनव्यवस्था है। जो स्वरूप उसका अभी प्रचलित है, वह कितने ही प्रयोगों और अनुभवों से निखर कर आया है चिंता यही करनी चाहिए कि वह कैसे और परिष्कृत बने। इसी के लिए प्रयत्न भी किये जाने चाहिए। बीस-पच्चीस साल बाद भारत का लोकतंत्र जिस तरह पटरी से उतरा वहीँ से शुरुआत करें। पहली लड़खड़ाहट यह है कि प्रतिनिधि-संस्थाएँ अपनी अवधि पूरी नहीं कर पातीं। समर्थन देने, मोर्चों में शामिल होने, दल बनाने और तालमेल बिठाने के साथ ही उन्हें उलट देने का जो क्रम चल पड़ा, वह प्रतिनिधिसंस्थाओं की आयु क्षीण कर देता है। चुदाह्विन लोकसभा में चुनकर आये सदस्य कृपया यह निश्चित कर ले कि इसे पूरे समय चलने देंगे। भारत जैसे देश में बार-बार चुनाव होना देश-समाज पर ज्यादती ही है। बचाव के लिए कहा जा सकता है कि चुनाव में होने वाला खर्च आखिर इसी देश में रहता है, कहीं बाहर तो नहीं जाता। हजारों कार्यकर्ताओं और लाखों मजदूरों को काम मिलता है, चुनाव लड़ रहे लोगों को जनता से आमना-सामना करना पड़ता है। यह ठीक है कि चुनाव में होने वाला खर्च यहीं के लोगों में रहता है। कहीं बाहर न जाकर, यहीं रहते हुए भी खर्च हुआ, लेकिन जिस अव्यवस्थित ढंग से वह खर्च होता है, वह साधनों के दुरुपयोग से लेकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली कई विकृतियाँ ही पैदा करता है। जो लोग उम्मीदवारों को लड़ने के लिए प्रकट-अप्रकट सहायता देते हैं, वे जीतने के बाद किसी-न-किसी रूप में उसकी वापसी भी चाहते ही होंगे।

वापसी की अपेक्षा और स्वरूप सामान्य व्यवस्था में अनुचित उलटफेर ही लाती है, बार-बार होने रक्तप्रवाह को दूषित ही करता है।

साल-दो-साल में होने वाले चुनाव देश के उस समय को उलझा लेते हैं, जो विकास में लगाना चाहिए एक बार चुनाव घोषित होने के बाद कम-से-कम दो महीने जैसे सभी कामकाज ठहर जाते हैं। सरकारी दफ्तरों से लेकर निजी उद्यमों तक सभी प्रतिष्ठान चुनावचर्चा और राजनेताओं के गुण-दोष में ही व्यस्त हो जाते हैं। प्रचार-माध्यम, राजनैतिक कार्यकर्त्ता और दूसरे लोग भी इन्हीं कामों में जुटते हैं। बीस लाख लोग अपनी सामान्य दिशाधारा से हटकर राजनीति में ही उलझ जाते हैं। यह उलझाव निश्चित रूप से देश के सामान्य जीवन को अस्त−व्यस्त करता है। इसलिए भी जरूरी कि अगले पाँच साल किसी और चुनाव की नौबत न आये।

यह लोकसभा अपनी अवधि पूरी करे, इसके लिए आवश्यक उपाय किये जाने चाहिए। निजी तौर पर तो सावधानी बरती ही जाए, जरूरी हो तो संविधान में भी संशोधन किया जा सकता है। जब तक यह सुनिश्चित न हो कि चुनी गयी सरकार अपनी अवधि पूरी करेगी तब तक लोगों का राजनैतिक व्यवस्था में भरोसा नहीं बँधता।

दल और विचार के आधार पर पार्टियाँ बनना और चलना मुश्किल हो गया है। इस चुनाव ने ही नहीं पिछले कई चुनावों ने भी सिद्ध किया है देश में कोई अखिल भारतीय पार्टी नहीं है जिन्हें हम राष्ट्रिय दल कहते हैं वे भी ५-७ प्रान्तों से ज्यादा क्षेत्र अस्तित्व नहीं रखते। आगे कभी कोई अखिल भारतीय दल उभरकर आएगा, इसकी संभावना भी कम ही दिखाई देती है। अब न्यूनतम कार्यक्रम निश्चित करना ही उपाय रह जाता है, जो जैसे-तैसे बनें समीकरणों या गठबन्धनों को स्थिर रख सकता है। चुनाव के बाद बन रही सरकार में जो भी दल आधिपत्य कर रहा हो, उसे अपने कार्यक्रमों के आधार पर ही सामंजस्य बनाने कि कोशिश करनी चाहिए। यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए कि चुनकर गए प्रतिनिधि राष्ट्र के हितों का ध्यान भी रखेंगे यह ठीक है कि राजनीति में जाने वाले लोग भी मनुष्य ही होते हैं। उनसे देवता होने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। न ही वे संत और शहीद हैं, जो जनहित में अपना सब कुछ बलिदान कर दें अथवा निजी हितों की श्रद्धाँजलि दे दें। देवता, महामानव या संत होने की अपेक्षा नहीं रखते हुए भी नागरिक धर्म का पालन की उम्मीद तो की ही जानी चाहिए। जिन मतदाताओं ने चुनकर उन्हें भेजा है, उनकी भावनाओं और अपेक्षाओं पर खरे उतरें देश-समाज और उसकी व्यवस्थाओं के लिए बहुत कुछ त्याग न करें। कम-से-कम उन्हें वरीयता तो दें ही राष्ट्रहित को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने का का संस्कार हो तब तो कोई कठिनाई ही नहीं है। इतना नहीं हो तो कम-से-कम यह तो किया ही जा सकता है कि मतदाताओं के विश्वास को बाँये रखा जाए। जिन लोगों ने उन्हें चुनकर भेजा है, उनके लिए काम करें।


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