एक बार एज शिष्य की अशाँति बढ़ी ओर बढ़ाती ही चली गई। जब चित्तवृत्तियों अनियंत्रित हो उठी तो वह अपने गुरुदेव के चरणों में जा गिरा। प्रार्थना करते हुए उसने निवेदन किया-भगवन् आज मन बड़ा अस्थिर है। लगता है इतने दिनों की साधना ओर ताप सब आज भंग हो जाएगा। आचार्यप्रवर कुछ देर तक निश्छल बैठे विचार करते रहे, फिर बोले- मन का सीधा सम्बन्ध अन्न से है- कही तुमने कुछ चुराकर तो नहीं खा लिया।
नहीं,नहीं देव! ऐसा नहीं है, किन्तु आज मैं एक नगरभोज में अवश्य सम्मिलित हुआ था। कहते हैं जिस सेठ ने यह भोज दिया, वह बहुत धर्मात्मा पुरुष है। नगर में उनका अन्नक्षेत्र चलता है। धर्म-कर्म में अत्यंत रुचि है। वह देवपूजा, अतिथिपूजा आदि शुभकर्मों में संलग्न रहता है। उसके द्वार से याचक निराश नहीं लौटता। आज के भोज में अनेक लोग सम्मिलित थे। सेठ ने सभी का बड़ा आदर सत्कार कर उनका भोज के साथ दान- दक्षिणा भी दी ओर सबका उचित सम्मान भी किया।
आचार्य हँसे और बोले- ठीक है, अब समझ में आया कि जो तुमने खाया वह बना परिश्रम का ही नहीं था। वरन् अनीति का भी था। जिस सेठ ने भोज दिया है उसने वृद्धावस्था में भी एक गरीब घर कि लड़की से विवाह किया और वह भी धन देकर। यह भोज उसने उस पाप से बचने के लिए ही किया है। आज जब तुमने खाया ही पाप का है, तो उसका फल तो भुगतना ही पड़ेगा। इसीलिए कहते है-आत्मकल्याण के इच्छुक को सदैव अपने परिश्रम और ईमानदारी से कमाया हुआ अन्न ही ग्रहण करना चाहिए