लोकसेवियों के लिए दिशाबोध-5 - लोकसेवी का दृष्टिकोण कैसा हो

October 1999

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किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण और जीवन की दिशा निर्धारित निर्माण और जीवन की दिशा निर्धारित करने का काम क्षण भर में नहीं हो जाता। स्वयं अपना निर्माण भी अनवरत प्रयासों से कई फिसलनों और भटकाओं के बाद हुआ है, तो अपने निकटवर्तियों से शीघ्रता की आशा कैसे की जा सकती है। खासतौर से उस स्थिति में जबकि लोकसेवी का अपना रुझान आदर्शों की ओर था, टीस भी थी, जबकि दूसरों में अभी लगन-निष्ठा भी पैदा करनी है। इसके लिए क्रमबद्ध शिक्षण और धैर्यपूर्वक प्रयास आवश्यक है।

आदर्शों पर दृढ़ रहने की निष्ठा परिवार वालों में भी आदर्शों के वरण की ललक जगाती है। लोकसेवी द्वारा अपने आदर्शों की कीमत पर उन्हें प्रेरणा प्रदान करने का कार्य प्रभावशाली ढंग से संपन्न नहीं होता है। जैसे लोकसेवा पिता ने यह व्रत ले रखा है कि हम सूत या खादी के वस्त्र ही पहनेंगे। स्वयं तो वह नहीं खरीदेगा, लेकिन स्वावलंबी और कमाऊ लड़के स्नेह-श्रद्धावश उसके लिए टेरीकाँट या पोलिस्टर के कपड़े ले आएँ, तो असमंजस की-सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, पर तभी जब अपना दृष्टिकोण परिवार वालों के सामने साफ न रहा हो। यदि स्वजन-संबंधियों को सादगी में शान समझने और व्यक्तित्व की उज्ज्वलता को गौरवास्पद अनुभव करने की प्रेरणा दी जाए, स्वयं अपना व्यक्तित्व भी उसी स्तर का रखा जा सके, तो ऐसी असमंजसपूर्ण स्थिति आ ही नहीं सकती। क्योंकि तब घर के लोग भी लोकसेवी की मान्यताओं और दृष्टिकोण के महत्व को समझने, स्वीकारने लगेंगे तथा वे भी उन्हीं आदर्शों को अपनाने, उस व्रत पर दृढ़ रहने की निष्ठा विकसित कर सकेंगे।

अपने व्रत पर दृढ़ रहने की निष्ठा को प्रखर अभिव्यक्ति देने से लोग भले को प्रखर अभिव्यक्ति देने से लोग भले ही वैसा व्रत न अपनाएँ, पर वे व्रत के महत्व को तो समझेंगे। परिवार के लिए लोगों शिक्षित करने के लिए परिस्थिति के अनुसार इस प्रकार के कितने ही तरीके खोजे जा सकते हैं।

परिवार के सदस्यों में उत्कृष्टता और सद्गुणों की अभिवृद्धि के साथ-साथ लोकसेवी को चाहिए कि वे अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को और ज्यादा न बढ़ाएं। प्राचीनकाल में जिन्हें लोकसेवा का व्रत लेना होता था वे तो ब्रह्मचर्याश्रम से सीधे ही लोकसेवा के क्षेत्र में उतर पड़ते थे और गृहस्थ व्यक्ति यदि लोकसेवा करना चाहते तो पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो जाते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि घर-परिवार छोड़कर संन्यासी हो जाते थे। लोकसेवा के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए वे अपनी जिम्मेदारियों को इस प्रकार पूरा कर देते या ऐसी व्यवस्था कर देते थे, जिससे कि वे परिवार के प्रति कम-से-कम उत्तरदायी हों। उदाहरण के लिए बच्चे बड़े हो गए, तो घर-परिवार की व्यवस्था उनके हाथ में सौंपकर माता-पिता ने वानप्रस्थ ले लिया और निकल पड़े समाजसेवा के लिए अथवा परिवार उत्तरदायित्वों को इतना कम रखें कि उसके लिए अपना अधिकांश समय और श्रम न देना पड़े।

आज की स्थिति में युवा लोकसेवियों को चाहिए कि वे संतान की संख्या न बढ़ाएँ। अच्छा तो यही है कि लोकसेवा के क्षेत्र में रहते हुए संतानोत्पादन से बचा जाए। संतान आखिर ममता और वात्सल्य भावना की अभिव्यक्ति के लिए के लिए ही तो आवश्यक समझी जाती है। ममता और वात्सल्य लुटाने के लिए समाज में बहुत से बच्चे हैं। यह कोई आवश्यक नहीं कि बच्चा अपनी ही संतान हो। जो विवाह की आवश्यकता अनुभव न करते हों वे अविवाहित ही रह लें और जो विवाह करना चाहें उन्हें तो संतान की आवश्यकता ही नहीं समझनी चाहिए या जिनके बच्चे हैं वे वहीं तक सीमित रखें। पारिवारिक उत्तरदायित्वों को हलका रखने से लोकसेवा के लिए अधिक समय बच सकेगा और अपनी प्रतिभा तथा योग्यता का अधिकाधिक लाभ समाज को दे सकेंगे। जापान के गाँधी कागावा की तरह वे भी विवाहित किंतु संतान उत्पन्न न कर सारे समाज का उत्तरदायित्व सँभाल सकेंगे।

सेवा के अनेक क्षेत्र हैं और उसके व्यापक स्वरूप को पूरी तरह स्पर्श कर सकना संभव नहीं है। यह सोचकर लोग अंतःकरण में सेवा की उमंग उठते हुए तथा सेवाधर्म के लिए हर दृष्टि से योग्य होते भी पीछे हट जाते हैं। वे सोचते हैं संसार में इतनी विकृतियाँ हैं, समस्याएँ इतनी विकराल हैं या हजारों लोग बाढ़ की चपेट में आ गए हैं। हम क्या कर सकते हैं? सेवाकार्य तो आरंभ हुआ नहीं कि उसके परिणाम पर दृष्टि पहले गई। यदि अन्य लोग जो सार्वजनिक समस्याओं के समाधान के लिए घर से निकलते हैं, वे सभी ऐसा सोच लें तो संसार में सेवापरक गतिविधियाँ चलेंगी ही नहीं? परिणाम क्या होगा, यह सोचे बिना अपनी सामर्थ्य और स्थिति के अनुसार प्रयास प्रारंभ कर देना सेवाभाव की पहली शर्त है। गिलहरी जानती थी कि रीछ-वानरों को, समुद्र पर पुल बनाने में कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दे सकती। फिर भी उसने सागर में डुबकी लगाना और रेत पर लौटने के बाद फिर सागर में डुबकी लगाना जारी रखा। उसका योगदान परिणाम की दृष्टि से भले ही न्यून रहा हो, पर भगवान् का कार्य करने वालों में उस गिलहरी को अग्रणी स्थान मिला।

व्यवहारिक दृष्टि से भी एकाकी योगदान निष्फल नहीं जाते। रीछ-वानर जाते थे कि हमारी शक्ति कितनी है, फिर भी उन्होंने लंकाविजय की योजना बनाई और उस पर काम किया। साधनहीन और शक्तिशाली प्रतिपक्ष को किस प्रकार परास्त किया, उदाहरण सामने है। इंद्र के क्रोधित होने पर जब ब्रज का डूबना लगभग निश्चित लगने लगा तो कृष्ण ने गोप-बालों के सामने गोवर्द्धन पहाड़ उठाने की योजना रखी। कहाँ गोप-बाल और कहाँ गोवर्द्धन पर्वत का उठाना। कार्य की गुरुता के आगे सभी अपने को असमर्थ मान रहे थे, फिर भी पीछे नहीं हटे और गोवर्द्धन पर्वत उठाकर ही रहे। लोकसेवा की उमंग अनुभव करने और उस मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले को चाहिए कि वह बूँद-बूँद से घट भरने की बात सोचे।

प्रत्यक्ष देखने पर सेवाकार्य में घाटा पड़ता है, जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं है। कृषिविज्ञान से एकदम अनभिज्ञ व्यक्ति किसी किसान को खेत में बीज डालते देखकर यह सोचने लगे कि किसान बीजों को यों ही गँवा रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं, पर उसके परिणाम हमेशा सुखद लगते हैं। सेवासाधना के परिणाम भी सामाजिक सुव्यवस्था और व्यक्तिगत आत्मसंतोष एवं आनंद के रूप में प्राप्त होते हैं। वह अनुभूति आँतरिक है-लेकिन जिनकी दृष्टि बाहरी परिणामों पर ही टिकी रहती है, वे सेवा को घाटे का सौदा समझते हैं।

समाज में यह स्थिति सदैव बनी रहने वाली है। जनसाधारण स्थूल दृष्टि से ही हर वस्तु का मूल्याँकन करते हैं। इसीलिए सेवासाधना के असाधारण लाभों को समझ नहीं पाते और उसके लिए आगे आने में, सहयोग देने में झिझकते हैं। जब कोई साहसी लोकसेवी उस क्षेत्र में पहल करता है, प्रसन्नतापूर्वक अकेला ही आगे बढ़ता जाता है, तो लोगों का भ्रम दूर होता है। सेवासाधना के लाभ सबको दिखने लगते हैं और लोकसेवी को सम्मान से लेकर सहयोग-समर्थन तक दिया जाने लगता है।

परंतु यदि लोकसेवी का दृष्टिकोण शुद्ध तथा प्रखर नहीं है, तो वह बीच में मिलने वाली उपेक्षा और कठिनाइयों से विचलित हो जाता है। उसे लगता है कि सेवा का लाभ सारे समाज को मिलता है, फिर भी समाज उसके लिए सहयोग नहीं देता, तो हम ही क्यों-मरें-खपे? और यह भाव आते ही लोकसेवी की प्रखरता घटने लगती है।

यह चिंतन उभरने का अर्थ है- ‘लोकसेवी का दृष्टिकोण खो जाना।’ ऐसा चिंतन उस मस्तिष्क में ही उभरेगा, जो सेवाकार्य को कर्त्तव्य नहीं किसी पर किया गया अहसान मानता है। सेवा भाव से संतोष बढ़ता है और अहसान के भाव से अहंकार पनपता है। उसके बढ़ने पर पतन निश्चित है। अस्तु, सेवाभावी का दृष्टिकोण सेवा के प्रति शुद्ध रहना ही चाहिए। वह सेवाकार्य को कर्त्तव्यपूर्ति का, सामाजिक ऋण से मुक्त होने का, भगवान का प्रेम पाने का एक अलभ्य अवसर मानता है। उसे खोना नहीं चाहता। उसे सौभाग्य मानकर अपनाने के लिए दौड़ पड़ता है। कोई साथ आ रहा है या नहीं, यह देखने की उसकी इच्छा ही नहीं होती। यदि कोई आ गया तो प्रसन्नतापूर्वक उसके सहयोग से कार्य को और भी प्रखर कर देता है। सहयोगी के अभाव में उसका मनोबल नहीं घटता है और सहयोगी के आने पर उसे यह भी नहीं लगता कि कोई उसके श्रेय में हिस्सा बँटाने क्यों आ गया। उसकी दृष्टि तो सेवाकार्य को अधिक से-अधिक कुशलता से करने पर रहती है। इसलिए उसकी प्रखरता एवं उसे मिलने वाले संतोष में जरा भी कमी नहीं आने पाती।

अस्तु, सेवाक्षेत्र में प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति को अपना दृष्टिकोण शुद्ध एवं प्रखर बनाकर रखना चाहिए, तभी वह सही अर्थों में अपनी शक्ति उस कार्य में लगा सकेगा। आत्मोत्कर्ष एवं समाजोत्कर्ष का संयुक्त लाभ इसी आधार पर प्राप्त हो सकेगा।

समयदान हेतु महाकाल का आमंत्रण

परमपूज्य गुरुदेव ने कहा- “हमारे विचार, क्राँति के बीज हैं। ये युगपरिवर्तन करने में समर्थ हैं। यदि आप हिम्मत करके कदम बढ़ाएं हमारे साथ, तो बात बन जाएगी। महाकाल अपनी शर्तों पर आपको आमंत्रण दे रहा। हमारे साहित्य को घर-घर पहुँचाएँ, यह साहित्य लोगों के विचारों में परिवर्तन लाएगा और इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य लाने का श्रेय आपको मिल जाएगा।”

पूज्यवर रचित वाङ्मय, जो उनका मूर्तिमान स्वरूप है, घर-घर पहुँचे-इसके लिए यदि आप दो मास का समयदान दे सकते हैं, तो निम्न जानकारियों सहित आवेदन भेजें। टोलियाँ 1 अक्टूबर 1999, 1 दिसम्बर, 99, 1 फरवरी 2000, 1 अप्रैल 2000, 1 जून 2000 से निकलेंगी।

कृपया अपना नाम-पता, फोन नं., आयु, शिक्षा, पद-व्यवसाय, आप पर कौन-कौन आश्रित हैं? गायत्री परिवार से कब जुड़े? समयदान की अवधि का विवरण देते हुए पत्र व्यवहार करें। व्यवस्थापक अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा


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