पवित्रता की चाहत

October 1999

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तप! तप!! और तप!!! यही प्रवृत्ति थी उसकी। असुरवंश का जन्म लेने के बावजूद तप ही उसका दैनिक कर्म था। वही उसकी दिनचर्या थी। अहोरात्रि उसे भगवद्ध्यान में लीन देखकर उसके साथी-सहचरों, मित्रों कुटुंबियों सभी को गहरा आश्चर्य होता था। आखिरकार क्या चाहत है उसे? धन-वैभव, भोग-विलास के सभी साधन तो उसे अनायास सुलभ है, तब उसे और क्या चाहिए। इस सवाल का जवाब ढूँढ़ पाने में सभी नाकाम थे। अब तक प्रायः सभी ने सभी तरह को कोशिश की थी, उसे तप से विरत करने की, परन्तु इनमें से कोई सफल नहीं हो सका। उसके मन की हर तरंग सत्-चित्-आनन्द के महासागर में विलीन होने के लिए विकल थी। उसकी भावनाओं का हर बिन्दु भगवत्कृपा के महासिंधु में अपने विसर्जित करने के आतुर था।

उसके तप से प्रभावित होकर स्वयं ब्रह्मा जी उसके सामने पहुँचे और उससे कहने लगे-”तुम्हारी तपस्या फलीभूत हुई, देखो मैं स्वयं जगत्पिया ब्रह्मा, तुम्हें तुम्हारा वाँछित प्रदान करने के लिए यहाँ आया हूँ।” उनकी बात उसने शाँतिपूर्वक सुन ली। परन्तु ऐसा लगा कि उस पर ब्रह्मा जी की बातों का कुछ भी असर नहीं पड़ा। बड़े ही निर्विकार भाव से वह बोला-”आप मेरे पास यहाँ आए प्रभु! इसके आपका आभार।” परन्तु मेरे तप का मकसद कुछ पाना नहीं है, बल्कि स्वयं को पवित्र बनाना है। हाँ, यदि आप मुझसे कुछ चाहें, तो मुझे वह आपको प्रदान करके गहरा आत्मसंतोष होगा।

उसकी बात ने ब्रह्मा जी को चकित कर दिया। वे सोचने लगे, कैसा है वह? इतना कठोर एवं प्रचण्ड तप करके भी कुछ चाहता नहीं, उलटे मुझे ही कुछ देना चाहता है। ब्रह्मा जी कुछ सोचते रह गए। और एक बार फिर उन्होंने आग्रह किया-सोच लो वत्स! मैं ऐसे नित्य तो आता नहीं। एक बार आया हूँ, तुम जो भी चाहो मुझसे वरदान प्राप्त कर सकते हो, बस तुम्हारे कहने भर की देर है।

परन्तु उसने कहा-”देखिए महाराज! मुझे लोभ में न डालें। मेरा लक्ष्य तो पवित्रता के चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर जीवन काक समग्र रूपांतरण करना है। यह सब तो भगवान् की परमचेतना में निमग्न होने से ही संभव है। हाँ, आपने मेरे पास आकर मुझ पर बड़ी

एक भक्त भावविभोर होकर प्रार्थना कर रहे थे- “मेरे प्रभू, द्वार खोलो, ताकि मैं तुम तक पहुँच सकूँ।”

उधर से निकलने वाले दूसरे संत ने कहा-”जरा गहरे उतरकर देखो तो, ईश्वर का द्वार क्या कभी किसी के लिए बन्द रहा है। अपनी माँ की परिवारजनों की सेवा करके देखो भगवान तुम्हें माँ के आँचल में बैठा मिलेगा।” भक्त को सही दिशा मिली। उपवन छोड़कर वह परिवार के तपोवन में चला गया।

कृपा की है। आपके किसी काम यदि मैं आ सका, तो मुझे परम सन्तोष होगा।”

ब्रह्मा जी ने तनिक सोचते हुए कहा-”अच्छा, तुम मुझे देना ही चाहते हो, तो अपनी यह विशाल देह मुझे देह डालो। वस्तुतः मैं दीर्घकाल तक तुम्हारी इस सुदृढ़ देह पर यज्ञ करूंगा।”

ब्रह्मा जी की कामना सुनकर वह परम तपस्वी हँस पड़ा। बोला-”वाह महाराज, आपने भी क्या तुच्छ चीज माँग डाली। अरे, तेरे इस शरीर का भला क्या मूल्य है। लीजिए-मैंने उसे दे दिया आपको। अब आप जो चाहें इसका उपयोग करें, अब यह मेरा नहीं रहा।”

ब्रह्मा जी को उसकी देह पर यज्ञ रचाते शत शरद बीत चले, परन्तु वह अविचल था, जरा-मृत्यु से दूर। आखिर वह पुण्यशील जो था। तप करते रहने पर भी उसका प्रतिदान नहीं चाहा था, वरन् ब्रह्म जी को भी दान देने का साहस किया था।

ब्रह्मा जी हैरान थे। उन्होंने सृष्टि के स्वामी भगवान् विष्णु को पुकारा। सर्वेश्वर आए, तो उनके चरणयुगल उसके वक्ष पर पड़े। वह निहाल हो गया। यही तो चाहता था वह। पहले सृष्टिकर्ता आए और अब स्वयं सृष्टि के स्वामी पधारे। उसका हृदय रोमाँचित हो गया, उन चरणों ने कहा-वत्स! तुम्हारा आयुष्य पूर्ण हो गया। मृत्युवेला में माँगों, तुम जो चाहो, वह मैं तुम्हें दूँगा।

उसने गद्गद् कंठ से कहा-”प्रभू! मैंने सिर्फ पवित्रता की चाहत रखी है, वही मुझे मिले।”

भगवान् भक्त के स्वरों से विह्वल हो गए। वह कहने लगे-”गयासुर! मेरे भक्त!! तुम परम पवित्र हो, पवित्रतम हो। मैं तुम्हारी भावनाओं की सराहना करता हूँ। मेरा वचन है कि तुम्हारा शरीर जिस क्षेत्र में है, जहाँ तुमने तप किया है, वह भविष्य में तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगा। जन-जन इसी गयाधाम कहकर पुकारेगा। यहाँ जो भी जन अपने पितरों-पुरखों का श्राद्ध करेंगे, वे पितर, मृतात्माएँ तुम्हारी पवित्रता के अंश से पवित्र होगी, उन्हें मुक्ति मिलेगी। तुम पवित्र तो हो ही, मुक्त भी हो। अब से तुम्हारा यह तप क्षेत्र भी मुक्तिधाम बनेगा।” भगवान् के इसी कथन के साथ अब भक्त और भगवान् एकात्मक हो गए।


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