अपेक्षित है मानवीय विकास की नूतन व्याख्याएं

October 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज विकास सबसे प्रचलित नारा बन गया है, जिसने भूख, गरीबी, बेरोजगारी की चिंता को पीछे धकेल दिया है। इन दिनों व्यवसाय -नौकरी में सुस्थापित लोगों के मनों में इसके लिए बहुतायत में आकर्षण पंप रहा है। उनके लिए विकास का अर्थ कुछ इस तरह से होता है - चमकती सड़कें, किस्म-किस्म की गाड़ियाँ, दूरसंचार माध्यमों, उपभोक्ता सामग्री से पेट बाजार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भरमार। कुल मिलाकर सुख -सुविधा एवं उपभोग की सामग्री यों से भरे पुरे चकाचौंध भरे जीवन की सृष्टि।

विकास की इस अवधारणा ने पिछले कुछ दशकों में ही जोर पकड़ा है, जबकि इसका बीजारोपण डेढ़ सौ से दो सौ वर्ष पहले एन्फ्लैद की औद्योगिक क्राँति के साथ हो चूका था। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के साथ ही उत्पादन में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई। इसकी विकास की इस अवधारणा ने पिछले कुछ दशकों में ही जोर पकड़ा है, जबकि इसका बीजारोपण डेढ़ सौ से दो सौ वर्ष पहले एन्फ्लैद की औद्योगिक क्राँति के साथ हो चूका था। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के साथ ही उत्पादन में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई। इसकी खपत के लिए अतिरिक्त सस्ते मानव एवं प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत महसूस हुई। इसी के साथ प्राकृतिक एवं मानव के विरुद्ध निर्बाध आक्रामकता का दौर शुरू हुआ और इसके अगले ही चरण में गैर यूरोपीय लोगों की प्राकृतिक संपदा की लूटपाट व उनके ऊपर अमानवीय अत्याचार व शोषण का सिलसिला शुरू हुआ।

यही वह आधार है, जिस पर वर्तमान भौतिक सभ्यता की चमत्कारिक उपलब्धियाँ टिकी हुई है। प्रशंसा भरे स्वरों में कभी कार्लमार्क्स ने इन्हीं के विषय में लिखा था की इन उपलब्धियों के सामने चीन की दीवार या पिरामिड जैसी मानव की प्राचीन उपलब्धियाँ नगण्य लगती है। उस समय औद्योगीकरण ने पश्चिम जगत को इतना प्रभावित किया था की वहाँ के पूंजीवादी और समाजवादी दोनों तरह के विचारकों के लिए यह औद्योगिक विकास ही समाज का गंतव्य निर्धारित करने वाला दिखाई देता था इसकी मूलभूत विसंगतियों एवं अमानवीय चेहरे को सबसे पहले महात्मा गाँधी ने पहचाना, तभी उन्होंने इसे शैतानी ख डाला और सच भी यही है, यह विकास जहाँ भी गया, अपने साथ घोर विषमता के बीज भी साथ ले गया।

अंग्रेजी जमाने में जब इस तथाकथित विकास ने अपनी जड़े भारत में फैलानी शुरू की थी तब यहाँ विषमता बहुत कम थी। डी इकानामिस्ट के अक्टूबर १४ के अंक के अनुसार १७८० में राज्य के ऊंच्चे अधिकारी व सामान्य नौकरों के बीच अंतर करना कठिन था। बिलहरी जिले एक सर्वेक्षण के अनुसार १८०६ में तीन वर्ग थे - अमीर,सामान्य और निम्न। जिनकी प्रतिव्यक्ति खपत क्रमशः १६ रुपये तीन आने ४ पैसे, ९ रुपये दो आने ४ पैसे और ७ रुपये एक आना थी अर्थात् अमीर और गरीब वर्ग के बीच का अनुपात २रु३रु१ था टीपू सुल्तान अपने किले के गवर्नर को रुपये प्रतिमाह देते थे और साधारण सिपाहियों का वेतन ० रुपये प्रतिमाह होता था। अंग्रेजों ने किला पर फट करने के बाद इस वेतन का अनुपात में १००रु१का अंतर कर दिया। अर्थात् अब गवर्नर का वेतन १०० रुपये हो गया इस तरह अपनी लोभ एवं शोषण मुल्क कुटिल व्यापारिक नीतियों के अंतर्गत अंग्रेजों ने कुछ लोगों को सुविधाएं प्रदान कर अपने साथ कर लिया, जबकि किसान, करिग्र४ जैसे सामान्य वर्ग जिनके कारण भारत की समृद्धि थी, उसे लुट दिया गया, उन पर अत्याचार किए गए।

दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के पश्चात भी भारत ने विकास की पश्चिमी नीतियों को ही प्राथमिकता दी। इन्हीं नीतियों के सहारे यहाँ आर्थिक स्वावलंबन, प्रगति एवं एकता समता के स्वप्न देखे। इसी के परिणाम स्वरूप आज हम आर्थिक दलदल में फंसे है और समाज घोर विषमता एवं कंगाली की त्रासदी से अभिशप्त है। एकाँगी प्रगति के नाम पर हम संतोष कर सकते है की पिछले वर्षों में खाद्य उत्पादन चार गुना बढ़ गया, समग्र घरेलू उत्पादन चार गुना बढ़ा है, औद्योगिक उत्पादन में भी इतनी ही वृद्धि हुई है। लेकिन प्रगति के ये मायने नहीं रखते है। जब अधिकाँश जनता इससे लाभान्वित न होती हो जब ४० करोड़ जनता गरीबी के नर्क के आग में झुलस रही हो जब गरीबीरेखा से नीचे वालों की संख्या प्रतिवर्ष तीन करोड़ की गति से बढ़ रही हो। ऐसे में यह तथाकथित प्रगति एवं विकास किस कम के।

आर्थिक उदारीकरण के नाम पर विकास की जिन नीतियों का अनुसरण हमने किया है उसने गरीबी और विषमता को और गंभीर बना दिया है। पिछले वर्ष हुए सर्वेक्षण के अनुसार आर्थिक सुधर के अनुसार जो लोग अमीर और अमीर हुए है और गरीब अधिक तेजी से गरीब। इंडिया मार्केट डेमोग्राफिक्स -१९९८ नमक रिपोर्ट के तहत कुल तीन तथ्य एकत्र किए गए। रिपोर्ट के अनुसार १९८७ से १९९० के आर्थिक सुधर के दौर में निम्न आय वाले परिवार की हिस्सेदारी ६४ण्१ प्रतिशत से घट कर ५८ण्८ प्रतिशत रहा गयी जो १९९०.९७ में और तीव्रता से कम हुई इसके विपरीत उच्च आय वर्ग का सुधर पूर्व दौर में १.१ प्रतिशत से १ण्४ प्रतिशत था, जो सुधार के पश्चात बढ़ते-बढ़ते ३.७ प्रतिशत हो गया। विकास की नीतियों के अंतर्गत विगत ५० वर्षों में विश्व के सकल घरेलू उत्पादकता में ७ गुना की वृद्धि हुई। व्यापार में भी इससे कही अधिक वृद्धि हुई है, साथ ही प्रतिव्यक्ति आय भी ५००० डॉलर पार कर गयी। अनुसार गत तीन वर्षों में विश्व अर्थव्यवस्था में चार प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। भारतीय महाद्वीप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कुछ देशों की अर्थव्यवस्था में भी भरी उछाल आया है, किंतु विश्व पटल पर हो रहा यह विकास भी भीषण विडंबनाओं से ग्रसित है इस दौरान गरीबी बढ़ी है। १९७१ में ही जब विश्व बैंक के के तत्कालीन अध्यक्ष रॉबर्ट इस. मैक्नमारा ने गरीबी परिभाषित किया था, तब ७० क्रीड लोग गरीबी के दंश से पीड़ित थे, आज तो इनकी संख्या से भी अधिक हो चुकी है। तथाकथित विकसित देश भी इसकी गरम आँच से अछूते नहीं है अमेरिका व यूरोपीय संघ में १५ प्रतिशत जनता गरीबीरेखा से नीचे रहती है। विकास का नाम पर बड़े-बड़े बाधाओं का निर्माण भले ही हो गया हो, पर भुखमरी की समस्या का कोई समाधान नहीं हो पाया है। विश्व के दस करोड़ अभी भुखमरी के शिकार है जिनमें एक-चौथाई बच्चे हैं इनमें एक करोड़ चालीस लाख तो प´्च वर्ष से पहले ही भूख के कारण दम तोड़ जाते हैं। एक -चौथाई दुनिया को तो पीने का स्वच्छ जल, सफाई, स्वास्थ्यसुविधा जैसी मूलभूत आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं हो पाती है।

विकसित व अविकसित देशों के बीच की खाई कितनी गहरी है, इसका अनुमान इस तुलनात्मक सर्वेक्षण द्वारा लगाया जा सकता है। एक ओर मोजाँबिक जैसा कंगाल देश जहाँ प्रतिव्यक्ति सकल उत्पादन गत ६ वर्षों में १७ डॉलर से ९० डॉलर तक घाट गया है, वाही दूसरी ओर स्विट्जरलैंड जैसा अमीर देश जिसकी उपर्युक्त दर २१ए३३० से बढ़कर ३७ए९३० डॉलर हो गई है। विकास को गति देने का दावा करने वाले उदारीकरण व भूमंडलीकरण की नीतियों के तहत विश्व में बढ़ती आर्थिक विषमता व गरीबी कैसा भयावह रूप ले रही है, यह संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट १९९८ में देखा जा सकता है।

मानव विकास रिपोर्ट १९९८ में उपभोग को आधार बनाकर विश्व जनसँख्या की स्थिति देखने की कोशिश की गयी है। इसके अनुसार पिछले कई दशकों में उपभोग के क्षेत्र में एक उछाल आया है, पर एक बहुत बड़ी आबादी इससे बाहर है। सर्वाधिक धनी लोग अपनी विलासिता एवं गैर जरूरी चीजों पर जितना खर्च करते है, वह पूरी जनसँख्या के बुनियादी स्वस्थ, पोषण एवं शिक्षा के लिए जरूरी खर्च से कही अधिक है। इससे स्पष्ट है की तथाकथित आर्थिक सुधारो के दौर में गरीबी -अमीरी की खाई बढ़ी है। भूमंडलीकरण के माध्यम से एक ऐसी विश्वव्यवस्था की रचना हो रही है, जहाँ आम जनता के सरोकार गायब है। कुछ हाथों में पूजी के संचय को देख कर समतामूलक समाज की परिकल्पना पर गंभीर प्रश्नचिह्न लग जाता है रिपोर्ट के अनुसार विश्व के तीन धनी व्यक्तियों के पास सबसे कम विकसित देशों के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर पूँजी है। ऐसी तरह विश्व के ३२ सबसे धनी व्यक्तियों की संपत्ति दक्षिण एशिया के देशों - भारत, पाकिस्तान, बंगला देश, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, मालवादीप, ईरान और अफगानिस्तान के सम्मिलित सकल घरेलू उत्पाद से अधिक है।

इससे स्पष्ट है की विश्व विकास के नाम पर किस दिशा में जा रहा है? भारत सहित समूची दुनिया में एक घोर गैर बराबरी से ग्रस्त समाज का निर्माण हो रहा है सवाल सिर्फ विकसित और विकासशील देशों के बीच बढ़ती विषमता का नहीं है, विकसित देशों में भी अमीर- गरीब के बीच खाई बढ़ रही है। अपने देश में भी विकसित देशों की तर्ज में विकास का आदर्श मंडल खा जाने वाला प्रान्त केरल आज आरती विकास की धीमी गति, बढ़ते सामाजिक, पारिवारिक असंतोष एवं वैमान के कारण ने मॉडल की तलाश में है। यहाँ उच्च शिक्षा के साथ बेरोजगारी भी बढ़ी है। साथ ही आत्महत्या का प्रयास करने वालों की संख्या में तीस गुना बढ़ोत्तरी हुई है। समाज में मनोरोगियों की संख्या भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। यहाँ बढ़ते असंतोष, अवसाद के कारण बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति की वजह से केरल के निवासी एक समग्र आर्थिक विकास के मॉडल की खोज में है, जो जीवन की सार्थकता भी सिद्ध कर सके।

विकास की इस अंधी दौड़ में प्रकृति भी मनुष्य के लोभ, निरंकुश भोग एवं शोषण का शिकार हुई है आज विश्व के कई देशों एवं क्षेत्रों में जहाँ उजाला दीखता है, वही पृथ्वी अंधकारमय होती जा रही है। पिछले ३०० वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों का जितना विनाश हुआ है, उतना मानव,प्रगति के पिछले २००० वर्षों में भी नहीं हुआ। जंगल रूपी पृथ्वी की सुरक्षा जैकेट का अंधाधुंध सफाया कई संकटों को अपने साथ लाया है। कार्बन डाई आक्साइड की बढ़ती मात्रा, पतली होती ओजोन परत, बढ़ता तापमान, पिघलते ग्लेशियर, बिगड़ता परिस्थितिकी तंत्र एवं मौसम चक्र, सब मनुष्य के लिए घोर विपत्ति का अंदेशा लेकर आ रहे है कृषि में रसायनों के अति उपयोग के कारण भूमि की स्थायी उर्वरता व फसल की गुणवत्ता दोनों को ही बहुत हानि पहुंचती है। खेतों -वनों में जैव–विविधता की निरंतर कमी से नये रोग, वायरस आदि का खतरा बढ़ता जा रहा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व की दो-तिहाई शहरी जनता प्रदूषित वायु के दमघोटू वातावरण में रहने के लिए मजबूर है ५० प्रतिशत शहरों में कार्बन डाई आक्साइड हानिकारक सीमा पार कर चुकी है। यूरोप के बड़े हिस्से में जीवनदायिनी वर्षा तेजाबी वर्षा में बदल चुकी है। विकास के इस मॉडल के तहत गंगा -यमुना प्रदूषित हो गयी है चीन की पिली नदी साल के २२६ दिन सागर तक नहीं पहुंच रही। दूषित जल, वायु एवं हरदा के कारण फल, शक व अन्न से लेकर दूध तक विषाक्त तत्वों से भरते जा रहे है। भारतीय समाज के लिए इसके भावी खतरे को सूचित करते हुए यु, एन. डी. पि. की १९९६ की मानव विकास रिपोर्ट की भूमिका में जेम्स गुर्स्तब स्मिथ ने कहा था -पिछले १४,वर्षों में न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के भीतर लोगों के बीच आर्थिक ध्रुवीकरण बढ़ा है। यदि यह खतरनाक परवर्ती जरी रही तो औद्योगिक एवं विकासशील देशों के बीच आर्थिक विषमताएं अनुचित न रहकर अमानवीय रूप धर लेगी।

जाने माने विचारक वोल्फ गोग साक इस संदर्भ में अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत करते हुए कहते है की विकास की जिस रोशनी की तरफ राष्ट्र एवं सरकारें पिछले ४-५ दशक से बढ़ी रही है वह रोशनी न केवल दूर होती जा रही है, बल्कि मंद पड़ती जा रही है। समय आ गया है की विकास की इस पद्धति से पीछा छुड़ा लिया जाए। मदर टेरेसा ने एक बार तुलना करते हुए कलकत्तावासियों को न्यूयार्क से अधिक विकसित बताया था क्योंकि कलकत्तावासियों में प्रेम और स्नेह -सौहार्द्र की मात्र अधिक है। उनके अनुसार ऐसा विकास मायने नहीं रखता, जिसमें मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं। इसी आधार पर सिनापुर को वहाँ के प्रधानमंत्री गोह चोक टुग अभी विकसित नहीं मानते है जबकि सुख-सुविधा एवं केन्द्रों में एक सफलतम व्यावसायिक केन्द्रों में एक है। चोक टुँग के अनुसार विकसित खलने के लिए मानवीय मूल्यों का विकास करना अभी शेष है। अतएव आज के परिप्रेक्ष्य में मानवीय विकास की सर्वथा नूतन व्याख्या अपेक्षित है, जो एकाकी आर्थिक प्रगति एवं मूल्यविहीन भोगवादी संस्कृति से मुक्त हो। जिसमें व्यक्ति भूख, गरीबी एवं अमानवीय शोषण के दंश से पीड़ित न हो। वह प्रकृति के साथ सामंजस्य -संतुलन बिठाने हुए प्रगति पर अग्रसर हो सके। यह वस्तुतः तभी संभव है, जबकि हम यह समझ सके की भारतमाता ग्रामवासिनी है और जीवन की सार्थकता अध्यात्मोमुखी होने में है। साथ ही हमें यह अनुभव करना होगा की सर्वोच्च मानवीय मूल्य संवेदना है। इस समझदारी से ही मनुष्य की भोगवादी एवं स्वार्थपरक निरंकुश परवर्ती पर अंकुश लगाकर उसे सहयोग -शकर के लिए प्रेरित किया जा सकेगा। ऐसा होने पर ही विकास की अंधी दौड़ में अपनी घोर निराशा एवं अस्तित्व के संकट की समस्या का समाधान होगा और मनुष्य के समग्र एवं सार्थक विकास का पथ प्रशस्त होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118