गुरुकथामृत-3 - सतत् संरक्षण देती चली आ रही हमारी गुरुसत्ता

October 1999

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गायत्री परिवार रूपी विराट् संगठन को-उसके क्रिया–कलापों को देख कइयों को लगता है कि अन्य संगठनों की तरह ही यह भी विनिर्मित हुआ है व समय के प्रवाह के कारण इसकी लोकप्रियता बढ़ी है। अब चूँकि मार्गदर्शक सत्ता प्रत्यक्ष रूप में नहीं है, क्या मालूम इसका भी वह हश्र हो जो औरों का होता है। कतिपय घटनाक्रम का, जो समुद्र में समाई एक बूँद की तरह होते हैं, हवाला देकर मात्र बहिरंग तक की ही जानकारी के आधार पर वे कहते भी देखे जाते हैं कि हम कौन हैं, जो इस विराट् परिवार को संरक्षण देगा। वे भूल जाते हैं कि इस तंत्र का नियामक, कर्त्ता-धर्ता सूक्ष्म-परोक्ष में विद्यमान है एवं वह हर उस भक्त के-समर्पित परिजन के योगक्षेम के वहन के लिए सतत् तैयार रहता है। संभवतः यही कारण है कि उच्चस्तरीय आध्यात्मिक चिंतन-दूरदर्शी रीति-नीति एवं एक समग्र समाज, राष्ट्र व युग के नवनिर्माण के संकल्प को लेकर खड़ा हुआ यह विराट् संगठन विगत नौ वर्षों में विराट् से विराटतम बनता चला गया है।

कुछ अनुभूतियां-घटनाओं-पन्नों के हवाले से इस स्तंभ में पाठक-परिजनों का बताने प्रयास करेंगे कि किस प्रकार बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार सूक्ष्म में समाई प्रज्ञापुरुष की, ऋषियुग्म की सत्ता सतत् न केवल इस विराट् वटवृक्ष को पोषण देती रही है, उसके विस्तार का हेतु भी है-कण-कण में समाई है एवं सदैव उन्हें संरक्षण देती रहेगी। परमपूज्य गुरुदेव ने अपने स्थूलशरीर की उपस्थिति में ही इस पत्रिका में यह लिख दिया था, “हम दोनों का अस्तित्व सूक्ष्म रूप में शांतिकुंज गायत्री तीर्थ, गायत्री तपोभूमि के कण-कण में प्रज्ञापरिजनों के हृदय स्थानों में सन् 2000 तक बना रहेगा एवं उसके पश्चात् यह प्रायः छह अरब विश्ववासियों के कल्याण के निमित्त एक शताब्दी तक सूक्ष्म-कारण दोनों एक शताब्दी तक सूक्ष्म-कारण दोनों की रूपों में न केवल युगतीर्थ में अपितु सारे विश्व में फैल जाएगा।” इस पर हमें विश्वास करना चाहिए, क्योंकि हमारी आराध्यसत्ता इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल भविष्य का आश्वासन हमें दे गई है।

बाराँ राजस्थान के श्री नाथूलाल नंदवाना की एक अनुभूति गुरुसत्ता के सूक्ष्मीकरण के परिप्रेक्ष्य में यहाँ उल्लेखनीय है। वे प्रथम बार जुलाई 1984 की गुरुपूर्णिमा पर शांतिकुंज नौ दिवसीय सत्र के लिए पहुंचे। गुरुदेव के सामीप्य-दर्शन से वे वंचित रहे, क्योंकि उन दिनों गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना चल रही थी। सत्र में शिक्षण के दौरान उन्हें प्रेरणा मिली अपने ग्राम पाठेड़ा में वसंतपर्व के अवसर पर गायत्री यज्ञ कराने की। नए-नए जुड़े थे। चिंता हो रही थी कैसे सब कुछ होगा किंतु ऐसी परिस्थितियों में दिसंबर 1984 में सूक्ष्मीकरण से स्वप्न में गुरुसत्ता ने अनुभूति कराई कि तू इस कार्य की चिंता छोड़ दे और पूर्ण लगन के साथ प्रयत्न करता चल। तेरे यज्ञ में मैं स्वयं उपस्थित रहूँगा। दो माह पश्चात् जब वे तैयारी में लगे थे उन्हें ऐसा लगा कि आज यज्ञ का दिन है, गुरुसत्ता निश्चित ही उपस्थित होगी। इसी बीच गाँव के बाहर एक पेड़ की छाया में तुम्हारे गुरु जी आकर बैठे हैं, चलो उन्हें लेकर ससम्मान यज्ञ में लाओ। श्री नाथूलाला जी हमें लिखे पत्र में लिखते हैं कि “मैंने उन्हें समझाया कि गुरुदेव शांतिकुंज से बाहर ही नहीं निकलते व आजकल तो वहाँ भी किसी को दर्शन नहीं देते। अतः उनके आने का प्रश्न ही नहीं उठता। अगर गुरुदेव ही हैं तो आपने कैसे पहचाना, जबकि मैंने स्वयं आज तक उन्हें नहीं देखा है। तब लोगों ने मेरे घर में लगे उनके फोटो को बताते हुए कहा कि ये जिनका फोटो है, वही आए हैं।” भागे-भागे सभी वहाँ पहुँचे। गुरुदेव सशरीर तो नहीं थे, मात्र झलक देकर जा चुके थे, किंतु गाँव में चारों ओर से आने वालों का ताँता लग गया था। सब यज्ञ करने पधारे थे। वातावरण में उल्लास व दिव्यता सभी को अनुभव हो रही थी। प्रायः पांच हजार ग्रामीणों की उपस्थिति में एक विराट् यज्ञ उस दिन वसंत की वेला में हो जाना व 19,000 रुपयों की व्यवस्था भी स्वतः बन जाना, यह सब श्री नाथूलाल जी गुरुसत्ता की कृपा का प्रसाद ही मानते हैं। कुछ ग्रामीणों को तो दर्शन पूज्यवर ने दे दिए थे। श्री नाथूलाल जी ने प्रत्यक्ष दर्शन सूक्ष्मीकरण के समापन पर शांतिकुंज आकर स्वयं किए, गदगद हृदय-अश्रुभरे नेत्रों से अपने आराध्य को जी भरकर देखा व एक समर्पित कार्यकर्त्ता के रूप में तब से ढल गए।

यह किसी को भी एक छोटी-सी घटना लग सकती है, किंतु इस विलक्षण विराट् संगठन का प्राण है वह अनुभूति, जो एक सामान्य अपरिचित परिजन को जिसने अपने गुरु को देखा तक न था, एक इकाई के रूप में विनिर्मित कर गई। ऐसी एक नहीं सैकड़ों अनुभूतियाँ हैं, जिन्हें लिखने के लिए एक विश्वकोष भी कम पड़ जाएगा।

बाधाएँ कइयों के जीवन में आती है। गुरुकार्य करने में भी कम प्रतिकूलताओं का सामना नहीं करना पड़ता। फिर भी गुरुसत्ता अपना दिव्य संरक्षण किस प्रकार प्रदान करती है, उसकी एक बानगी पानीपत के श्री श्यामलाल जी एवं श्रीमती कमला धरनी को इस आपबीती से मिलती है। उन दिनों वे अमृतसर में थे। एक सत्र में शांतिकुंज आए। झोला पुस्तकालय चलाने का संकल्प दोनों ले लिया। उग्रवाद उस समय पंजाब में बढ़ोत्तरी पर था। शहर में कई-कई दिन कर्फ्यू लगा रहता था। मात्र एक घंटे के लिए चौबीस घंटों में खुलता था। ऐसे में झोला पुस्तकालय कैसे चले? सोचा गया कि एक घंटे की जो गैप मिलती है, इसमें कमला जी घर-घर साहित्य पढ़ने को दे आएँगी एवं श्यामलाल जी राशन-सब्जी आदि ले गाया करेंगे। रोज नियम निभता रहा। एक बार सतत् तीन दिन-तीन रात कर्फ्यू चला, पर दो घंटे की छूट मिली। कमला जी ने झोला टाँगा, निकल गई। जब वे समीप के मोहल्ले को पार कर थोड़ी दूर पहुँची तो पता चला कि पुनः गोली चल जाने से कर्फ्यू लग गया है। कमला जी वहीं घिर गई। सी. आर. पी. एफ. के जवानों ने उन्हें रोककर झोला खोलकर दिखाने को कहा। बड़े सम्मान से कमला जी ने कमांडिंग ऑफिसर के समक्ष रखी टेबल को अपने पल्लू से साफ कर उस पर पुस्तकें रखना आरंभ की। अखण्ड ज्योति व अन्य पुस्तकें रखी ही थीं कि एक काँस्टेबल वहाँ आया, बोला- “यह माताजी मुहल्ले-मुहल्ले घूमकर साहित्य पढ़ने को देती हैं। मुझे गायत्री चालीसा व अन्य पुस्तकें भी दी हैं।” कमाँडिंग ऑफिसर ने अखण्ड ज्योति पत्रिका देखते ही कहा कि यह आप कहाँ से मँगाती हैं, यह तो मेरे घर भी आती है। इतना कहकर उसने पत्रिका रख ली एवं इसी काँस्टेबल से कमला जी को मिलिट्री की जीप में छोड़ आने को कहा। सुरक्षित कमला जी तनावग्रस्त श्यामलाल जी के पास पहुँची व कहा कि गुरु जी के साहित्य के कारण मैं सुरक्षित आ गई। ठीक चार दिन बाद माता जी का लिखा पत्र मिला- “बच्चो! तुम उतना ही काम करो जितना आसानी से कर सको। अपनी जान को जोखिम में डालकर हमारा ध्यान अपनी तरफ मत खींचो। हमें और भी बड़े-बड़े काम करने है। तुम ज्ञानयज्ञ में भाग लो, पर अब खतरा मोल न लेना।” बिना किसी सूचना के गुरुसत्ता की ओर से चेतावनी भी आ गई एवं स्पष्ट बता गई कि इस दिन सुरक्षा किस सत्ता ने की थी। यह अवधि वह थी जब परमपूज्य गुरुदेव सूक्ष्मीकरण में गए ही थे।

ग््राम नरौका, जि. रायबरेली के अपने एक परिजन हैं, सूर्यप्रसाद त्रिपाठी। उन्हें समय-समय पर पूज्यवर की अनुभूतियाँ होती रही हैं, जबकि स्वयं वे अप्रैल 1990 में प्रथम बार शांतिकुंज आकर संस्था से जुड़े थे। परमपूज्य गुरुदेव के प्रत्यक्ष दर्शन तो कर नहीं सके थे। कई विलक्षण घटनाक्रमों का वर्णन उनकी अनुभूतियों में है। एक विषय उल्लेखनीय है-12 जून 1992 के दिन वे मोटरसाइकिल से अपने कार्य से वापस घर लौट रहे थे। मार्ग में उनके एक मित्र मिले और रोककर कुछ बातें करने लगे। दोनों बात करके अलग हुए ही थे व उन्होंने मोटरसाइकिल स्टार्ट ही की थी कि ऊपर से बिजली के तीन तार उनके ऊपर टूटकर गिर गए। मोटरसाइकिल समेत तारों में लिपटकर वे जमीन पर आ गिरे। उनके मुख से एक ही शब्द निकला- ”अरे गुरुजी”। थोड़ी देर में होश आ गया। उनके साथी ने बताया कि” आप बिलकुल सुरक्षित हैं। तार गिरने से मात्र कुछ सेकेंड पूर्व बिजली चली गई थी। मात्र गिरने व शाक के कारण आप थोड़ी देर बेहोश हो गए, लेकिन यदि बिजली के तारों में प्रवाह दौड़ रहा होता तो आप नहीं बचते।” त्रिपाठी जी लिखते हैं कि मेरा रोम-रोम कृतज्ञता से भरा पड़ा है, इस गुरुसत्ता के लिए जो सूक्ष्म में निरंतर सक्रिय रह कई बार मेरी प्राण रक्षा कर चुकी है।

धामपुर (उत्तर प्रदेश) की काँति देवी त्यागी उन कुछ सौभाग्यशाली शिष्याओं में से रही है, जो पूज्यवर की पाती सन् 1950 से भी पूर्व से पाती रही हैं। अनेक संकटों से उनकी रक्षा हुई। उन्हीं को लिखे 30-11-1954 के एक पत्र का एक अंश यहाँ उद्धृत है-प्रिय पुत्री काँता

आशीर्वाद! तुम्हारे जीवन का जो अनष्मिय भयंकर संकट आया था, सो अब टल गया है। केवल शरीर की अस्वस्थता कमजोरी थोड़ी शेष है। सो आहार-विहार के द्वारा ठीक होगी। जो जीवन तुम्हें मिला है, वह नया जन्म ही समझें और इसे आत्मा के कल्याण में लगाती रहो।-श्रीराम शर्मा आचार्य

जब भी काँता जी शांतिकुंज आतीं तो बताती थीं कि किस प्रकार गुरुदेव ने समय-समय पर उनकी रक्षा की एवं जब तक इसका उन्हें अनुभव हो पाता, पूज्यवर का पत्र उनके पास पहुँच जाता। उनके कई पत्र हमारे पास इसी तरह के सुरक्षित रखे हैं।

एक अन्य पत्र जो इतिहास बन गया है, उद्धृत कर इस माह का यह कथा प्रसंग समाप्त करेंगे। यह पत्र परमपूज्य गुरुदेव द्वारा पं. रामगोपाल शर्मा वैद्य मु. पो. खूड़ जिला सीकर को 19-9-1962 को लिखा गया था। उन्हें मारकेष की चिंता थी जो उनके ज्योतिषी की घोषणा के अनुसार उनकी कुँडली में था। उन्हें लगा कि वे अब बचेंगे नहीं। उन्होंने पूज्यवर को जो पत्र लिखा, उसी का प्रत्युत्तर एक छोटे-से पोस्कार्ड रूप में आया जो आज भी हमारे पास सुरक्षित है। 29-9-62 हमारे आत्मस्वरूप,

पत्र मिला। आपका मारकेष हमारे यहाँ रहते सफल नहीं होगा। हम अभी पौने नौ वर्ष इधर हैं, तब तक आप पूर्ण निश्चिंत रहें। सभी स्वजनों को हमारा आशीर्वाद माताजी का स्नेह कहें।

आपका ही-श्रीराम शर्मा आचार्य

श्री रामगोपाल जी के संबंधीगण आज भी खूड़ में हैं। वे बताते हैं कि ज्यों ही यह अवधि पूरी हुई, गुरुदेव ने इन्हें मथुरा में स्मरण किया, मूक प्रणाम किया वह यह घोषणा भी उनका पत्र लेकर आने वालों के समक्ष की कि अब वे रहे नहीं। उन्हें हमारा प्रणाम। यह घटना विस्तार से कभी बाद में कहेंगे। यह पत्र यह बताता है कि सतत् एक दैवी संरक्षण, एक सुनिश्चित आश्वासन प्रज्ञावतार रूपी सत्ता के साथ चलने वालों पर रहता है। आवश्यकता मात्र यह विश्वास करने, दृढ़ बनाए रखने की है। हम कभी-कभी विचलित हो जाते हैं व्यथित हो जाते हैं कि हमारा क्या होगा। जब गुरुदेव थे, माताजी थीं तो हमारा कष्ट वे सुनकर ठीक कर देते थे। अब कौन करेगा? वस्तुतः इस लेखमाला के माध्यम से हम अपने परिजनों को आश्वस्त कर देना चाहते हैं कि मानवी पुरुषार्थ तो पूरा हो, तुम दृढ़ मनोबल के साथ गुरुसत्ता पर विश्वास प्रबल हो तो कोई भी कष्ट यदि पूर्णतः समाप्त नहीं, कम तो किया ही जा सकता है। अभी भी इस शताब्दी की समापन वेला में उनका सतत् आश्वासन है कि यह ज्योति कभी बुझेगी नहीं। इन दिनों जब समूची मानवजाति का भाग्य नए सिरे से लिखा जा रहा है, हर गायत्री परिजन का योगक्षेम वहन करने वाली ऋषियुग्म की अवतारीसत्ता उनका हर कष्ट सुनने व यथायोग्य समाधान करने हेतु उद्यत है। जरा पुकार लगाकर तो देखें।

अपनों से अपनी बात-1


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