बचपन में मिला ज्ञान पर निर्धरित व्यक्ति विस्तार (Kahani)

October 1999

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

महाभारत के पात्र पांडवों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर की धर्मराज ने कई बार परीक्षा ली। वन में अज्ञातवास की अवधि में धर्मराज ने यक्ष रूप में आकर, जब पानी पीने आए चारों पांडवों को मृतवत कर दिया, तब उनके समुचित उत्तर देने पर वे सभी जीवित हो गए और उनसे वर माँगने को कहा गया। वे चाहते तो छिना गया राज्य-वैभव माँग सकते थे। पार उन्होंने अपना अंतिम वर मांगा - हे भगवान! मैं लोभ, मोह, और क्रोध को जीतकर दान, तप, सत्य में परवर्त रहूं -सब पर मेरा एक जैसा स्नेह बना रहे, कभी किसी के प्रति दुर्भाव न आए -यही वर चाहता हूँ।

राजकुमार सिद्धार्थ और मंत्रीपुत्र देवदत्त दोनों साथ -साथ बाग में घूमने जा रहे थे। सहसा सिद्धार्थ ने देखा दो सुन्दर राजहंस आकाश में जा रहे हैं। उन्हें देखकर वह प्रसन्न हो उठा -देवदत्त! देखो ये कितने सुँदर पक्षी जा रहे है। देवदत्त ने ऊपर देखा और अपना धनुष बाण उठाया, एक पक्षी को मार गिराया सिद्धार्थ की प्रसन्नता शोक और व्याकुलता में प्रिंट हो उठी। सिद्धार्थ दौड़े और रक्त से सने राजहंस को गोदी में उठा लिया और सीने से लगा लिया।

इस पक्षी पार मेरा अधिकार है सिद्धार्थ देखते नहीं हो, इसे मैंने बाण से मारा है। देवदत्त ने कहा। सिद्धार्थ बिना कुछ कहे -सुने पक्षी को लेकर चले गये भवन में और वहाँ उसकी सेवा -सुश्रूषा करने लगे। देवदत्त ने उस समय राजकुमार समझकर कुछ झगड़ा नहीं किया, किन्तु जवाब इनकारी में ही मिला। सिद्धार्थ बड़े प्यार से उसकी सेवा में लगे।

देवदत्त ने न्यायप्राप्ति के लिए महाराज के पास जाकर शिकायत की। महाराज ने दोनों को दरबार में उपस्थित होने की आज्ञा दी। एक ओर देवदत्त खड़े थे दूसरी ओर सिद्धार्थ अपनी गोद में पक्षी को लिए हुए। देवदत्त ने अपना तर्क प्रस्तुत किया -महाराज मैंने पक्षी को बाण मारा, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है। किन्तु मैंने इसे बचाया है। मरने वाला नहीं, बचाने वाला बड़ा होता है। इसलिए इस पर मेरा अधिकार होना चाहिए सिद्धार्थ ने बिना पूछे कहा। महाराज ने पक्षी को दोनों के बीच में छुड़वा दिया और वह स्वयं सिद्धार्थ के पास चला गया। यही है वह अन्तः की भावना, जो बचपन में बीज रूप में जन्म लेकर बाद में आत्मविस्तार का स्वरूप लेती है और व्यक्ति को विश्वमानव बना देती है


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles